एक बेकार, नकारा विपक्ष लोकतंत्र को बर्बाद करने की क्षमता रखता है

चुनावी रैलियों में भाषाई आक्रमण का स्तर अपने नैसर्गिक अवनति की ओर ज्यामितीय अनुक्रमण कर रहा है। इसमें किसी एक पार्टी का हाथ नहीं है। इसमें ये तर्क भी बेकार है कि फ़लाँ पार्टी के नेता ज़्यादा बुरी बातें बोल रहे हैं, और यह भी कि ‘इसने यह बोला था, तब उसने वह बोला’। ये तर्क बेकार इसलिए हैं कि एक बात होती है नैतिकता की, उचित-अनुचित बातों की जिसमें आप कंडीशन्स नहीं लगा सकते।

कुछ बातें संदर्भरहित होने पर भी उचित या अनुचित होती हैं, उसके लिए आपको बैकग्राउंड में जाकर खोजने की आवश्यकता नहीं होती कि इस कारण से यह कहा गया। कारण जो भी रहे हों, पर सार्वजनिक जीवन में इस तरह की अमर्यादित भाषा ग़लत ही कही जाएगी, सही नहीं। यही कारण है कि इस भाषाई कीचड़ में एक ढेला मारने वाले भी खुद को पीड़ित बताकर सहानुभूति नहीं पा सकते। मतलब, मेरी सहानुभूति तो नहीं पा सकते, बाकी दुनिया तो स्विंग करती ही रहती है।

राजनीति समाजसेवा नहीं है। हमारा सामाजिक परिदृश्य, राष्ट्रीय नज़रिए से, आदर्श नहीं है। कानून तोड़नेवालों को हम अपने सर्किल में सम्मान देते पाए जाते हैं। पैसा लेकर वोट देने में हम हिचकते नहीं। अपनी जाति के नेता को, चोर ही सही, चुनावों में जिताने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। हमारा काम निकल रहा हो तो हम सक्षम होने पर पैसे देकर मोलभाव करने से भी नहीं कतराते।

ऐसे में ये उम्मीद करना कि जो हमारे बीच से, वार्ड कमिश्नर के चुनाव लड़ते हुए मुखिया बनकर, ज़िला पार्षद बनता है, विधायक बनता है, सांसद बनता है, मंत्री बनता है, प्रधानमंत्री बनता, वो व्यक्ति सत्ता पाने के लिए नकारात्मक या अनुचित कार्य नहीं करेगा, ये अपने आप को मूर्ख बनाने के लिए तैयार किया गया तर्क है।

औसतन, हर समाज में बड़ा हिस्सा किसी की बातों को सुनकर सही मान लेता है, छानबीन नहीं करता। उसने जो सुना, वही उसका सत्य हो जाता है। उसने जो पढ़ा उसे मान लेता है क्योंकि वो आलसी है, और अपने पूर्वग्रहों को संतुष्ट होता देखता है। सत्य वही होता है जो हम मान लेते हैं, वरना सत्य तो कुछ भी नहीं।

किसी को मानने में देर लगती है, किसी के लिए एक घंटे का भाषण काफी लगता है। औसत व्यक्ति की इसी आलसी प्रवृति का फायदा वो उठाते हैं जिन्हें बस तीस प्रतिशत वोट चाहिए सत्ता पाने के लिए। जो व्यक्ति कुछ भी कर पाने की स्थिति में होता है, जिसकी कुर्सी की छवि इतनी बड़ी होती है कि आधिकारिक रूप से नरसंहारों को संचालित करने के बावजूद उसे कुर्सी पर बैठने के कुछ ही समय में नोबेल शांति पुरस्कार मिल जाता है, क्या वैसे लोग आपकी मानसिकता और मानसिक क्षमता को एक्सप्लॉइट नहीं करेंगे?

क्या इतनी सीधी-सी बात, जो मैं लिख रहा हूँ जिसकी चुनाव में सबसे बड़ी जीत के नाम पर सेकेंड मॉनिटर होना है, वैसे लोग नहीं जानते जो किशोरावस्था से राजनीति को क़रीब से देख, समझ और जी रहे हैं? क्या इतनी सपाट बात, कि हमारे समाज के अधिकतर लोग औसत बुद्धि के वैसे लोग हैं जो चार भाषणों से हिल जाते हैं, ऐसे लोगों को पता नहीं होगी जिन्हें ये बात तक पता होती है कि किस जगह पर क्या बोलना है कि लोग वाह-वाह करने लगें?

अब राजनीति में मर्यादा शब्द और उसके मायनों का लोप हो गया है। इस शब्द की बात वही नेता करता है जिसे विक्टिम कार्ड खेलना हो। इस शब्द की बात करने लायक एक भी नेता नहीं है क्योंकि अगर वो इस शब्द के मायने समझता होता तो राजनीति त्याग देता या सार्वजनिक रूप से अपनी पार्टी की हर बुराई को सबके सामने लाता।

राजनैतिक मजबूरियों का कवच पहनकर किसी के पाप नहीं धुलते। अगर किसी प्रधानमंत्री के शसनकाल में घोटाले हुए, समझौतों में देश की सुरक्षा को नकारा गया, तो वो प्रधानमंत्री साक्षात दशरथपुत्र रामचंद्र ही क्यों न हों, पाप के भागीदार वो भी हैं। अगर किसी के राज में दंगे हुए, तो उस पाप का भागी वो इस बात के लिए हमेशा रहेगा कि वो उस राज्य का मुखिया था, भले ही उसने हाथ में मशाल न पकड़ी हो, या लाउडस्पीकर पर लोगों को काट देने के निर्देश न दे रहा हो।

रैलियों की भाषाओं का पतन होता रहेगा क्योंकि बात सत्य बोलने की, अपना अजेंडा बताने की, अपने मैनिफ़ेस्टो पर अमल करने की नहीं रही। बात वैसी होती रहेगी जिसे सोशल मीडिया का बुखार चढ़ सके। बात वैसी होती रहेगी जिससे मेनस्ट्रीम मीडिया बार-बार लूप में चलाता रहे। अब पार्टियों के लिए पीआर टीम होती है, डिजिटल मीडिया मैनेजमेंट के लिए लोगों का समूह लगातार काम करता रहता है।

इसीलिए, जब नेता को यह बात पता हो कि वो हर जगह देखा जा रहा है, सुना जा रहा है, नज़रों में है, तो वो ऐसे काम अवश्य ही करेगा जिससे वो चर्चा में रहे। चर्चा चाहे नकारात्मक बातों के लिए ही क्यों न हो, चर्चा तो है। गाली देने के लिए ही नाम लिया जा रहा है, लेकिन नाम तो लिया जा रहा है। ये योजना फलदायक है क्योंकि यहाँ लोग नकारात्मक बातों पर खुश हो जाते हैं।

जहाँ जनता ये सुनना चाहती है कि मोदी राहुल का मजाक उड़ा दे, और राहुल मोदी को कुछ कह दे, वहाँ आखिर नकारात्मक बातें क्योंकर कारगर नहीं होंगी? यहाँ जनता ये सुनने को व्याकुल रहती है कि चारों पकड़े गए चोरों का धर्म एक है, तो फिर उस बात को ये नेता क्यों नहीं भुनाएँगे? जहाँ लोग ये सुनने में गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके धर्म के लोगों ने इतने धर्मस्थलों को तोड़कर, उनके अवशेषों को अपने धर्मस्थलों की सीढ़ियों में दफ़्न किया हुआ है, वहाँ के नेता इस बात को हवा क्यों नहीं देंगे?

विपक्ष का काम सत्ता से सवाल करना होता है। सवाल के दायरे में ‘मोदी का बाप कौन है’, नहीं आता। सवाल के दायरे में उस नेता को ‘कमीशन नाथ’ कहना नहीं आता जिसपर आरोप साबित नहीं हुए हैं। सवालों के दायरे में यह बात नहीं आती कि किसके कहने पर क्या हुआ जबकि आपके पास सिवाय उस बात को कहने के और कुछ सबूत नहीं हैं।

यह बात सच है कि जनता एक उन्माद को जीना चाहती है। जनता को आप घृणा का झुनझुना दे दीजिए, वो कुछ दिन के लिए सड़क, पानी, बिजली, घर, स्कूल, हॉस्पिटल की बात भूल जाती है। जनता को आप यह बात कह दीजिए कि उसकी माँ चोर है, उसके बाप का किसी को पता नहीं, जनता दो दिन उसी में निकाल लेती है। जनता को कहते रहिए कि इतने सालों में क्या नहीं हुआ, और जनता ये पूछना भूल जाएगी कि तुम्हारे कालखंड में क्या-क्या हुआ।

यह बात सच है कि तुलना हमेशा वर्तमान और भूत के संदर्भ में ही होती है। लेकिन तुलना को ही अपना हथियार बनाना एक तरह से योजनाबद्ध तरीके से शिकार करने जैसा है जिसमें जनता शिकार देखने में व्यस्त हो जाती है, और वो भूल जाती है कि जंगल के कानून हैं, वहाँ के संसाधनों का सही उपयोग होना चाहिए, पेड़ों का स्वास्थ्य सही होना चाहिए, नदियों को साफ़ होना चाहिए, हर तरह के पौधे की देखभाल होनी चाहिए।

कौतूहलप्रिय जनता मनोरंजनोन्मुखी होती है। उसका मनोरंजन करते रहिए, मुद्दों को वो भूल जाते हैं। यहीं पर सशक्त विपक्ष की भूमिका ज़रूरी होती है। यहीं पर विपक्ष जनता को थप्पड़ मारकर उस तंद्रा से बाहर लाता है। यहीं पर विपक्ष का काम होता है कि वो सत्ता की बातों की सीढ़ियाँ न चढ़े, बल्कि नई सीढ़ी बनाकर ऊपर से पूछे कि आख़िर जा कहाँ रही है सरकार?

विपक्ष जब सत्ता की बातों का जवाब देने में, उसके उठाए नकली मुद्दों पर चर्चा में उलझ जाती है, तब नुकसान होता है लोकतंत्र का। संविधान बचाओ रैली और कैम्पेन से संविधान नहीं बचता, उसे बचाने के लिए प्रखर और ज़िम्मेदार विपक्ष का होना ज़रूरी है। अगर एक दूसरे पर आक्षेप ही चलता रहेगा तो संविधान बचाओ रैली भी एक माजक बनकर रह जाएगी।

मजाक तो बनी हुई ही है क्योंकि जिनके बापों ने, नेताओं में व्यवस्थित तरीके से लूट मचाई है, वो ऐसी रैलियाँ करते नज़र आते हैं। इसलिए, जब विपक्ष और सत्ता दोनों ही अपने रास्ते छोड़कर कहीं और निकल ले, तो जनता का काम होता है उसके सामने भीड़ बनकर खड़े हो जाना।

इंदिरा गाँधी की मनमानी के कारण मात्र एक से डेढ़ लाख लोगों की भीड़ ने केन्द्र सरकार को मजबूर कर दिया झुकने के लिए। सिर्फ एक लाख लोगों ने! प्रतिशत निकालकर देख लीजिए। जनता को कोने में ठेलती सरकारें इस बात का फायदा उठाती है कि जनता उदासीन है, वो हर दिन अपनी ज़िंदगी काट लेना चाहती है, वही उसका उद्देश्य है।

इसलिए सत्ता ऐसी है, विपक्ष ऐसा है, समाज ऐसा है, और देश ऐसा है। अगर विपक्ष लगाम पकड़ना सीख जाए, और यह समझ ले कि उसका और सत्ता का एकल उद्देश्य सामाजिक विकास है, तभी एक पक्ष, दूसरे को भटकने से रोक सकता है। लेकिन वो समय, निकट भविष्य में नहीं आएगा क्योंकि चुनावों में अब खेल परसेप्शन मैनेजमेंट का हो गया है, वहाँ अगले दो-तीन चुनावों तक सुधार की संभावना नहीं है।

इसी परसेप्शन मैनेजमेंट के कारण मुद्दे गायब हो रहे हैं, और नेताओं को मुँह से माँ और बाप, पत्नी और पति की बातों हो रही हैं जैसे कि इन लोगों को सांसद और विधायक यही करने के लिए बनाया गया था कि हमें पता चले राहुल या मोदी का बाप कौन है। आप सोचिए कि इन बातों से किसको क्या मिल जाएगा? बस यही होगा कि जो जिस खेमे के हैं, वो खुश हो लेंगे, और बाउंड्री लाइन पर बैठे लोग खिन्न होकर किसी एक पार्टी को वोट दे देंगे।

इन सब बातों से सामाजिक विकास की गति धीमी होती है। चूँकि सरकार है तो बजट तो बनेगा ही। सड़कें तो बनेंगी ही, विकास के काम तो होते ही रहेंगे। लेकिन इसकी गति कैसी होगी, उसमें पैसा कितना लगेगा, वो किस गुणवत्ता का होगा, इसका निर्धारण एक ज़िम्मेदार विपक्ष कर सकता है। अगर विपक्ष इस बात पर फोकस्ड है कि किसने अपनी पत्नी से बात नहीं की, किसका बाप किसको छोड़कर चला गया, तो फिर चुनाव महज़ औपचारिक कार्यक्रम बनकर सिमट जाएँगे, जो होंगे ज़रूर पर उसका परिणाम कुछ भी नहीं होगा।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी