जज साहब डर गए क्या? आख़िर उंगली उठते ही भागकर किसका भला कर रहे हैं आप?

जनरल विपिन रावत, नागेश्वर राव और जस्टिस सीकरी (दाएँ से बाएँ)

जस्टिस सीकरी ने ख़ुद को उस पीठ से अलग कर लिया है जो नागेश्वर राव को CBI डायरेक्टर बनाए जाने के ख़िलाफ़ दायर की गई याचिका पर सुनवाई करने वाली थी। अभी कुछ दिनों पहले ही सरकार ने Commonwealth Secretariat Arbitral Tribunal (CSAT) के लिए जस्टिस सीकरी का नाम तय किया था। इसके बाद कई नेताओं और पत्रकारों ने हंगामा मचा दिया। उनका तर्क था कि जस्टिस सीकरी ने तत्कालीन CBI डायरेक्टर आलोक वर्मा को हटाने के लिए अपना निर्णायक वोट दिया था, इसीलिए सरकार उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद पद देकर अपना ‘एहसान’ उतार रही है। इस शोर-शराबे के बाद जस्टिस सीकरी को ये पद ठुकराना पड़ा

भारत के संवैधानिक संस्थाओं पर राजनैतिक हमले होते रहे हैं। उन पर तरह-तरह के आरोप भी लगाए जाते रहे हैं, हो सकता है कि उनमे से कुछ सच भी हो। लेकिन यह पहला ऐसा मौका है जब एक-एक कर के नौकरशाही और न्यायपालिका में कार्यरत बड़े अधिकारियों पर व्यक्तिगत लांछन लगा कर उनका जीना हराम किया जा रहा है। चाहे CBI डायरेक्टर हो या फिर चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI)- इन महत्वपूर्ण पद पर बैठे लोगों तक को भी नहीं बख़्शा गया। नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर व्यक्तिगत लांछन लगाने का पुराना इतिहास रहा है, लेकिन आज से पहले शायद ही ऐसा हुआ हो जब अधिकारियों, जजों, सेना प्रमुख तक को राजनीतिक बयानबाज़ी में घसीट दिया गया हो।

क्या कोर्ट के हर निर्णय पर जजों की विश्वसनीयता तय की जाएगी

पूर्व CJI दीपक मिश्रा को तब निशाना बनाया गया, जब वो अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में थे। उन पर महाभियोग लाने की तैयारी की गई। बिना किसी सबूत के उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए। भारत के इतिहास में यह पहला ऐसा मौक़ा था जब किसी CJI के महाभियोग को लेकर राजनीति चमकाने की कोशिश की गई। कई लोगों का मानना था कि राम मंदिर जैसे महत्वपूर्ण मामले को प्रभावित करने के लिए विपक्षी पार्टियों ने ये खेल खेला था। CJI पर कई व्यक्तिगत आरोप लगाए गए और महाभियोग जैसे संवेदनशील मुद्दे को राजनैतिक हथियार बना दिया गया।

जस्टिस मिश्रा ने जाते-जाते आधार, धरा 377 सहित कई लैंडमार्क फ़ैसले दिए, जिसके बाद लिबरल गैंग का उनके प्रति गुस्सा कम हुआ। यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या अब न्यायपालिका विपक्षी नेताओं के हिसाब से नहीं चलेगी तो क्या जजों का व्यक्तिगत चरित्र हनन किया जाएगा? क्या हर एक चीज को पब्लिक मुद्दा बना कर जजों पर दबाव बनाया जाएगा? ऐसे माहौल में न्यायपालिका अगर अपना हर फ़ैसला इस आधार पर लेने लगे (जिसके लिए दबाव बनाया जा रहा है) कि इस पर विपक्ष के नेताओं और चुनिंदा पत्रकारों की क्या प्रतिक्रिया होगी- तो भगवान भला करें इस देश का।

जस्टिस सीकरी नेता नहीं हैं, उनके नाम से अपनी राजनीति मत चमकाइए

जब जस्टिस सीकरी को केंद्र सरकार द्वारा कामनवेल्थ ट्रिब्यूनल में नामित किया गया, तब कॉन्ग्रेस सहित अन्य दलों और पत्रकारों के एक ख़ास गिरोह ने सरकार पर और जस्टिस सीकरी पर कई तरह के आरोप लगाए। इस से पहले यह तनिक भी न सोचा गया कि एक पीठासीन जज पर बिना किसी सबूत के, बिना किसी तर्क के- सिर्फ़ कही-सुनी बातों के आधार पर आरोप लगा कर क्या हासिल होगा? मजबूरन जस्टिस सीकरी को यह पद ठुकराना पड़ा। सेना, ब्यूरोक्रेसी और न्यायपालिका- ये तीन ऐसी संस्थाएँ हैं, जिन्हे राजनीति से जितना दूर रखा जाए, उतना अच्छा।

लेकिन यहाँ संस्थान ही नहीं, बल्कि उस संस्थान में उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों तक को नहीं बख़्शा गया। आज (जनवरी 24, 2019) को नए CBI डायरेक्टर का चयन किया जाना है, ऐसे में ऐसी क्या जल्दी थी कि नागेश्वर राव को अंतरिम डायरेक्टर बनाए जाने के ख़िलाफ़ याचिका दाख़िल कर दी गई? क्या अब सरकार के एक-एक निर्णय को जबरन न्यायिक छनने से छाना जाएगा? जस्टिस सीकरी ने ख़ुद को इस पीठ से अलग करने का कोई कारण नहीं बताया है, लेकिन क्या ऐसी संभावना नहीं हो सकती कि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपना समय जाया करने से पहले आज हाई पॉवर्ड कमिटी के निर्णय का इंतज़ार करना उचित समझा?

राजनीतिक दल जजों पर आरोप लगाते हैं। उनके कार्यकर्तागण भी वही दुहराते हैं, जो आलाकमान कहता है। जजों के हर एक फ़ैसले से नाराज़ राजनीतिक दल उनके ख़िलाफ़ पब्लिक परसेप्शन तैयार करने लगे हैं। ऐसे में यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर किसी दिन अदालत से बाहर जजों को घेर कर राजनितिक कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन शुरू कर दिया, तब क्या होगा? कल को ऐसी स्थिति भी बन सकती है कि हर निर्णय से पहले राजनीतिक कार्यकर्ता जज के आवास को घेर कर प्रदर्शन शुरू कर दें- जैसा अक्सर नेताओं के साथ होता है।

सेना प्रमुख से क्या दुश्मनी?

जब देश का हर एक व्यक्ति सेना पर गर्व कर रहा है, सेना द्वारा आतंकियों के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे अभियान की प्रशंसा कर रहा है, तब सेना की कमान संभाल रहे व्यक्ति पर व्यक्तिगत हमले का क्या उद्देश्य हो सकता है? सेना प्रमुख के हर एक बयान को राजनैतिक चश्मे से देखा जा रहा है, सेना की हर एक करवाई पर सवाल खड़े करने वाले पैदा हो जा रहे हैं- क्या यह देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं है? सेना प्रमुख के लिए नेताओं द्वारा ‘सड़क का गुंडा‘ जैसे आपत्तिजनक शब्द प्रयोग किए गए।

दिसंबर 2016 में जब जनरल रावत को सेना प्रमुख (COAS) बनाया गया, तब उनके प्रमोशन पर सवाल खड़े किए गए। बिना उनके प्रदर्शन को देखे ऐसी आलोचना की गई। क्या ये ऐसी संवेदनशील संस्थाओं को संभाल रहे अधिकारियों का आत्मविश्वास गिराने वाला कार्य नहीं हुआ? उस से पहले जब जनरल सुहाग को COAS बनाया गया, तब भी कॉन्ग्रेस पार्टी ने सवाल खड़े किए थे। किसी ऐसे व्यक्तियों को भी राजनीतिक बयानबाज़ी में घसीटने का चलन बन गया है, जिनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई वास्ता न रहा हो।

संस्थाओं के हौसले को नुकसान न पहुँचाएँ

किस अधिकारी की मनःस्थिति पर व्यक्तिगत आरोपों का क्या असर पड़ता है, इसकी समझ नेताओं में होनी चाहिए। नेता आरोप-प्रत्यारोप, बयानबाज़ी, लांछन- इन सब के आदी होते हैं और उनकी पूरी ज़िंदगी ही आरोप लगाने और आरोपों का बचाव करने में बीतती है। लेकिन जो न्यायालय में बैठ कर महत्वपूर्ण फ़ैसले सुना रहे हैं, जो किसी जाँच एजेंसी की कमान संभाल कर अपराधियों के ख़िलाफ़ करवाई कर रहे हैं, जिन पर पूरे देश की सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारों है- ऐसे लोगों पर लगातार आरोप लगा कर क्या नेतागण अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहे?

साहब, आप अपनी राजनीति चमकाएँ, बेशक चमकाएँ, लेकिन संवैधानिक संथाओं की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाल रहे अधिकारियों और सुरक्षाबलों के प्रमुखों पर आरोप लगा कर नहीं। गन्दी राजनीति एक-दूसरे पर व्यक्तिगत लांछनों की बारिश कर के चमकाएँ, जजों और सेना-प्रमुख को अपनी घटिया बयानबाज़ी में न घसीटें।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.