जिस भास्कर में स्टाफ मर्जी से ‘सूसू-पॉटी’ नहीं कर सकते, वहाँ ‘पाठकों की मर्जी’ कॉर्पोरेट शब्दों की चाशनी है बस

'पाठकों की मर्जी' के बजाय भास्कर शुद्ध बिजनेस करे, पत्रकारिता के लिए यही काफी होगा

लक्ष्मी प्रसाद पंत। दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संपादक हैं। 22 जुलाई को एक ट्वीट करते हैं। समय होता है दोपहर का 12 बज कर 14 मिनट।

https://twitter.com/pantlp/status/1418099680978759684?ref_src=twsrc%5Etfw

“मैं स्वतंत्र हूं, क्योंकि मैं दैनिक भास्कर हूं….!!!”

आजाद देश में सभी स्वतंत्र हैं। पाँचवीं का बच्चा भी, दैनिक भास्कर भी। अपराध साबित होने तक अपराधी भी। 9वीं-10वीं के नागरिक शास्त्र वाली किताबों की सर्वसामान्य बात राष्ट्रीय संपादक स्तर के आदमी को क्यों लिखनी पड़ी? खुद लक्ष्मी प्रसाद पंत (एलपी पंत) ही बता पाएँगे।

आगे बढ़ते हैं। तारीख वही थी, समय हो गया था दोपहर का 1 बज कर 42 मिनट। एलपी पंत फिर से एक ट्वीट करते हैं। बिना शब्दों वाला ट्वीट। सिर्फ फोटो। जो लिखा था, फोटो में ही लिखा था।

दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संपादक एलपी पंत का फोटो वाला ट्वीट

मैं स्वतंत्र हूं
क्योंकि मैं भास्कर हूं
भास्कर में
चलेगी पाठकों
की मर्जी

“भास्कर में चलेगी पाठकों की मर्जी” – फोटो में यह नीचे वाला हिस्सा है। सच्चाई यह है कि इस वाक्य में ईमानदारी नहीं है। कैसे? कोई सबूत? सबूत खुद लेखक है। लेखक जिसने दैनिक भास्कर (ऑनलाइन मीडिया) में काम किया है कभी। जब तक काम किया, इसी के सहारे रोजी-रोटी भी चली थी।

भास्कर में पाठक की मर्जी (तर्क)?

पाठक सुबह अखबार खरीदता है। खोल कर पढ़ता है। पाठक TV देखता है। अपने मन का चैनल बदलता है। पाठक वेबसाइट खोलता है, एक खबर छोड़ दूसरी खबर पर चला जाता है। इसे मर्जी कहते हैं, पाठक की मर्जी। कृपया इसे “भास्कर में पाठक की मर्जी” जैसे चाशनी में डूबे शब्द मत बनाइए। पाठक निरीह है, शब्दों का अफीम देकर उसे मानसिक तौर पर निर्जीव मत बनाइए।

क्यों? क्योंकि सही में भास्कर हो या ‘XYZ टाइम्स’ या ‘ABC तक’… कहीं भी पाठकों की मर्जी नहीं चलती। क्यों नहीं चलती?

क्योंकि… 1.) अस्पताल में डॉक्टर-नर्स तय करते हैं कि पैर में बैंडेज लगाना है या आँख पर। 2.) सीमा पर सेना के अफसर-जवान तय करते हैं कि गोली दागनी है या हथगोला फेंकना है। 3.) संसद में सांसद तय करते हैं कि शाह बानो को क्या चाहिए या उनका खुद का वेतन बढ़े या नहीं… इन तीनों (सिर्फ उदाहरण हैं, तमाम धंधे-बिजनेस-कॉर्पोरेट आप खुद लिख सकते हैं) के जैसे ही किसी मीडिया हाउस में संपादक-संपादक के नीचे वाले-डेस्क वालों से लेकर फील्ड वाले पत्रकार तय करते हैं कि क्या छपेगा, क्या नहीं। फिर ढकोसला क्यों? शब्दों का पहाड़ क्यों?

भास्कर में पत्रकारों की मर्जी (आपबीती)?

दिल्ली में दैनिक जागरण (ऑनलाइन) की नौकरी के बाद दैनिक भास्कर (ऑनलाइन ही) पहुँचा। भेजा गया भोपाल क्योंकि भास्कर के दिल्ली ऑफिस में जगह खाली नहीं थी। जाना तो था ही, सो मैं पहुँचा भोपाल। ऑफिस में कुछ नए दोस्त बने, कुछ सोशल मीडिया पर पहले से दोस्त थे, उनसे मुलाकात हुई। शुरुआती 2-4 दिनों (जब आप चुपचाप बैठे होते हैं, सिर्फ मुंडी हिलाते हैं और काम करते हैं) के बाद ऑफिस को भी देखने लगा। संपादकीय बातों से दूर यह कहानी ऑफिस के दर-ओ-दीवार की ही है।

नित्य क्रिया से निवृत होने वाली बात सरकारी स्कूल की किताबों में दूसरी-तीसरी में पढ़ा दी गई थी। जो बात इन किताबों में छूट गई थी, वो भास्कर के भोपाल ऑफिस ने साक्षात दिखा दी। भास्कर ने सिखाया कि सूसू-पॉटी करने के लिए अलग-अलग लोगों (इंसान, एक ही ऑफिस में काम करने वाले इंसान) के लिए अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिए।

मैं तब संपादकीय टीम का एक अदना सा सिपाही था, इसलिए हमारे लिए जो टॉयलेट थे, वो आम थे। मैनेजमेंट (या शायद तब के संपादक भी जाते होंगे, मैंने हालाँकि कभी झाँक कर देखा नहीं) के लोग जिस टॉयलेट में जाते थे, उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – Executive Toilet… मतलब उनका टॉयलेट खास था।

आम और खास टॉयलेट तक की दीवार को जो संपादक आज तक (कुछ मित्र बताते हैं कि अभी तक है) नहीं गिरा पाए हैं, जो संपादक अपनी संपादकीय टीम के साथी को Executive तक फील नहीं करवा पाते हैं, वो ऑफिस की दीवारों के पार सड़क पर चलते आम पाठकों के लिए इतने भारी-भरकम शब्द कैसे गढ़ लेते हैं?

“पाठकों की मर्जी…” क्यों, काहे?

PS: दैनिक भास्कर समूह पर ज्यादा पैसा कमाने लेकिन टैक्स कम देने का आरोप है। आयकर वालों ने इसे लेकर कई जगह छापे मारे। उसके बाद ‘पत्रकारिता का दमन’, ‘आपातकाल’ जैसे जुमले उछाले गए। मेरी कहानी का इस मामले से कोई लेना-देना नहीं। बस यह बताने की कोशिश है कि सब कुछ वैसा नहीं, जैसा दैनिक भास्कर बताता है।

चंदन कुमार: परफेक्शन को कैसे इम्प्रूव करें :)