पीरियड्स की छुट्टियाँ या दोयम दर्जे का होने का एहसास… क्या महिलाएँ दुनिया की अजूबा जीव हैं?

गुवाहाटी यूनिवर्सिटी ने दी पीरियड लीव (फोटो साभार: stayfree.in)

असम की गुवाहाटी यूनिवर्सिटी ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए महावारी के दौरान छात्राओं को छुट्टियाँ देने का फैसला लिया है। इस पीरियड लीव के साथ ही महीने के इन दिनों में छात्राओं को हाजिरी यानी अटेंडेंस में भी राहत दी जाएगी। यूनिवर्सिटी के सभी संबद्ध कॉलेजों में ये महावारी लीव पॉलिसी लागू होगी।

इस पॉलिसी में सेमेस्टर एग्जाम में बैठने के लिए जरूरी कम से कम न्यूनतम क्लास अटेंडेंस में भी छात्राओं को दो फीसदी की छूट देकर इसे 73 फीसदी कर दिया गया। शिक्षा मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के जारी निर्देशों के नजरिए से देखा जाए तो महावारी के दौरान महिलाओं की सेहत की अहमियत को देखते हुए लिया गया ये फैसला नजीर पेश करता है।

गुवाहाटी यूनिवर्सिटी के इस फैसले को काबिले तारीफ कहा जा सकता है। हालाँकि, ये फैसला ये दिखाता हुआ भी लगता है कि महिलाएँ जैसे दुनिया में एक अजूबा जीव हो, जिसे हरदम एक सहारे की जरूरत हो, फिर चाहे वो प्रकृति के बनाए उसके जिस्म को लेकर ही क्यों न हो।

इन दिनों घोर नारीवाद के नाम पर पीरियड लीव ही नहीं, बल्कि थ्रेडिंग, अपरलिप्स, अंडर आर्म्स, फेसिअल, ऑर्गेज्म यानी चरम सुख पर खुलेआम बात होने लगी है। ये अच्छा भी है, क्योंकि अब एक बेटी को अपने पिता से, एक बहन को अपने भाई से पीरियड के लिए पैड मँगाते हुए हिचक नहीं होती है। ये नजरिया एक बच्ची, एक लड़की, एक महिला के हक में बेहद सुखद बदलाव महसूस कराता है।

मसला वहाँ पैदा होता है, जब हम इन बातों को लेकर मुद्दा बनाते हैं और खुद को एक इंसान से कुछ अलग साबित करने की होड़ में लग जाते हैं। नारीवाद की दौड़ में आगे निकलने के लिए हम कुदरत की दी गई जिस्मानी प्रक्रियाओं को लेकर भी शोर मचाते हैं।

कुदरत ने औरत के जिस्म को माँ बनने के लिए ही तैयार किया है। महावारी उसी का हिस्सा है। ये कुदरत की एक सामान्य प्रक्रिया है। एक औरत होने के नाते मैं भी इससे दो-चार होती हूँ। हालाँकि, ये जरूरी नहीं की हर किसी लड़की या महिला को इस दौरान दर्द या तकलीफ से दो-चार होना ही पड़ता है।

मेरे केस में पीरियड शुरू होने से लेकर अभी तक ऐसा शारीरिक दर्द या परेशानी मुझे नहीं झेलना पड़ी है, लेकिन मैं ये नहीं कहती कि हर किसी के महावारी के दिन इतने ही सुकून भरे बीतते हों। मुझे मेंस्ट्रुअल लीव यानी पीरियड्स के दौरान छुट्टी की जरूरत नहीं महसूस होती और शायद मेरे जैसा अनुभव कुछ दूसरी महिलाओं का भी रहा हो।

वहीं, कुछ अन्य लड़कियों एवं महिलाओं को पीरियड्स के दौरान अच्छी-खासी मानसिक एवं शारीरिक परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं। किसी को पेट में असहनीय दर्द होता है तो किसी को बदन दर्द। किसी को उल्टी, तेज बुखार, मूड स्विंग, चिड़चिड़ेपन और कमजोरी से भी दो-चार होना पड़ता है। लाजिमी है कि महावारी के दौरान इस तरह की परेशानियाँ झेलने वाली महिलाओं के काम पर भी इसका असर पड़ता है।

इसके बावजूद अगर सभी लड़कियों और महिलाओं को महावारी के नाम पर हर जगह छुट्टियाँ और आराम देने की बात की जाए और ये महसूस कराया जाए कि पुरुषों के मुकाबले वो काम के मामले में इन दिनों ढीली रहती हैं तो मेरे ख्याल से ये एक आजाद, खुद पर निर्भर रहने वाली हर महिला के लिए उलाहना जैसा ही होगा। ये सबको एक ही लाठी से हाँकने जैसा भी होगा।

वैसे ही महिलाओं के मामले में लाख प्रोग्रेसिव रहने के बाद भी वर्क प्लेस में उन्हें अहमियत देने में एम्पलॉयर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। ये केवल अपने मुल्क की ही बात नहीं, बल्कि महिलाओं के मामले में दुनिया के सबसे उदार देश कहे जाने वाले आइसलैंड का भी यही हाल है। हाल ही में वहाँ की पीएम प्रधानमंत्री कैतरीना कोस्तोत्रई तक को लैंगिक समानता की माँग को लेकर हड़ताल पर बैठना पड़ा था।

कुछ जगहों पर जॉब ज्वॉइन करने से पहले ही देखा जाता है कि महिला मैरिड है या अनमैरिड। कुछ कंपनियाँ अपवाद हो सकती हैं, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि कई कंपनियाँ महिलाओं को काम देने से कतराती है। कहीं उनकी सुरक्षा का मुद्दा हावी हो जाता है तो कहीं उनकी महावारी और प्रेगनेंसी होने के बाद मेटेरनिटी और चाइल्ड केयर लीव का।

ऐसे में महिलाएँ यंग ऐज में जब वो वर्कप्लेस पर बेहतरीन काम कर सकती हैं तो उसे पीरियड्स लीव से जोड़कर उनके लिए जाने-अनजाने खाई तो नहीं खोद रहे हैं? सरकारी विभागों को छोड़ दिया जाए तो प्राइवेट कंपनियों में वैसे ही महिलाओं को 30 की उम्र के बाद रखने से गुरेज किया जाता है। अगर उस पर पीरियड्स लीव का टैग भी लग जाए तो क्या काम मिलना आसान रह जाएगा?

दूसरी तरफ पीरियड लीव का ये कॉन्सेप्ट वर्कप्लेस में महिलाओं और पुरुषों के बीच एक खाई पैदा कर सकता है। मैं ये नहीं कहती कि सभी पुरुष महिलाओं को नहीं समझते, लेकिन इंसान होने के नाते उनके दिल में वर्कप्लेस और यूनिवर्सिटीज में इस तरह की पीरियड लीव मिलने पर महिलाओं के खिलाफ हिकारत और नफरत की भावना होने से इंकार भी नहीं किया जा सकता है।

वैसे ही हम लोग दुनिया की आधी आबादी कहलाते हैं। कभी हमें पूरी में गिना ही नहीं जाता। अगर हम पूरी आबादी में शामिल होने का दम भरना चाहती हैं और चाहती हैं कि हमें भी पुरुषों के बराबर समझा जाए तो पीरियड लीव जैसे कॉन्सेप्ट से दूरी बनाने के बारे में सोचना चाहिए। जैसे हम बीमार होने पर छुट्टी लेते हैं, वैसे ही जिसे जरूरत है वो खुलेआम बुखार की जगह पीरियड्स लिखकर भी इस सामान्य तरीके से ही छुट्टी ले सकती हैं।

मेरी नजर में ये मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि इस दौर में कम से कम हम यहाँ तक तो पहुँच ही गए हैं कि रेप, पीरियड्स, ऑर्गेज्म, सेक्सुअल हेरेसमेंट पर हम खुलकर बात कर सकते हैं। उसके लिए हमें किसी खास पीरियड लीव की जरूरत शायद नहीं होनी चाहिए।

अगर स्टडी पर भी गौर करें तो हर किसी महिला को पीरियड्स में होने वाली तकलीफ का स्तर एक नहीं होता। रिसर्च ये साबित करती है। लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रजनन स्वास्थ्य के प्रोफेसर जॉन गिलेबॉड के मुताबिक, पीरियड्स के दौरान कई औरतों को हार्ट अटैक जैसी तकलीफ होती है। इससे साफ है कि सभी महिलाओं में ऐसा नहीं होता।

इसी तरह डिस्मेनोरिया पर साल 2012 की रिसर्च बताती है कि कम से कम 20 फीसदी महिलाओं को पीरियड्स के दौरान होने वाली तकलीफ से चलना भी मुश्किल हो जाता है। इसका मतलब लगभग 80 फीसदी महिलाओं के लिए ये सामान्य शारीरिक प्रक्रिया की तरह ही रहता है।

एक स्टडी के मुताबिक, पीरियड्स दर्द की वजह से काम करने में औसतन 33 फीसदी की गिरावट आती है। काम करने की क्षमता में इस तरह की गिरावट तो बुखार वगैरह से भी आ सकती है। मेरा मानना है कि ये दौर पीरियड्स और इस तरह की परेशानियों से उबरने का दौर है।

हमें उठ खड़ा होना चाहिए हर एक उस महिला के समर्थन में, जिसका इन सबसे कोई वास्ता ही न हो। जो तालीम हासिल करने के लिए समाज से दो-दो हाथ करने को तैयार हो। जो बलात्कार के बाद भी सिर उठा के बलात्कारी को ललकार सके। अपना सिर ऊँचा कर सरेआम चल सके। जो खुद के लिए बसों और अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट में किसी भी पुरुष सहयात्री को अपनी सीट खुद देने को तैयार हो।

हमें उठ खड़ा होना चाहिए उन महिलाओं के लिए जो यौन शोषण करने वालों के गाल पर भरी महफ़िल में तमाचा जड़ सके। जो छेड़खानी करने वालों का सरेआम पिटाई करके बुरा हाल करने का जिगरा रखती हो। जो महज बच्चा पैदा करने की मशीन बनकर न रहे। जो खुलेआम कह सकती हो मेरे लिए शादी जरूरी नहीं। जिंदगी जीने के लिए मुझे किसी मर्द के कंधे की जरूरत नहीं।

जो अपनी गर्भ में पल रहे कन्या भ्रूण हत्या का इरादे रखने वाले हर एक शख्स से जंग जीतकर सिंगल मदर होकर भी अपनी बच्ची को पाल सके। जो उसके जिस्म पर पड़ने वाली हर वहशी निगाह को फोड़ने से गुरेज न करे। सड़कों पर बेख़ौफ़ चले सके। खुलेआम कह सके -हाँ मैं एक लड़की हूँ, हाँ मैं एक महिला हूँ, मुझे अपने वजूद पर कोई पछतावा नहीं।

पहले हम खुद जैसे हैं वैसे ही खुद को स्वीकार करने की कोशिश तो करें। वैसा जज्बा तो अपने अंदर पैदा करें। इतना ही करके हम दुनिया में अपने वजूद को साबित करने की आधी जंग तो इससे ही जीत जाएँगी। फिर शायद हमें महावारी के दौरान गुवाहाटी यूनिवर्सिटी जैसे खास प्रिविलेज की जरूरत न हो। सुप्रीम कोर्ट में पेड पीरियड लीव माँग को लेकर याचिकाएँ डालने की जरूरत न पड़े।

बिहार की तरह 2 दिन की पीरियड्स लीव न लेनी पड़े, केरल, कोचीन में छात्राओं को हर महीने पीरियड लीव की जरूरत महसूस ही न हो। देश की 12 प्राइवेट कंपनियों से औरतों को पीरियड लीव का अहसान न लेने पड़े। हो सकता है हर कोई मुझसे इस मुद्दे पर इत्तेफाक न रखता हो, लेकिन एक औरत होने के नाते मेरा मानना है कि महिलाओं की मानसिक, शारीरिक सेहत की बेहतरी के लिए महावारी की छुट्टी नहीं बल्कि उन्हें एक सामान्य इंसान के तौर पर लेने की जरूरत अधिक है।

रचना वर्मा: पहाड़ की स्वछंद हवाओं जैसे खुले विचार ही जीवन का ध्येय हैं।