ज़मीनी स्तर पर किसानों के लिए मोदी काल में हुए बदलावों की गहन पड़ताल (भाग 1)

अन्नदाता किसान और उसके खेत (प्रतीकात्मक चित्र)

केंद्र सरकार किसानों के हित में किए गए कार्यों से जुड़े आँकड़ों को जारी करती आई है। हालाँकि, आँकड़े सिर्फ़ और सिर्फ़ काग़ज़ की शोभा बन कर रह जाते हैं, अगर धरातल पर उनका प्रभाव न दिखाई दे। किसी भी योजना या परियोजना के आँकड़े तब तक सफल नहीं माने जा सकते, जब तक उन्होंने उस व्यक्ति की ज़िन्दगी में बदलाव नहीं लाया हो, जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया है। योजनाओं पर करोड़ों ख़र्च होते हैं, उनके क्रियान्वयन में छोटी-मोटी घूसखोरी से लेकर बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार तक- तमाम तरह की दिक्कतें आती है। किसी योजना की सफलता को आँकने का पैमाना एक आम आदमी की नज़र से देखी जानी चाहिए।

यहाँ हम सरकारी योजनाओं, उनसे जुड़े आँकड़ों और ख़र्च की बात तो करेंगे ही, साथ ही एक आम किसान की ज़िंदगी में पिछले साढ़े चार वर्षों में क्या बदलाव आए हैं- इस पर भी चर्चा करेंगे। उसके लिए ज़रूरी है भारत के किसी सुदूर गाँव में जाना और वहाँ की स्थिति की पड़ताल करना। वहाँ के ऐसे किसानों से बात करना- जो सालों से खेती के कार्य में लगे हुए हैं और खेती के तमाम आय-व्यय और हिसाब-क़िताब से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। हम सैंपल के तौर पर तीन किसानों के अनुभवों को आधार बनाएँगे:

  • एक बृहद खेती करने वाला बड़ा किसान
  • एक निर्धन और कम भूमि वाला किसान
  • एक कम अनुभव वाला युवा किसान

एक निर्धन किसान और सरकारी सहायता

बिहार के पूर्वी चम्पारण में एक गाँव है- राजेपुर नवादा। जिले के मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर इस गाँव में 2010 के पहले बिजली नहीं थी। गाँवों के पेड़-पौधों पर लटके बिजली के सघन तारों को देख कर कभी-कभार बच्चे उत्सुकतावश बुज़ुर्गों से इस बारे में सवाल पूछ लिया करते थे। जवाब में उन्हें बताया जाता था कि 70 के दशक का एक दौर था, जब यहाँ बिजली आती थी। अब नहीं आती। यहाँ हमने एक ऐसे किसान से बात की, जिनके पास बस डेढ़ कट्ठे की भूमि है। डेढ़ कट्ठा यानी कि एक बीघे का लगभग 13वाँ हिस्सा। इतनी जमीन में ख़ुद के खाने-पीने पर भी आफ़त आ जाए।

ज़मीन अपनी नहीं, पर अलाव तो अपना है: जटहू सहनी (बाएँ )

जटहू सहनी मल्लाह जाति से आते हैं, यानी कि पिछड़े समुदाय से हैं। 70 वर्षीय सहनी दूसरों की ज़मीन पर खेती कर के अपना गुजारा चलाते हैं। वो किसान हैं, मजदूरी नहीं करते बल्कि ज़्यादा भूमि वाले किसानों की कुछ जमीन ‘बटइया’ पर लेकर खेती करते हैं। बटइया का अर्थ हुआ कि उन्हें उन ज़मीन पर उपजे अनाज का एक निश्चित हिस्सा ज़मीन के मालिक को देना होता है। बिहार जैसे अन्य राज्यों के गाँवों में ये सिस्टम वर्षों से चला आ रहा है।

पूछने पर सहनी बताते हैं कि उन्हें आज से 7-8 वर्ष पहले तक किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिलती थी। मुखिया जी से लेकर पंचायत सेवक तक- हर जगह मिन्नतें करने और प्रखंड दफ़्तर में ‘थोड़े पैसे ख़र्च करने’ से काम बन जाता था। उम्र ज़्यादा होने के कारण वो गाँव से बाहर नहीं जाते, लेकिन सरकारी महकमे के पास इसका भी निदान होता था। गाँव में ही बिचौलिए सक्रिय होते थे जो बैठे-बिठाए एक निश्चित ‘फीस’ लेकर ‘काम कराने’ की गारंटी देते थे। यह व्यापार इतने बड़े स्तर पर चलता था कि लोगों को ये तक नहीं पता होता था कि अगर इसकी शिक़ायत की भी जाए तो किससे?

जटहू सहनी के अनुसार, कई बार डीजल न मिलने के कारण उन्होंने पम्पिंग सेट में केरोसिन तेल तक डाल कर सिंचाई का काम चलाया था। आपको बता दें कि केरोसिन तेल (सहनी इसे मिट्टी तेल कहते हैं, गाँवो के अन्य लोगों की तरह) मशीन को ख़राब कर देता है और उसके इंजन को क्षति पहुँचाता है। “क्या करें, सब चलता था। 100 रुपए में जितना तेल आवेगा, उतना में केतना मटिया तेल मिल जावेगा। हमारा काम भी चल जाता था।”- सहनी कहते हैं। उनके अनुसार, अब गाँव-गाँव तक डीजल पेट्रोल की पहुँच और किसानों को सहज उपलब्धता ने उनका कार्य आसान कर दिया है

जब हमने उन्हें पूछा कि अगर सरकार साल में ₹6,000 देती है तो क्या उस से कुछ राहत मिलेगी? इस पर सहनी ने भोजपुरी में ज़वाब देते हुए कहा- “हमनी ला त जे मिले उहे बहुत बा, जहाँ एक्को रुपइया न बा उहाँ कुछ-एक भी मिल जाए त हमनी के कार चल जाए (अर्थ- हमें तो जो भी मिले वो चलेगा, क्योंकि जहाँ आज हम एक-एक पाई को मोहताज़ हैं, वहाँ एक-आध हज़ार का भी बहुत महत्व है।)”

उनके इस बयान से हमें यह एहसास हुआ कि दो हेक्टेयर की बात छोड़िए, जिनके पास इसका दसवाँ और बीसवाँ हिस्सा जोत भी नहीं है, उसके लिए ये योजना कितना लाभदायक है। दो हेक्टेयर को 6000 से भाग देने वाले लोगों को पता होना चाहिए कि यह योजना सिर्फ़ दो हेक्टेयर वालों के लिए नहीं है, बल्कि ‘दो हेक्टेयर तक’ वालों के लिए है- इसमें जटहू जैसे करोड़ों किसान आ जाते हैं और उनमे लाखों ऐसे हैं, जिसके पास न के बराबर ज़मीन हो। ऐसे कृषकों को सरकार की तरफ से अनुदान मिलना, उन्हें स्वावलम्बी बनाएगा और क़र्ज़ पर उनकी निर्भरता को कम करेगा।

जटहू सहनी से हमने और भी बातचीत की, लेकिन उन की व्यथा और उनके जीवन में हुए बदलावों को समझने से पहले ज़रूरी है कि हम सिंचाई को लेकर मोदी सरकार द्वारा किए गए कार्यों पर नज़र डाल लें। इसके बाद आपको यह समझने में आसानी होगी कि सरकारी योजनाओं का एक आम, निर्धन किसान के जीवन में क्या असर पड़ता है।

सिंचाई को लेकर बहुत कुछ कहते हैं आँकड़े

मोदी को विरासत में एक ऐसी कृषि अर्थव्यवस्था मिली थी, जिस में पैसे लगाने को कोई तैयार नहीं था। कृषि क्षेत्र निवेश की भारी कमी से जूझ रहा था। 2014 में देश के अधिकतर इलाकों में ऐसा भीषण सूखा पड़ा था, जिससे किसान तबाह हो गए थे। इसके अलावे बेमौसम बरसात ने किसानों के घाव पर नमक छिड़कने का काम किया था। ऐसे समय में कुछ ठोस फ़ैसलों की ज़रूरत थी और नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)’ लाकर किसानों को बहुत हद तक राहत दी।

सिंचाई क्षेत्र कवरेज ग्राफ़

हर खेत को पानी पहुँचाने के लक्ष्य के साथ शुरू हुई इस योजना ने नए कीर्तिमान रचे हैं। सितम्बर 2018 तक सिंचाई से संबंधित 93 प्रमुख प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार ने ₹65,000 करोड़ से भी अधिक के फण्ड जारी किए। 75 प्रोजेक्ट्स को पूरा किया व अन्य पर काम चल रहा है

पानी के संकट से जूझते किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए PMKSY एक वरदान की तरह साबित हुआ। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015 में इस योजना के बारे में बताते हुए कहा था कि सरकार जल संसाधन के संरक्षण एवं कुशल प्रबंधन के लिए जिला और गाँव स्तर पर योजनाएँ तैयार करेगी। सूखे से पीड़ित कृषि क्षेत्र को राहत देते हुए मोदी सरकार ने ₹50,000 करोड़ की फंडिंग के साथ सिंचाई के लिए तय बजट को दुगुना कर दिया। पानी के उचित संरक्षण और खेतों में पानी की उचित मात्रा में सप्लाई- सरकार ने एक तीर से दो निशाने साधे।

क्या एक निर्धन किसान तक पहुँची ये सहायता?

शाम का वक़्त हो गया है। जटहू सहनी अब ‘घूर’ (पुआल और सूखे गोबर से बना अलाव) लगाने की तैयारी में हैं। उनके पास इतनी ज़मीन नहीं है, बटइया वाली जमीन में ही उन्होंने एक अलग झोंपड़ी बनाई हुई है, जहाँ वो अलाव लगाते हैं। एक टोकरी पुआल, दो-चार सूखे गोबर के टुकड़े (चिपरी और गोइठा) और कुछ धान की सूखी भूसी से अलाव लगाने वाले जटहू गर्व से सीना चौड़ा कर बताते हैं कि ये घूर सुबह तक टिकेगा। इसके बाद वो अपनी गाय को दूहते हैं, जो एक समय में बस दो लीटर ही दूध देती है। बस दो लीटर इसीलिए, क्योंकि जिनके पास पैसे हैं, उन्होंने जर्सी और फ्रीजियन ब्रीड की गायें खरीद रखी है, जो इस से कई गुना ज़्यादा दूध देती है।

एक लीटर दूध सहनी के घर में खपत होती है क्योंकि उनके छोटे-छोटे पोते हैं। उनके तीनो बेटे पंजाब कमाने गए हुए हैं, जो कभी-कभार ही आते हैं। बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी भी यहाँ उनकी ही है। इसकी गाय और दूध पर लौटेंगे हम, लेकिन पहले सिंचाई पर इनकी राय की चर्चा कर लेते हैं। सहनी बताते हैं कि उन्होंने नया पम्पिंग सेट ख़रीदा है, जिस पर सरकार द्वारा ₹10,000 का अनुदान मिला है। छोटा पम्पिंग सेट है, लेकिन छोटी जोत के लिए काफ़ी है।

काफ़ी मिन्नतों के बाद जटहू ने हमें अपनी फोटो लेने दी।

अनुदान पाने के लिए इस बार सहनी को दफ़्तरों के चक्कर नहीं काटने पड़े और सबसे बड़ी बात कि उन्हें दलालों के चक्कर में भी नहीं पड़ना पड़ा। “अगर यही काम 5 वर्ष पूर्व हुआ होता तो शायद दलाल, बीडीओ, पंचायतसेवक और कृषि विभाग दफ़्तर- सबको घूस देना पड़ता।”

‘तो क्या इस बार घूस नहीं देना पड़ा?’ इस सवाल के जवाब में सहनी ने बताया कि रुपया सीधा उनके खाते में आया, जो उनके आधार से जुड़ा हुआ है। आधार को लेकर टीवी के एसी कमरों और पाँच सितारा पत्रकारों की चर्चा से सहनी जैसे निर्धन किसानों को कुछ लेना-देना नहीं है। जब हमने उनसे आधार को लेकर चल रहे विवाद में बताया और पूछा कि कुछ लोगों का मानना है कि अपना डेटा सरकार को नहीं देना चाहिए, उसका दुरूपयोग होता है- तो इस पर सहनी ने डपटते हुए पूछा “पइसा सीधा खाता में आवल दुरूपयोग कइसे होइ हो? (रुपयों का सीधे खाते में आना दुरूपयोग कैसे हुआ जी?)।”

वैसे सच में, इन विपन्न और भूमिहीन किसानों को डिज़ाइनर पत्रकार गिरोह के बीच चल रही चर्चा की कोई ख़बर नहीं होती। शायद इसीलिए, क्योंकि ये उस चर्चा से जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते। लेकिन अगर वही चर्चा धान-गेहूँ, गाय-बैल और गाँव-समाज की बात की जाए, तो वो इस बहस में कूद पड़ते हैं और जम कर अपनी राय देते हैं। जटहू बताते हैं कि अब गाँव में बिजली है, ग्राम ज्योति योजना के तहत बिजली का ख़र्च भी कम आता है।

बात होते-होते जटहू शहर की बात करने लगते हैं। बताते हैं कि शहर में ज़्यादा बिजली बिल आता है, हमारा कम आता है। उन्हें इसका कारण नहीं पता, ग्राम ज्योति योजना के बारे में नहीं पता- उन्हें पता है तो बस वो, जो उन्हें मिल रहा है। बता दें कि दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के अंतर्गत कृषि और गैर–कृषि फीडर सुविधाओं को अलग–अलग कर दिया गया है, जिस से किसानों को कम बिजली बिल देना होता है। वैसे सहनी को इस योजना से जुड़े मोबाइल ऐप की कोई जानकारी नहीं है और उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता।

जहाँ भी खेती-बारी की चर्चा हो- वहाँ जटहू (लाल गंजी में) ग़ौर से सुनते हैं

सरकारी सहायताओं से उपज पर क्या कुछ असर हुआ

सहनी को अपने खेतों से होने वाले उपज का आईडिया नहीं है। मुश्किल से 10 कट्ठा की खेती पर होने वाले ख़र्च को लेकर वो कोई हिसाब लगा नहीं पाते। बस यही बताते हैं कि किसान हमेशा घाटा में ही जाता है मिला जुला कर। लेकिन हाँ, घूसखोरी से राहत मिलने की बात ज़रूर करते हैं। पीएम-किसान योजना के बारे में सुन कर खुश होते हैं। उन्हें उम्मीद है कि सरकार किसान को रुपयों के साथ-साथ संसाधन भी उपलब्ध कराएगी, उन्हें खेती योग्य भूमि भी मिलेगी। इसको विशेष तौर पर बड़ी भूमि पर खेती करने वाले एक किसान ने बताया, जिसकी चर्चा हम अपने अगले लेख में करेंगे।

बहुत याद करने पर जटहू हिसाब लगाते हैं कि एक बीघा ज़मीन पर हज़ार रुपया तो सिर्फ़ गेहूँ की पहली दो जुताई में ही चली जाती है। बीज घर से लगता है। 2-3 हज़ार मजदूरी में जाते हैं। वैसे उनके अनुसार, खेती के मौसम में उनके बेटो-भतीजों के वापस आने से मज़दूरी कम लगती है, नहीं तो इस पर दोगुना-तिगुना ख़र्च आ सकता है।

बता दें कि केंद्र सरकार पशुपालन को लेकर भी किसानों को प्रोत्साहित करने में लगी हुई है। सहनी को पहले पता नहीं होता था कि कितनी जोत में, कौन सी खाद, कितनी मात्रा में डालनी है। अब गाँव-प्रखंड में अक्सर ऐसे सेमीनार होते रहते हैं, जहाँ बहुत सारी जानकारियाँ दी जाती है। वो बताते हैं कि कुछ दिनों पहले ही जिला मुख्यालय में एक कृषि मेला लगा था, जिसमे तरह-तरह के कृषि यन्त्र तो थे ही, साथ ही कई सारी जानकारियाँ भी दी गई। किसानों को धान-गेहूँ के अलावा मशरूम से सम्बंधित खेती की भी जानकारी दी गई। खाद की मात्रा के बारे में बताया गया।

जटहू सहनी के कहने पर जब हमने पड़ताल की तो पता चला कि उस अकेले कृषि मेले में 1600 किसानों को कृषि यंत्र के लिए स्वीकृति पत्र निर्गत किया गया था। यही नहीं, जो किसान इस मेले में कृषि यंत्र नहीं ख़रीद सके थे, उन्हें मार्केट या फिर अगले मेले में अपना मनपसंद यंत्र ख़रीदने को कहा गया था। सहनी बताते हैं कि अब किसान सलाहकारों को अच्छी ट्रेनिंग दी जाती है, जिस कारण वो उन जैसे अन्य किसानों का ज्ञानवर्धन करते हैं। पहले इन सलाहकारों को ख़ुद ज़्यादा कुछ पता नहीं होता था।

इस से पता चलता है कि सरकार द्वारा प्रचार-प्रसार पर ख़र्च किए जा रहे धन व्यर्थ नहीं जाते। किसी भी योजना का प्रचार-प्रसार ज़रूरी है। यह लोगों को जागरूक बनाता है। अभी हाल ही में राहुल गाँधी ने ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के प्रचार को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा था। जबकि जमीनी हक़ीक़त यह कह रही है कि प्रचार-प्रसार से आम लोगों को फ़ायदा होता । वो सरकार द्वारा बताई गई बातों को अमल में लाते हैं, जो किसी भी योजना का उद्देश्य होता है।

पशुपालन को लेकर एक निर्धन किसान की क्या राय है?

हमने इस लेख में बताया है कि कैसे जटहू ने गाय पाल रखी है। जटहू सहनी बताते हैं कि दूध को बेच कर कुछ पैसे आ जाते हैं, जिस से गौपालन का तो ख़र्च निकल आता है। वो कहते हैं- “अगर सरकार हमें अच्छी ब्रीड की गाय भी दे दे, तो खेती का मजा भी दोगुना हो जाए। गाय के गोबर को हम ठण्ड के मौसम में जलाते हैं, कुछ जलावन के काम में आते हैं और बाकी को खेतों में खाद के रूप में प्रयोग करते हैं।” सहनी की यह माँग उन लोगों के मुँह पर करारा तमाचा है, जो गाय और गौपालन को लेकर सरकार पर निशाना साधते आ रहे हैं।

गौपालन को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई योजनाएँ तैयार कर रही है। केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने अपने ब्लॉग में लिखा है:

“मोदी सरकार द्वारा देश में पहली बार देशी गौपशु और भैंसपालन को बढ़ावा देने, उनके आनुवांशिक संसाधनों को वैज्ञानिक और समग्र रूप से संरक्षित करने तथा अद्यतन प्रौद्योगिकियों का उपयोग करते हुए भारतीय बोवाईनों की उत्‍पादकता में सतत् वृद्धि हेतु राष्‍ट्रीय गोकुल मिशन प्रारम्‍भ किया गया है। इसकी अहमियत के मद्देनज़र वर्ष 2018-19 के 250 करोड़ रुपए के बजट को बढ़ाकर 750 करोड़ रुपए कर दिया गया है। अपने इस प्रयास को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने अब “राष्‍ट्रीय कामधेनु आयोग” के निर्माण का फैसला लिया है जो एक स्‍वतंत्र निकाय होगा।”

इसके अलावा जटहू ने कहा कि अब यूरिया, जिंक और पोटास ख़रीदने के लिए प्रखंड दफ़्तर की दौड़ नहीं लगानी पड़ती। गाँव में ही एक किसान को इसका लाइसेंस दिया गया है, जिनके यहाँ जाकर इन खादों को सरकारी दाम पर ख़रीदा जा सकता है। सारी चीजें गाँव में जैसे-जैसे उपलब्ध हो रही है, वैसे-वैसे सरकारी बाबुओं के चक्कर लगाने से भी छुटकारा मिलता जा रहा है। अनुदान और सब्सिडी भी अब सीधा आधार से जुड़े बैंक खाते में आता है, सो अलग।

दिन भर की थकान के बाद आराम के कुछ पल किसी के यहाँ बीत जाते हैं, पूरा गाँव अपना है

फसल नष्ट हो जाने पर मुआवजा

जैसा कि हम जानते हैं, किसानों के लिए उनके मेहनत से उगाए गए फ़सल का नष्ट हो जाना किसी बुरे सपने से कम नहीं है। किसानों की आत्महत्या के पीछे भी अधिकतर यही वज़ह होती है। प्रकृति पर किसी का ज़ोर नहीं होता। ओला-वृष्टि, अतिवृष्टि, सूखा या अन्य आपदाओं से नष्ट हुई फसलों के बदले किसानों को बहुत कम मुआवज़ा मिलता था। वो भी दलालों के बीच फँस कर रह जाता था।

जटहू इस बारे में अपने बुरे अनुभव को साझा करते हुए लगभग रो पड़ते हैं। एक बार उनके खेत में चकनाहा नदी (बूढी गंडक की उपनदी) का पानी घुस आया था, शायद 2008 के आसपास की बात थी। उनके डेढ़ कट्ठा खेत की बात ही छोड़िए, आसपास के बड़े किसानों के खेत भी डूब गए थे। कुछ ‘ऊँची पहुँच’ रखने वालों ने तो अनुदान का जुगाड़ कर लिया, लेकिन उनके जैसे कई ग़रीब किसान मुआवजे की बाट ही जोहते रह गए। सर्वे करने के लिए अधिकारीगण आए तो, लेकिन उन्होंने कहा कि जटहू की 50% फ़सल नष्ट नहीं हुई है, अतः उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा।

यही वो नियम था, जिस से अधिकतर किसान मार खा जाते थे। 50% का अर्थ हुआ उपज का आधा। अर्थात, अगर आपके उपज का आधा फ़सल पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है, तो आपको एक रुपया भी मुआवज़ा नहीं मिलेगा। यह कहानी बिहार के ही एक सुदूर गाँव की नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र से लेकर आंध्र तक- उस हर एक किसान की है, जिसे आत्महत्या करने के लिए मज़बूर होना पड़ता है।

नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2018 में इस बारे में घोषणा करते हुए बताया कि सरकार अब किसानों के 50 प्रतिशत की जगह 33 प्रतिशत फ़सल नष्ट होने के बावजूद भी मुआवज़ा देगी। इसके अलावा सरकार ने मुआवज़े की रक़म को पहले के मुक़ाबले डेढ़ गुना बढ़ा दिया है।

अर्थात पहले किसानों की जब तक 50% फ़सल नष्ट नहीं हो जाती थी, तब तक उन्हें मुआवज़े से वंचित रखा जाता था। अब अगर किसानों की सिर्फ़ 33% फ़सल बर्बाद हो जाती है, तब भी उन्हें मुआवज़ा मिलेगा। अभी तक जटहू को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी है, क्योंकि इसके लागू होने के बाद से कोई आपदा नहीं आई है, लेकिन उनकी आपबीती सुन कर लगता है कि आगे अगर ऐसा कुछ होता भी है, तो वो उचित मुआवज़ा के हक़दार जरूर बनेंगे।

वैसे जटहू सहनी जैसे निर्धन किसान अब भी परेशानियों से जूझ रहे हैं। उनके पास कोई पत्रकार नहीं जाते। वो टीवी चर्चा और पाँच सितारा पत्रकारों की बहस का विषय नहीं बनते। शायद यही कारण है कि उन तक सरकारी सुविधाएँ पहुँचते-पहुँचते इतनी देर हो गई। हमारा निवेदन है सम्पूर्ण मेन स्ट्रीम मीडिया से- कृपया आप अपने कवरेज में ऐसे किसानों से बात करें, इसे राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनाएँ और तब सरकार को ध्यान दिलाएँ कि अब तक क्या हुआ है, उसका कितना हिस्सा इन किसानों तक पहुँच रहा है, और क्या किया जाना बाकी है।

इस श्रृंखला में आगे बढ़ते हुए अपने अगले लेख में हम एक अनुभवी और बड़े स्तर पर खेती करने वाले किसान की बात करेंगे। उसके बाद हम बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर स्थित एक गाँव के एक युवा किसान से भी मिलवाएँगे जो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ कृषि कार्य भी बख़ूबी संभालते हैं। साथ ही, अन्य सरकारी योजनाओं की बात करेंगे, जिनकी चर्चा हम यहाँ नहीं कर पाए। तो इंतज़ार कीजिये- हमारे अगले लेख का।

अंत में जब हमने जटहू से उनके राय-विचार प्रकाशित करने की इजाज़त माँगी, तो हँस कर उन्होंने कहा- “ए से हमरा सरकार एगो जर्सी गाई दे दी का? (क्या आपकी रिपोर्ट पब्लिश होने से मुझे सरकार की तरफ से एक जर्मन ब्रीड की गाय मिलेगी?)”। इसके बाद वो फिर अपने काम में लग जाते हैं, खेती में, पशुओं में, घर-बार में।

अनुपम कुमार सिंह: भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।