8.5% कमीशन आढ़तिया और राज्य सरकार का…ऐसे लूटा जाता है किसान की उपज को, फिर भी घड़ियाली आँसू बहा रहा विपक्ष

1 दिसंबर से सातवीं किस्त (प्रतीकात्मक तस्वीर)

संसद में पारित हुए किसानों से सम्बंधित 3 विधेयकों ने कोरोना काल में घरों में सिमटी-सिकुड़ी राजनीति को सड़कों पर ला खड़ा किया है।

कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक, कृषक (सशक्तिकरण और सरंक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं हेतु अनुबंध विधेयक और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक नामक तीनों विधेयकों का जन्म 5 जून, 2020 को अधिनियमों के रूप में हुआ था। तब से लेकर पिछले सप्ताह संसद में लाए जाने तक किसी भी राजनीतिक दल, किसान संगठन अथवा राज्य सरकार द्वारा कहीं कोई विरोध नहीं जताया गया।

तमाम विपक्षी दलों की सरकारों से लेकर पंजाब की कॉन्ग्रेस सरकार और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल अकाली दल (बादल) और जननायक जनता पार्टी जैसे सहयोगी दलों तक; सब-के-सब इन अध्यादेशों/विधेयकों के पक्ष में थे।

निहित स्वार्थ-प्रेरित आढ़तिया लॉबी द्वारा भरमाए और भड़काए गए किसानों के सड़क पर उतर आने के बाद अब अलग-अलग राजनेताओं और राजनीतिक दलों में इन विधेयकों का विरोध करते हुए किसान हितैषी दिखने की होड़ मच गई है।

अकेले पंजाब में 28000 आढ़तिया हैं। उनकी पहुँच और प्रभाव न सिर्फ़ किसानों तक सीमित है, बल्कि राजनीतिक दलों में भी उनकी अच्छी पैठ है। यह आढ़तिया लॉबी द्वारा प्रायोजित और ‘वोट बैंक की राजनीति’ से प्रेरित विरोध है।

इसीलिए महाराष्ट्र के दो बड़े किसान नेताओं राजू शेट्टी (स्वाभिमान पक्ष) और अनिल घनावत (शेतकारी संगठना) ने इन विधेयकों का स्वागत किया है। यहाँ तक कि दो बार लोकसभा सदस्य रहे राजू शेट्टी ने तो इन विधेयकों को ‘किसानों की वित्तीय स्वतंत्रता के लिए उठाया गया पहला कदम’ करार दिया है।

वास्तव में, इन तीनों विधेयकों की सही और पूरी जानकारी किसानों तक पहुँच नहीं पाई है।

यह सरकार की विफलता ही मानी जाएगी कि किसानों की कल्याण-कामना से प्रेरित होकर इतने महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले बदलाव करते हुए भी केंद्र सरकार ‘वास्तविक लाभार्थियों’ को सही समय पर जरूरी जानकारी देकर जागरूकता पैदा नहीं कर पाई। यदि केंद्र सरकार ने ऐसा किया होता तो आज विपक्षी दलों को अन्नदाता के भविष्य को दाँव पर लगाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का अवसर न मिलता।

ग्रामीण समाज ख़ासकर किसानों की अशिक्षा और पराश्रितता का लाभ उठाकर यह आग भड़काई गई है। देर-सबेर जब किसानों को वास्तविकता का ज्ञान होगा तो इन दलों का ‘वोट बैंक का गुणा-गणित’ गड़बड़ा जाएगा। वास्तव में, ये विधेयक कृषि-उपज की विक्रय-व्यवस्था को व्यापारियों/आढ़तियों से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। साथ ही, बाजार के उतार-चढ़ावों से भी किसानों को सुरक्षा-कवच प्रदान करेंगे। 

इन विधेयकों में सबसे ज्यादा और तीखा विरोध कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक को लेकर किया जा रहा है। इस विधेयक के सम्बन्ध में सबसे बड़ी अफ़वाह यह फैलाई जा रही है कि यह किसान की उपज के लिए सरकार द्वारा साल-दर-साल घोषित होने वाली ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था’ की समाप्ति करने वाला है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक के माध्यम से केंद्र सरकार किसानों को बिचौलियों के चंगुल से मुक्त कराना चाहती है।

उल्लेखनीय है कि कृषि उपज विपणन समिति (सरकार द्वारा अभी तक कृषि उत्पादों के क्रय-विक्रय हेतु अधिकृत मंडी) के नीति-नियंता आढ़तियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि जगहों पर सामान्य बोलचाल में दलाल कहा जाता है। ये आढ़तिया कमीशन-एजेंट होते हैं।

मंडी में अपनी मोनोपॉली का फायदा उठाकर न सिर्फ़ कृषि उपज की बिक्री पर मोटा कमीशन खाते हैं, बल्कि माप-तोल में भी कटौती, घटतौली आदि गड़बड़ घोटाला करते हैं। किसानों को मोटी ब्याज पर पैसा देते हैं। किसान की बाध्यता होती है कि वह अपनी उपज को उसी आढ़तिया के पास लेकर जाएगा, जिससे ब्याज पर पैसा ले रखा है। दरअसल, यह विधेयक इन बिचौलियों के शिकंजे से अन्नदाता की मुक्ति का मार्ग है।  

यह विधेयक किसानों को उनकी खून-पसीने से कमाई गई फसल का न्यायसंगत और प्रतिस्पर्धी मूल्य दिलाएगा। इससे मंडियों में व्याप्त लाइसेंस-परमिट राज समाप्त होगा और वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार से भी किसान को निजात मिलेगी।

किसान और छोटे-मोटे व्यापारी अपनी उपज को कहीं भी, किसी को भी अच्छे दाम पर बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। बाहर या खुले बाजार में अच्छा मूल्य न मिलने की स्थिति में वे अपनी उपज को पहले की तरह कृषि उपज विपणन समिति में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे।

इस विधेयक में पुराने विक्रय प्लेटफ़ॉर्म की समाप्ति की बात न करके एक कमीशनमुक्त और सर्वसुलभ प्लेटफ़ॉर्म मुहैया कराने का प्रस्ताव है। यह ‘एक देश,एक बाज़ार’ की अबाध व्यवस्था है। इस वैकल्पिक व्यवस्था के अस्तित्व में आने से पुरानी शोषणकारी व्यवस्था में भी सुधार की शुरुआत हो जाएगी। 

कुछ राज्य सरकारें परेशान होकर इन विधेयकों का विरोध कर रही हैं, क्योंकि इससे उन्हें राजस्व की हानि होगी। दरअसल, किसान जब अपनी उपज बेचने राज्य सरकार द्वारा संचालित/अधिकृत  कृषि उपज विपणन समिति (सरकारी मंडी) में जाता है तो उसकी उपज की बिक्री में से न सिर्फ आढ़तिया कमीशन खाता है, बल्कि राज्य सरकारें भी कमीशन खाती है। यह उसकी कमाई का बड़ा जरिया है।

उदाहरणस्वरूप, पंजाब जैसे कृषक प्रधान राज्य में किसान से उसके उपज-मूल्य का लगभग 8.5 प्रतिशत कमीशन वसूला जाता है, जिसमें से 3 प्रतिशत बाजार शुल्क, 3 प्रतिशत ग्रामीण विकास शुल्क और 2.5 प्रतिशत ‘आढ़तिया विकास शुल्क’ होता है।

नई व्यवस्था लागू होने से इस 8.5 प्रतिशत कमीशन/शुल्क की सीधी बचत किसान को होगी, जोकि काफी बड़ी रकम होगी। इसके अलावा उपज की मंडी तक ढुलाई में होने वाले खर्च की भी बचत होगी।

सोचने और पूछने की बात यह है कि जब राज्य सरकारों को होने वाली तथाकथित राजस्व की हानि अंततः उत्पादक किसान के हाथ में जा रही है; फिर किसानों की हमदर्द और हितैषी होने का स्वांग भरने वाली सरकारों द्वारा इस विधेयक का विरोध क्यों किया जा रहा है?

विपक्षी दलों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम से किसान का आशंकित होना अस्वाभाविक या अकारण नहीं है। आखिर उन्हें पिछले दशकों में अनेक बार छला गया है। इसीलिए आज उनकी ऐसी दुर्दशा है। इसलिए सरकार को आगे आकर 3-4 बिंदुओं पर पूरी स्पष्टता के साथ युद्ध स्तर पर अपनी बात किसानों के बीच रखनी चाहिए।

एक तो, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद व्यवस्था के यथावत जारी रखने के बारे में आश्वस्त करना अनिवार्य है। दूसरे, उन्हें यह भी समझाने की आवश्यकता है कि यह विधेयक पुरानी विक्रय व्यवस्था की समाप्ति न करके उसके बरक्स एक और अधिक सुविधाजनक, किसान हितैषी और बंधनमुक्त व्यवस्था का विकल्प प्रदान करेगा।

उन्हें इन दोनों व्यवस्थाओं में से जब जिसे चाहें, अपनी सुविधानुसार चुनने की स्वतंत्रता होगी। इसके अलावा किसानों की एक बड़ी चिंता किसी विवाद की स्थिति में न्यायालय जाने के विकल्प का प्रावधान न होने को लेकर भी है।

कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधाकरण) विधेयक में किसान और व्यापारी के पारस्परिक विवाद की स्थिति में एक ‘समझौता मंडल’ के माध्यम से विवाद के निपटान का प्रावधान है। इस प्रकार के समझौता मंडल की शक्ति, वैधता और निष्पक्षता न्यायालय जैसी नहीं हो सकती। अतः समझौता मंडल के निर्णय से असंतुष्ट होने की स्थिति में न्यायालय जाने का विकल्प भी खुला रखना चाहिए।

निश्चय ही, सरकार ने समझौता मंडल का प्रावधान इस विधेयक में इसलिए किया है, क्योंकि न्यायालय की प्रक्रिया बहुत लंबी, जटिल और खर्चीली होती है। किसान का मुकदमेबाजी में फँसना उसके लिए आत्मघाती हो सकता है। 

जो गाँव से और किसानी पृष्ठभूमि से हैं, वे तो जानते ही हैं, उनके अलावा अन्य सचेत और पढ़े-लिखे नागरिक जानते हैं कि भारत में अनेक बार किसानों को फसल विशेष का ज्यादा उत्पादन होने की स्थिति में उसे लगभग मुफ्त में (दो-चार रुपए किलो तक) बेचना पड़ता है या कभी-कभी तो फेंकना तक पड़ता है। आलू, प्याज आदि की फसलों के साथ तो अक्सर ऐसा होता है। इसकी बड़ी वजह उत्पादन और खपत का संतुलन न होना है।

आपूर्ति और माँग का असंतुलन इस प्रकार की पीड़ादायक स्थितियाँ पैदा करता है, जब बच्चे की तरह पाल-पोसकर तैयार की गई फसल किसान को खेत में ही जलानी, गलानी या फेंकनी पड़ती है। किसान के लिए ख़ासकर छोटे किसान के लिए उत्पादन और खपत, आपूर्ति और माँग का आकलन और अनुमान मुश्किल काम है। पेशेवर लोगों के आगे आने से ऐसा करना संभव हो सकेगा।

कृषक (सशक्तिकरण और सरंक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं हेतु अनुबंध विधेयक इसी चिंता से प्रेरित है। इसके माध्यम से किसान बाज़ार के गुणा-गणित से पैदा होने वाली असुरक्षा और अस्थिरता से मुक्ति पा सकेगा। फसल विशेष के ज्यादा उत्पादन की स्थिति में भी अपनी उपज को नगण्य मूल्य पर बेचने या फेंकने की विवशता से वह बच सकेगा।

यह विधेयक किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव की असुरक्षा के प्रति कवच प्रदान करेगा। इस विधेयक में प्रावधान है कि व्यापारी, निर्यातक अथवा खाद्य-प्रसंस्करणकर्ता फसल की बुआई के समय ही फसल का मूल्य-निर्धारण करके किसान के साथ अनुबंध कर सकेगा।

‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ कृषि क्षेत्र की ओर युवा उद्यमियों और निजी निवेश को भी आकर्षित करेगी। अनुबंध के समय किसान को जुताई, बुआई, सिंचाई, मढ़ाई, नई तकनीक और उन्नत बीज आदि जरूरतों के लिए अग्रिम राशि भी मिल सकेगी।

इससे न सिर्फ वह आढ़तियों, साहूकारों आदि से मोटी सूद पर कर्ज लेने से बच सकेगा बल्कि बाज़ार पर उसकी प्रत्यक्ष निर्भरता भी कम हो जाएगी। हालाँकि, इस तरह का अनुबंध न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न करने का प्रावधान भी किया जाना चाहिए। ऐसा प्रावधान करके ही किसान के हितों का समुचित संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकेगा और किसान ‘मत्स्य-न्याय’ का शिकार नहीं होगा।  

इन विधेयकों को किसान-विरोधी बताने वाले लोग सबसे बड़े किसान विरोधी और बिचौलियों के हमदर्द हैं। वे किसानों के जीवन में खुशहाली और सम्पदा लाने वाले इन विधेयकों को किसानों के लिए ‘आपदा’ बता रहे हैं। उनका दावा है कि इससे पूरा कृषि उद्योग निजीकरण का शिकार हो जाएगा। विपक्ष के ये दावे भावनात्मक और भ्रमात्मक हैं, और सत्य से कोसों दूर हैं।

उल्लेखनीय है कि किसानों और कृषि क्षेत्र की चिंताजनक दशा को सुधारने के लिए सन् 2006 में स्वामीनाथन समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में भी ऐसे प्रावधानों का उल्लेख है। उस समय और उसके बाद सन् 2014 तक केंद्र में कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की गठबंधन सरकार थी। पर उसे न तो तब किसानों की सुधि आई, न स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करना उसकी प्राथमिकता थी।

किसानों की कर्जमाफी जैसी लोक-लुभावन और वोट खरीदू योजना तो उसने लागू की, पर हर साल आत्महत्या करने वाले किसानों की दशा सुधारने हेतु स्थायी बंदोबस्त करने की दिशा में कोई पहलकदमी नहीं की। परिणामस्वरूप, किसान और कृषि-व्यवसाय क्रमशः उजड़ते चले गए।

वर्तमान सरकार द्वारा पारित किए गए तीनों विधेयक किसानों की दशा सुधारने की दिशा में उठाए गए दूरगामी और सुचिंतित कदम हैं। गौरतलब यह भी है कि कॉन्ग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र में भी इस प्रकार के विधेयक बनाने की बात की गई थी।

सन् 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने भारतीय अर्थ-व्यवस्था का उदारीकरण किया था। उसका लाभ समाज के अधिकांश तबकों को न्यूनाधिक हुआ था और हो रहा है। ये तीन विधेयक किसान और कृषि-व्यवस्था की पहुँच उदारीकृत और मुक्त अर्थव्यवस्था तक सुनिश्चित करके उसे भी उसके फल चखने का अवसर प्रदान करेंगे।

हालाँकि, किसी भी कानून का घोषित उद्देश्य कितना भी पवित्र और लोकमंगलकारी क्यों न हो, उसका वास्तविक परीक्षण उसके जमीनी कार्यान्वयन के समय ही होता है।

वर्षों से पढ़ा और सुना है कि भारत के किसान और कृषि-व्यवस्था की बदहाली की सबसे बड़ी वजह बिचौलिए हैं। वे किसान की उपज का सही और समुचित मूल्य उस तक नहीं पहुँचने देते। कृषि उपज के वास्तविक मूल्य का बड़ा हिस्सा वे हड़प जाते हैं। इसलिए समय-समय पर इन बिचौलियों को रास्ते से हटाकर किसान को बाज़ार या उपभोक्ता से जोड़ने की माँग उठती रही है।

इन विधेयकों के माध्यम से कृषि-व्यवस्था की सबसे आधारभूत किन्तु सबसे कमजोर कड़ी किसान को मजबूत बनाने और उसकी खून-पसीने की कमाई बिचौलियों के जबड़े से निकाल कर उसकी मुट्ठी तक पहुँचाने की चिंता की गई है। अब तक बनिया/व्यापारियों की पार्टी मानी जाने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा किसानों के हित में उठाया गया यह कदम निश्चय ही साहसिक और सराहनीय है।

प्रो. रसाल सिंह: प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता, छात्र कल्याण का भी दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे। दो कार्यावधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं। संपर्क-8800886847