क्या वाकई ‘कोरोनिल’ बेचने के​ लिए रामदेव को प्रचार की जरूरत है?

क्या वाकई 'कोरोनिल' बेचने के​ लिए रामदेव को प्रचार की जरूरत है?

बाबा रामदेव ने मंगलवार (जून 23, 2020) को ‘कोरोनिल’ नाम से एक दवा बाजार में उतारी। दावा है कि आयुर्वेदिक तरीके से शोध और अध्ययन के बाद बनाई गई यह दवा कोरोना के उपचार में सक्षम है। मुझे नहीं पता कि इसमें कितनी सच्चाई है। इसके तकनीकी पक्षों को मैं जानता भी नहीं। अब खबर आई है कि केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने पंतजलि से इस दवा का विज्ञापन बंद करने को कहा है।

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क्या वाकई कोरोनिल बेचने के​ लिए रामदेव को प्रचार की जरूरत है? मुझे ऐसा नहीं लगता, क्योंकि मैं रामदेव की घरों में घुसपैठ को जानता हूँ।  

2005 का साल था। कविवर को सत्ता से गए सालभर से ज्यादा हो गए थे। मनमोहन सिंह की सरकार वामपंथियों के बैसाखी पर टिकी थी। प्रकाश करात माकपा के महासचिव बन चुके थे। उस समय देश के राजनीतिक गलियारों के वे हॉटकेक थे। उनकी पत्नी वृंदा करात की भी खूब चर्चे थे। पीएम मोदी की भाषा में कहें तो, खान मार्केट गैंग में कोई ऐसा नहीं था जो वृंदा करात से नजदीकी नहीं चाहता था। 

अपवाद एक दंपती थे। एनडीटीवी वाले प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय। इनकी पहले से वृंदा से नजदीकी थी। रिश्ते में प्रणय, वृंदा के बहनोई तो राधिका बहन लगती हैं।

एक दिन वृंदा करात ने आरोप लगाया कि बाबा रामदेव जो आयुर्वेदिक दवाएँ बनाते हैं, उसमें पशु अंग और मानव की हड्डियाँ होती हैं। उस समय रामदेव का रसूख आज जैसा नहीं था। या यूँ कहे कि देश को रामदेव की ताकत का भान ही नहीं था। जंतर-मंतर पर रामदेव के खिलाफ कार्रवाई को लेकर वामपंथी दलों का एक प्रदर्शन भी हुआ था। अगले दिन सुदूर भारत के अखबारों में भी ये प्रदर्शन सुर्खियों में था। उसे संबोधित करती वृंदा करात की बड़ी तस्वीर भी। 

लेकिन इस खबर के प्रकाशित होने के बाद अलग ही तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिली। देश के कई शहरों में रामदेव के समर्थन में स्वत: स्फूर्त प्रदर्शन हुआ। तब देश को पहली बार रामदेव की लोगों के बीच पैठ और लोकप्रियता का एहसास हुआ। प्रतिक्रिया देख वृंदा करात भी महीनों चुप रहीं। 

2006 के शुरुआत में उन्होंने फिर मुँह खोला और आरोप दोहराए। इस बार प्रतिक्रिया और तीव्र हुई। इसके बाद वृंदा बोलती रहीं, लोगों ने नोटिस करना छोड़ दिया। अमेरिका से परमाणु करार पर राजदीप सरदेसाई (जी हाँ, मैंने गलती से यह नाम नहीं लिखा) की दगाबाजी से कॉन्ग्रेस ने सरकार बचा ली और उनके ​पति का भी जलवा-जलाल खत्म हो गया।

2006 के मई में मैं सीतामढ़ी गया था। मेरे पिताजी के मौसेरे भाई वहाँ रहते हैं। खाने-पीने के बड़े शौकीन थे। रात को खाने के वक्त मैंने उन्हें रुखा-सूखा खाते देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। चाची से सुबह पूछा तो पता चला कि वे बीमार रहते हैं और हरिद्वार जाकर रामदेव से इलाज करवा रहे हैं। उस दिन पहली बार महसूस हुआ कि ये आदमी छोटे शहरों, गाँवों में भी घुस चुका है।

फिर इस आदमी को जानने की ललक हुई। अपने आसपास के गाँवों को टटोला। धनबाद के आसपास के गाँवों में जाता तो लोगों से उसके बारे में पूछ लेता। फीडबैक सकारात्मक ही मिल रहे थे। कुछ साल बाद हरिद्वार भी गया। इस आदमी से मिला भी। 

फिर आया जून 2011। मैं दिल्ली आ चुका था। रामदेव कालाधन के मसले पर रामलीला मैदान से आंदोलन करने वाले थे। यूपीए सरकार ने तीन मंत्रियों को उनकी अगवानी के लिए एयरपोर्ट ही भेज दिया। कई उस दिन आश्चर्यचकित हुए। मैं नहीं हुआ। कुछ इसे अन्ना हजारे का दबाव बता रहे थे। मुझे ऐसा नहीं लगता था।

मेरा हमेशा से मानना है कि उस समय की यूपीए सरकार ने अन्ना हजारे को कभी भाव ही नहीं दिया। उसने अन्ना को उसके हाल पर छोड़ दिया था। वो तो जनभावनाएँ जुड़ी थी कि अन्ना के चेले सितारे बन गए। 

वो सरकार असल में रामदेव की चुनौती से घबराई हुई थी। इसलिए उसे रामदेव का रामलीला मैदान में बैठना गँवारा नहीं था। उसने रातों-रात लाठीचार्ज करवा दी। रामदेव की इस ताकत को मोदी भी बखूबी समझते थे। वे जानते थे कि बिना शोर-शराबे के स्वामी रामदेव के समर्थक उनके कहे पर वोट डाल आते हैं।

अब उसी मोदी सरकार के आयुष मंत्रालय का फैसला देख रहा हूँ तो हँसी आ रही है। क्या आपको लगता है कि वाकई माल बेचने के लिए रामदेव को प्रचार की जरूरत है। वो तो शुक्र मनाइए कि रामदेव बनिया बन गए तो कई मीडिया हाउस चल रहे हैं। जरा मीडिया कंपनी के मालिकों से पूछिए कि नोटबंदी के बाद रामदेव के विज्ञापन का सहारा न होता तो उनका क्या हुआ होता?

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