हम 2, हमारे 3: जैन समुदाय जनसंख्या वृद्धि वाले संकल्प की पड़ताल

सम्यक ज्ञान को परिभाषित करने वाले धर्म में ऐसी बचकानी सलाह का आना ख़तरनाक है

जैन समुदाय ने अपनी घटती आबादी को मद्देनज़र रखते हुए ‘हम दो, हमारे तीन’ का संकल्प लिया है। दिगंबर जैन की उच्चतम संस्था दिगंबर जैन महासमिति ने पिछले सप्ताह इंदौर में आयोजित एक कार्यक्रम में जैन जोड़ों को दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह दी। समिति ने ऐसे जोड़ों को वित्तीय रियायतें देने की भी घोषणा की। समिति ने जैन जोड़ों के बीच तलाक़ को रोकने के लिए परामर्श-सेवा (Counselling) का भी ऐलान किया। समिति ने कहा कि जैन जोड़ों को इस बारे में सोचने की ज़रूरत है क्योंकि उनके तीसरे बच्चे की शिक्षा का पूरा ख़र्च समिति ही उठाएगी। इस बारे में अतिरिक्त जानकारी देते हुए समिति के अध्यक्ष अशोक बड़जात्या ने कहा:

“ऐसे कई कारण हैं जिसकी वजह से जोड़े एक से ज़्यादा बच्चे पैदा नहीं करना चाहते। वित्तीय समस्या इनमें से एक कारण है। एक समुदाय के रूप में हम इसकी जिम्मेदारी ले सकते हैं, ताकि वे ज्यादा बच्चे पैदा कर सकें। समुदाय के सदस्य इस मुद्दे पर योजना तैयार करने के लिए जल्द ही साथ आएँगे और धन जमा करेंगे।”

फिलहाल ये योजना जैन धर्म के दिगंबर समुदाय तक ही सीमित है लेकिन इसे जल्द ही श्वेताम्बर समुदाय तक भी ले जाया जाएगा। जैन समुदाय का मानना है कि जैन धर्म सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है और इस समुदाय का संख्या में कम होना चिंता का विषय है। युवा जोड़ों के लिए काउंसलिंग और वर्कशॉप की व्यवस्था की जा रही है ताकि तलाक़ के मामले कम से कम हों। अब चर्चा इस बात पर कि क्या जैन समुदाय का यह कदम वाज़िब है या फिर यह एक गलत चलन को बढ़ावा दे रहा है? सम्यक ज्ञान की परिभाषा देने वाले इस धर्म के भीतर हमेशा से जिम्मेदारी की भावना रही है- देश के प्रति, मानवता के प्रति, जीवों के प्रति।

जैन धर्म, जनसंख्या और अल्पसंख्यक

यह सही है कि जैन धर्म सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। भारत की जनसंख्या का 0.4% हिस्सा जैन है। यह बाकी अल्पसंख्यकों के मुक़ाबले काफ़ी कम है। देश में क़रीब 15% मुस्लिम हैं लेकिन उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है। इस बारे में हम चर्चा कर चुके हैं कि कैसे कई भारतीय राज्यों में बहुसंख्यक या प्रभावी होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यकों वाली योजनाओं का लाभ उठा रहा है। भारत में 6 प्रमुख धार्मिक समुदायों में जैन समुदाय की जनसंख्या सबसे कम है। कुल मिला कर देखें तो इनकी जनसंख्या 45 लाख के क़रीब है।

अब सवाल यह उठता है कि दिगंबर जैन समुदाय की सर्वोच्च संस्था जो संकल्प ले रही है, वो तार्किक है क्या? भारत में जैन, सिख, पारसी – ये सभी समुदाय अल्पसंख्यक हैं लेकिन राष्ट्र-निर्माण में इन सभी का योगदान काफ़ी प्रभावी रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि जैन समुदाय की लगभग 80% आबादी शहरों में रहती है। उनकी आबादी का तीसरा हिस्सा देश के सबसे अमीर राज्यों में से एक महाराष्ट्र में रहता है। इन सबका अर्थ यह निकलता है कि साक्षरता के मामले में ये अव्वल हैं। एक चौथाई जैन स्नातक हैं- ये इस बात की तस्दीक़ करता है।

क्या ऐसे शिक्षित, विकसित और शहरी समाज को किसी और से सीखना होगा कि उन्हें कितने बच्चे पैदा करने हैं और क्यों? ये निर्णय लेने में स्वयं सक्षम हैं। भारत में किसी भी धर्म के एक चौथाई लोग ग्रेजुएट नहीं हैं। ऐसे में, एक शिक्षित समुदाय के बीच इस तरह का चलन शोभा नहीं देता। अगर आँकड़ों की बात करें तो पता चलता है कि पिछले पाँच दशकों में जैन समुदाय की जनसंख्या दोगुनी हुई। तब भी जैन समिति के बीच इस तरह की बेचैनी का कोई कारण नहीं बनता। जैन धर्म भगवन महावीर से जन्मा है, ये अनंतकाल तक धरती पर मौजूद रहेगा।

जैन धर्म की जनसंख्या वृद्धि की ओर है (साभार: International School For Jain Studies, New Delhi)

हाँ, यह सही है कि फर्टिलिटी दर (1.2) के मामले में जैन समुदाय हिन्दू (2.13) और मुस्लिम (2.6) से काफ़ी पीछे है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं बनता कि सरकारी सलाह और सामाजिक जागरूकता को ताक पर रख दिया जाए। जिस भी समुदाय ने जागरूकता के बजाय जनसंख्या को महत्व दिया, आँकड़े गवाह हैं कि वे आज गरीबी-अशिक्षा-बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।

शिक्षित जैन समुदाय को अजीबोगरीब कदम उठाने की शायद जरूरत नहीं (साभार: ISJS)

जैन समुदाय के अंदर सर्वाइवल रेट (0.93) सबसे ज्यादा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि बेहतर स्वस्थ सुविधाओं तक उनकी पहुँच है और उनका खानपान अच्छा है। फिर भी इस तरह की बचकानी सलाहों का आना दुःखद है। ऊपर आप 1961-2011 का ग्राफ देख सकते हैं, जिसमें दिखाया गया है कि कैसे जैन समुदाय की जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। हरे रंग में शहरी जैन जनसंख्या को दर्शाया गया है जबकि लाल रंग में ग्रामीण को। दोनों के बीच लगातार बढ़ता हुआ गैप यह बताता बताता है कि बढ़ते समय के साथ जैन जनसंख्या तेजी से शहरों की तरफ शिफ्ट हो रही है। हमारे देश में पारसियों की जनसंख्या सिर्फ़ 0.006% ही है। लेकिन क्या इस तर्क के हिसाब से उन्हें प्रति परिवार 10 बच्चे पैदा करने का संकल्प लेना चाहिए?

समुदाय की सोचना सही है, पर देश की भी तो सोचें

सभी धर्मों और उनकी संस्थाओं को अपने समुदाय के हितों के बारे में सोचने और योजना तैयार करने का पूरा अधिकार है लेकिन इसके लिए भरत सरकार की सलाह और देश में जनसंख्या की बढ़ती समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भारत में रह रहा जैन समुदाय भी इसी देश का हिस्सा है। लेकिन जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है, ऐसे में इस प्रकार का संकल्प संकीर्ण सोच का परिचायक है। आज हमारा देश जब ‘वन नेशन- वन कार्ड’ की तरफ बढ़ रहा है, हमें ‘वन कपल-वन चाइल्ड’ वाली नीति की सम्भावना के बारे में बात करनी चाहिए, न कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के बारे में।

कुछ महीनों पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने राज्य के लोगों को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अजीबोगरीब सलाह दी थी। अगर मुख्यमंत्री अपने राज्य की जनसंख्या बढ़ाने में लग जाएँ, धार्मिक संस्थाएँ अपने समुदाय की जनसंख्या बढ़ाने में लग जाएँ तो फिर देश की कौन सोचेगा? जैन धर्म के नीति-नियंताओं से आग्रह किया जाना चाहिए कि इस प्राचीन और अद्वितीय धार्मिक व्यवस्था को संकीर्ण सोच से छोटा मत बनाइए। परिवार और परिवार के साइज को समुदाय के लोगों के विवेक पर छोड़ दीजिए। वे शिक्षित हैं, युवा हैं और उन्हें इस तरह की सलाह की ज़रूरत नहीं। याद रखें कि जैन समुदाय (या कोई भी धर्म, सम्प्रदाय) इंसानों से बना है, यह कोई विशिष्ट प्रजाति नहीं जो विलुप्त हो जाए।

(जैन धर्म से जुड़े सभी आँकड़ें ‘International School Of Jain Studies’ के आधिकारिक वेबसाइट से लिए गए हैं।)

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.