गीता फाड़ने से लेकर ‘Pak के लिए सब कुछ कुर्बान’ करने तक, AMU में हिन्दू घृणा पुरानी: अंग्रेजों के आशीर्वाद से स्थापना, जिन्ना की फोटो

1947 में जब पाकिस्तान बन गया, उसके बाद के सालों में भी AMU में भारत एवं हिन्दू-विरोधी गतिविधियाँ उजागर होती रहीं

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) एक बार फिर से अपने हिन्दू विरोधी रवैये को लेकर चर्चा में है। आमतौर पर यह विश्वविद्यालय देश-दुनिया के लिए लाभकारी शोध की अपेक्षा अपनी सांप्रदायिक और रूढ़िवादी मानसिकता के लिए बदनाम रहता है। अभी वहाँ के एक प्रोफेसर ने हिन्दुओं के देवी-देवताओं का अपमान किया है। हालाँकि, इस तरह की चर्चाओं को पिछले कई सालों से दलित विमर्श का हिस्सा बनाने की कोशिशें होती रही है, लेकिन उसे कभी मान्यता नहीं मिली।

वैसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा इस प्रकार की हिन्दू-विरोधी मिथ्याओं को बढ़ावा देना कोई नया नहीं है। वास्तव में, यह उसके उसी कट्टरपंथी चरित्र का स्पष्टीकरण है, जो कि 1947 से पहले हुआ करता था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना सैयद अहमद खान के ‘द्वि-राष्ट्रवाद’ सिद्धांत के आधार पर की गयी थी। शुरुआत 1869 में हुई, जब वे इंग्लैंड के दौरे पर गए थे। लगभग एक साल बाद, 1870 में भारत लौटने के बाद उन्होंने भारतीय मुस्लिमों के बीच अंग्रेजी शिक्षा एवं पश्चिमी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए जोरदार अभियान चलाया।

इस दौरान उन्हें ब्रिटिश सरकार का भी भरपूर सहयोग मिला। प्रतिष्ठित इतिहासकार, आर.सी. मजूमदार उनके इस प्रयासों को उजागर करते हुए लिखते हैं, “सैयद अहमद के प्रयास सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने मुस्लिम राजनीति को एक नया मोड़ दिया जो हिंदू विरोधी हो गई।” सैयद अहमद खान का कर्नल बैक नाम का एक ब्रिटिश सहयोगी था, जो कि कॉलेज की मुखपत्रिका के माध्यम से मुस्लिमों में हिन्दुओं के खिलाफ जहर भरता रहता था।

उसी ने इस बात को मुसलमानों के अन्दर भर दिया था कि भारत के लिए संसदीय व्यवस्था अनुपयुक्त है और इसके स्वीकृत होने की स्थिति में बहुसंख्यक हिन्दुओं का उसी तरह राज होगा जो किसी मुस्लिम सम्राट का भी नहीं था। सैयद के निधन के बाद यह अलीगढ़ योजना जारी रही और आगा खां के नेतृत्व में 1 अक्तूबर 1906 को 36 मुसलमानों का एक दल वायसराय मिन्टो से मिला। इस मुलाकात का मुख्य मकसद मुस्लिमों को हिन्दुओं से अलग ‘सेपरेट इलेक्टोरेट’ और एक अलग मुस्लिम विश्वविद्यालय माँग करना था।

मिन्टो ने उनकी सभी माँगों पर सहमती जताते हुए कहा, “मैं पूरी तरह से आपसे सहमत हूँ। मैं आपको यह कह सकता हूँ कि किसी भी प्रशासनिक परिवर्तन में मुस्लिम समुदाय अपने राजनीतिक अधिकारों एवं हितों के लिए निश्चिंत रहें।” ब्रिटिश सरकार आश्वासन के बाद, 1920 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया और इसी के साथ मुस्लिमों के लिए एक अलग देश की माँग जोर पकड़ती चली गई। पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रकाशित ‘जिन्ना पेपर्स’ की प्रस्तावना में उल्लेख है, “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की तरफ से मोहम्मद अली जिन्ना को दिल से एवं अटूट समर्थन दिया गया था।”

जैसे 2 अक्टूबर, 1945 को विश्वविद्यालय के कुछ मुस्लिम छात्रों ने एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि पाकिस्तान के गठन के लिए वे कुछ भी कुर्बान करने के लिए तैयार है। इसी महीने की 19 अक्टूबर को जिन्ना को अलीगढ़ के रहने वाले मोहम्मद शाहजहाँ का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा कि इस विश्वविद्यालय के छात्र भारत के मुस्लिमों के ‘हथियार’ है। दरअसल, ऐसे एक नहीं बल्कि हजारों उदाहरण है जो कि इस तथ्य की पुष्टि करते है कि भारत के सांप्रदायिक विभाजन में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की एक बहुत बड़ी भूमिका थी। 

1947 में जब पाकिस्तान बन गया, उसके बाद के सालों में भी वहाँ से भारत एवं हिन्दू-विरोधी गतिविधियाँ उजागर होती रहीं। साल 1956 में एक खबर प्रकाशित हुई कि विश्वविद्यालय के छात्रों ने श्रीमद्भागवतगीता की प्रतियाँ फाड़कर जला दी। कुछ सालों बाद, 12 मार्च 1959 को केंद्रीय शिक्षा मंत्री, के. एल. माली ने बताया कि विश्वविद्यालय को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से 22,14,268 रुपए की सहायता मिली है। जबकि उस दौर में फोर्ड फाउंडेशन अपनी भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए हमेशा सुर्ख़ियों में बना रहता था।

जब 80 के दशक में विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की बहस चल रही थी, तो वहाँ के एक प्रोफ़ेसर ने एक साक्षात्कार में कोई एक वक्तव्य दे दिया। जब साक्षात्कार छापा तो मुसलमान छात्रों ने इसे अपना अपमान समझा और एक आंदोलन छेड़ दिया। धीरे-धीरे यह आन्दोलन सांप्रदायिक दंगों में बदल गया। हालात इतने तनावपूर्ण थे कि छात्रावास खाली करवाने पड़े और कुछ महीनों के लिए विश्वविद्यालय को भी बंद करना पड़ गया था।

इसी तरह, 90 के दशक में भी हर आए दिन सांप्रदायिक तनावों के चलते यूनिवर्सिटी में हंगामा होता रहता और कई बार स्थितियां सँभालने के लिए पुलिस को भी बुलाना पड़ता था। एक लम्बे समय तक विश्वविद्यालय में मजहबी रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते महिलाओं को पुस्तकालय में पढ़ने की अनुमति नहीं थी। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में 11 नवम्बर, 2014 को प्रकाशित एक खबर के अनुसार, विश्वविद्यालय के वूमेन कॉलेज की छात्राओं ने माँग उठाई कि उन्हें मौलाना आजाद लाइब्रेरी में पढ़ने दिया जाए।

उनकी इस माँग को उप-कुलपति, जमीरुद्दीन शाह ने यह कहकर ठुकरा दिया कि इससे पुस्तकालय में लड़कों की संख्या चार गुना बढ़ जाएगी। अंततः प्रशासनिक इस मामलें में इलाहबाद उच्चन्यायालय के हस्तक्षेप के बाद छात्राओं को विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की सदस्यता दी गई। फिर 2018 में एक और प्रत्यक्ष प्रमाण मिला कि विश्वविद्यालय का जिन्ना के प्रति लगाव एकदम बना हुआ है। अलीगढ़ के लोकसभा सांसद सतीश गौतम ने उप-कुलपति को पत्र लिखकर जवाब माँगा कि आज भी विश्वविद्यालय की दीवार पर जिन्ना की तस्वीर को लगायी गई है?

मामला तब देश भर में चर्चा का मुद्दा बना लेकिन पूरा विश्वविद्यालय प्रशासन जिन्ना की वकालत करने में ही लगा रहा। साल 2019 में भी नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में विश्वविद्यालय के छात्रों ने भारत-विरोधी एवं सांप्रदायिक उन्मांद फैलाने के उद्देश्य से कई दिनों तक उत्पात मचाया था। “हिंदुत्व और सावरकर की कब्र खुदेगी”, जैसे भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले नारे लगाए गए थे। आज अगर इतिहास में पीछे झाँक कर देखे तो अलीगढ़ योजना को एक शताब्दी से भी अधिक का समय हो चुका है लेकिन इस दौरान वहाँ परिवर्तन देखने को नहीं मिला।

‘द्वि-राष्ट्रवाद’ सिद्धांत, सांप्रदायिक कट्टरपंथ एवं रुढ़िवादी सोच आज भी वहां हावी है। यही एक कारण है कि तमाम सुविधाओं के बावजूद भी यह विश्वविद्यालय अपने मूल उद्देश्य से भटका हुआ है और इसलिए इसका वैश्विक रैंकिंग में 1000 से भी ऊपर स्थान रहता है।

Devesh Khandelwal: Devesh Khandelwal is an alumnus of Indian Institute of Mass Communication. He has worked with various think-tanks such as Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, Research & Development Foundation for Integral Humanism and Jammu-Kashmir Study Centre.