…जब 58 लोग कोयंबटूर ब्लास्ट में मरे थे, तब कॉन्ग्रेस व सहयोगी दलों ने आतंकियों को जेल में करवाई थी मालिश

58 लोगों की मौत के बावजूद इस्लामी कट्टरपंथियों और बम धमाके के आरोपियों संग राजनीति!

राहुल गाँधी द्वारा मसूद अजहर को “मसूद अजहर जी” कहने के बाद ट्विटर पर “#RahulLovesTerrorists” ट्रेंड किया था। यह कॉन्ग्रेस की प्रवृत्तियों की ओर इशारा भले रहा हो, लेकिन, कॉन्ग्रेस की वास्तविक आतंकवाद समर्थक नीतियाँ मात्र ‘जी’ के उल्लेख से कहीं अधिक खतरनाक और गंभीर रही हैं। सच तो यह है कि सैम पित्रोदा का पुलवामा हमले को छोटी-मोटी घटना बताते हुए आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले को गलत बताना भी कॉन्ग्रेस पार्टी और द्रमुक जैसे उसके सहयोगी दलों के नेताओं के बयानों और दूसरे खतरनाक कामों की तुलना में बहुत छोटी सी बात है।
14 फरवरी 1998 को कोयंबटूर में विनाशकारी बम धमाके हुए थे, जिसमें 58 लोग मारे गए थे। इस हमले में लालकृष्ण आडवाणी की जान चमत्कारिक तरीके से बची थी क्योंकि उनका हवाई जहाज आकस्मिक तरीके से 90 मिनट से अधिक की देरी से चला था। तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने उस नाजुक मौके पर भी हास्यास्पद और विचित्र आरोप लगाते हुए विस्फोटों के लिए RSS को जिम्मेदार ठहराया था।
इसके बाद, आरएसएस ने सीताराम केसरी पर मुकदमा दायर किया था। ऐसा होने पर खबरें आई थीं कि केसरी ने कहा कि उन्होंने वैसा कोई आरोप लगाया ही नहीं था। फिर, उन्होंने आरोप लगाने से इनकार करने का खंडन किया और अपनी बात पर अड़े रहे। कोयम्बटूर की उस घातक घटना में आडवाणी की जान भले बच गई थी लेकिन कई भाजपा कार्यकर्ताओं समेत 58 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बावजूद कॉन्ग्रेस नेताओं में मानवीय संवेदना नहीं जागी और उन्होंने इस तरह का लापरवाह, असंवेदनशील और अमानवीय बयान दिया।
इतना ही नहीं, पार्टी ने केसरी के इस आरोप का पूरी तरह से समर्थन किया। पार्टी की तमिलनाडु इकाई के अध्यक्ष ने कहा: “अगर बम भाजपा के अलावा किसी और ने लगाया होता, तो ऐसा करने वाले ने निश्चित रूप से आडवाणी को मार दिया होता। क्योंकि यह बम खुद भाजपा के लोगों ने लगाया था, इसलिए उन्होंने जानबूझकर आडवाणी की बैठकों में देरी की।”
बात इतनी ही नहीं है। इन बम धमाकों को अंजाम देने वाले इस्लामिक कट्टरपंथी समूह अल-उम्मा और तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएनएमएमके) थे। इन विस्फोटों के बाद 2004 और 2006 आदि में कॉन्ग्रेस ने वास्तव में तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएनएमएमके) के साथ गठबंधन किया। इसके पहले टीएनएमएमके इसी नाम से चुनाव लड़ा करती थी। फरवरी 2009 में इसने एक अलग राजनैतिक इकाई का गठन करके उसका नाम मणिथनेया मक्कल काची (एमएमके) रखा।
कोयंबटूर में 1998 में हुए धमाके वहाँ की द्रमुक सरकार की आतंकवाद समर्थक नीतियों के कारण हुए थे।
उन धमाकों से पहले नवंबर 1997 में वहाँ झड़पें हुई थीं। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पहले सेल्वाराज नामक पुलिस कॉन्स्टेबल को मार डाला था। इसके बाद भड़के दंगों में 18 मुस्लिम मारे गए। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पत्रिका फ्रंटलाइन ने भी लिखा था कि :
“सेल्वाराज की हत्या ही वह एक घटना थी, जिसके कारण कोयंबटूर का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ था। अल-उम्मा कार्यकर्ताओं ने 29 नवंबर की रात को सेल्वाराज पर तब हमला किया, जब वह कोट्टाइमेडु के एक मुस्लिम-बहुल इलाके में यातायात व्यवस्था संभाल रहे थे। उसी दिन, कोट्टाइमेडु के पास बाज़ार थाने के सब-इंस्पेक्टर एम. चंद्रशेखरन ने अल उम्मा के पदाधिकारी जहाँगीर और दो अन्य मुस्लिम युवाओं को बिना ड्राइविंग लाइसेंस मोटरसाइकिल पर सवारी करने के आरोप में हिरासत में लिया था। अल उम्मा के तत्कालीन राज्य सचिव मोहम्मद अंसारी ने थाने में जाकर उनकी रिहाई की माँग की थी। इस दौरान अंसारी और सब-इंस्पेक्टर के बीच बात बढ़ गई और अंसारी ने “कोयंबटूर को दो टुकड़ों में तोड़ कर रख देने” की धमकी दी थी। इस घटना के लगभग एक घंटे बाद, चार मुस्लिम युवकों ने 31-वर्षीय सेल्वाराज को चाकू मार दिया जबकि पहले की घटना से उसका कोई संबंध नहीं था। अल उम्मा के लोग किसी भी पुलिसकर्मी को निशाना बनाना चाहते थे क्योंकि उनके साथियों को पुलिस ने हिरासत में लिया था और अंसारी को पुलिस स्टेशन में “अपमानित” किया गया था। विडंबना यह है कि सेल्वाराज ने घटना के कुछ ही देर पहले दूसरे ट्रैफिक काॉन्स्टेबल के स्थान पर ड्यूटी शुरू की थी।
सेल्वाराज की मृत्यु से पुलिस बल उत्तेजित हो गया। उन्होंने अगले दिन हड़ताल कर दी और हमलावरों की गिरफ्तारी की माँग की। उनका आरोप था कि द्रविड़ मुनेत्र कळगम सरकार ने उन्हें अल उम्मा के खिलाफ कार्रवाई करने से रोक रखा था। उनके गुस्से के पीछे एक तथ्य यह भी था कि सेल्वा की हत्या से पहले कोयंबटूर और मदुरै में बीते 18 महीनों में मुस्लिम चरमपंथी चार पुलिसकर्मियों और जेल अधिकारियों की हत्या या उन पर चाकू से हमले कर चुके थे। पुलिसकर्मियों के परिवारों ने भी कानून का पालन कराने वालों की सुरक्षा की माँग की थी। स्थिति इतनी गंभीर थी कि शहर में सामान्य स्थिति की बहाली के लिए सेना और रैपिड एक्शन फोर्स को बुलाना पड़ा था। (फ्रंटलाइन, 26 दिसंबर, 1997)। ”
कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी डीएमके स्टालिन के साथ
साफ है कि द्रमुक ने पुलिस के काम में दखल दिया और उसे अल-उम्मा के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने से रोका था। 14 फरवरी 1998 को हुए विस्फोटों के पहले द्रमुक सरकार ने इस संगठन पर प्रतिबंध भी नहीं लगाया था। विस्फोटों के बाद ही अल-उम्मा पर प्रतिबंध लगाया गया था। कोयंबटूर में नवंबर 1997 में हुए संघर्ष और बाद में फरवरी 1998 में विस्फोटों की जाँच के लिए गोकुलकृष्णन आयोग नियुक्त किया गया था। फ्रंटलाइन पत्रिका ने भी जून 2000 के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया कि गोकुलकृष्णन आयोग ने विस्फोटों के लिए सुरक्षा व्यवस्था में चूक को जिम्मेदार ठहराया था।
रिपोर्ट में पुलिस की इस बात के लिए गंभीर आलोचना की गई थी कि वह आतंकवादी समूहों द्वारा सरवन मेटल मार्ट के निकट एक खाली पड़ी पुरानी इमारत में बम जमा करने और संदिग्ध गतिविधियों की सूचना होने के बावजूद विस्फोटों से पहले तिरुमाला स्ट्रीट पर बाबूलाल कॉम्प्लेक्स नामक भवन को नहीं खोज सकी थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर उन्होंने आस-पास के इलाके में तलाशी और जाँच अभियान चलाया होता तो उसे अल-उम्मा के लोगों की साजिश का पता चल जाता और वे 14 फरवरी से पहले ही आतंकवादियों को गिरफ्तार और बमों को जब्त कर इस साजिश को नाकाम कर सकते थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि 15 फरवरी की सुबह से पहले बहुत तेजी से की गई कार्रवाई में पुलिस ने कोयम्बटूर में आतंक फैलाने की साजिश का पर्दाफाश करते हुए अल-उम्मा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और विस्फोटकों तथा घातक हथियारों की जब्ती की थी। पुलिस की इस तूफानी कार्रवाई में सब-इंस्पेक्टर एम. चंद्रशेखरन ने जान की बाजी लगाते हुए न केवल साथी पुलिस कर्मियों और जनता की जान बचाई थी बल्कि उसने विशेष जाँच दल की आँखें भी खोल दीं, जिसने बाद में कार्रवाई करते हुए न केवल आतंकवादियों को गिरफ्तार किया बल्कि छिपाए गए बमों को भी खोज निकाला था।
पुलिस इस मामले में निश्चित रूप से कार्रवाई करना चाहती थी लेकिन विस्फोटों से पहले डीएमके सरकार ने उसके हाथ बाँध रखे थे। फ्रंटलाइन ने भी कोयंबटूर विस्फोट कांड रोकने में असफल रहने के द्रमुक सरकार को दोषी ठहराया था। उसने लिखा: “धमाकों के बाद तमिलनाडु सरकार द्वारा शुरू की कार्रवाई बेशक प्रभावी थी, लेकिन इतने भर से सरकार इस आलोचना से नहीं बच सकती थी कि वह खुफिया रिपोर्टों पर कार्रवाई करने और घटना के पहले ही विस्फोटकों की बरामदगी करके आतंकवादी हमला रोकने में विफल रही थी। यह कहना उचित होगा कि द्रमुक सरकार बड़ी संख्या में निर्दोष मुसलमानों और उन थोड़े से कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के बीच अंतर नहीं कर पाई, जिन्होंने सामान्य मुसलमानों में व्याप्त असुरक्षा की भावनाओं का फायदा उठाया। सरकार को मुस्लिम कट्टरपंथियों को अलग-थलग करने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की दिशा में जल्दी से जल्दी कदम उठाना चाहिए था।”
इन विस्फोटों के तुरंत बाद इंडिया टुडे में आईआर जगदीशन और केएम थॉमस का आलेख प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने कहा कि,
“विपक्ष ने सरकार पर हिंसा और विस्फोटों का पूर्वानुमान करने और उसके लिए निवारक उपाय करने में असफल रहने का आरोप लगाया है… देर से ही सही आलोचनाओं से चिढ़ी सरकार ने इन विस्फोटों के पीछे के संदिग्ध लोगों के खिलाफ कार्रवाई की दिशा में कुछ निर्णायक कदम उठाए। दो मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों, अल उम्मा और जेहाद कमिटी पर प्रतिबंध लगा दिया गया और अल उम्मा के अध्यक्ष एसए बाशा समेत इन संगठनों के कुछ नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था। इन संगठनों को मुख्यमंत्री करुणानिधि की कड़ी चेतावनी के बाद 15 फरवरी को कई चरमपंथी ठिकानों पर छापे मारे गए थे। छापों में गिरफ्तार किए गए आठ लोगों की पहचान बाद में अल उम्मा कार्यकर्ताओं के रूप में हुई। विस्फोटों के बाद हुई हिंसा पर भी सेना और अर्धसैनिक बलों की तैनाती से तेजी से काबू पा लिया गया था।
इसके बाद 16 फरवरी को की गई सघन गश्त के दौरान पुलिस को एक रिहायशी इलाके में खड़ी कार में 60 किलोग्राम विस्फोटक मिले। इन बमों को नष्ट करने में दो दिन लगे… राज्य में चरमपंथियों का खतरा काफी समय से मंडरा रहा था लेकिन राजनीतिक कारणों से राज्य सरकार इस बारे में निर्णायक कार्रवाई नहीं कर रही थी। कोयम्बटूर के पुलिस सूत्रों का कहना है कि सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों की गतिविधियों से अच्छी तरह वाकिफ थी, लेकिन उसने चुनावों के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय की प्रतिक्रिया के डर से उनके खिलाफ कार्रवाई में देरी की।
लगता है कि इन आरोपों ने राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन की चूलें हिला दीं और चुनावों में प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं को खत्म करने के लिए सरकार ने अभिनेता रजनीकांत की मदद ली। द्रमुक के नियंत्रण वाले सन टीवी पर बार-बार प्रसारित कार्यक्रम में सुपरस्टार ने भाजपा और जयललिता को समस्याएँ खड़ी करने का जिम्मेदार ठहराया। उनका कहना था कि विस्फोट के पीछे वे लोग हैं, जो केंद्र में अन्नाद्रमुक-भाजपा की सरकार बनवाना चाहते हैं। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने धमाकों के लिए सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार ठहराया है। हालाँकि, आरोप से इनकार करते हुए आरएसएस ने केसरी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया है।”
यहाँ कोयम्बटूर धमाकों से जुड़े प्रकरण में कब क्या हुआ से लेकर देरी से की गई पुलिस कार्रवाई, इस्लामी कट्टरपंथियों की गिरफ्तारी और भारी मात्रा में हथियारों और विस्फोटकों की बरामदगी को आसानी से देखा जा सकता है। साफ देखा जा सकता है कि जो कार्रवाई की गई, द्रमुक सरकार उसे आसानी से विस्फोटों से पहले कर सकती थी लेकिन अपनी मुस्लिम-समर्थक नीतियों के कारण ही उसने अल-उम्मा जैसे आतंकवादी संगठनों को सक्रिय रहने दिया।
हालाँकि, बाद में द्रमुक सरकार ने अल-उम्मा पर प्रतिबंध लगाया और धमाकों के बाद कार्रवाई की, लेकिन कॉन्ग्रेस ने विस्फोटों के बाद भी आतंकवादियों का बचाव करना जारी रखा और आरएसएस पर विस्फोट करने का आरोप लगाया।
अधिकांश राजनीतिक नेताओं और दलों ने विस्फोटों पर गहरा दुःख और क्षोभ व्यक्त किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन और प्रधानमंत्री आईके गुजराल ने इस घटना पर गहरा दुःख प्रकट किया था, फिर भी द्रमुक अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने धमाकों को चुनावी प्रक्रिया बाधित करने की विदेशी साजिश का हिस्सा करार दिया था। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता और माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी विस्फोट के पीछे विदेशी हाथ होने की आशंका जताई थी। गुप्ता ने आईएसआई को भारतीय चुनाव प्रक्रिया बाधित करने के प्रयास का दोषी ठहराया था, लेकिन कॉन्ग्रेस इस मामले में अकल्पनीय रूप से निचले स्तर पर गिरी रही
उल्लेखनीय है कि द्रमुक मई 1996 में तमिलनाडु में सत्ता में पहुँची थी। 1996 के अंत में, मुस्लिम आतंकियों ने कोयम्बटूर सेंट्रल जेल में वार्डन जी भूपालन को जेल के भीतर ही एक पेट्रोल बम हमले में मार डाला था। उसके पहले, अन्नाद्रमुक के शासनकाल में अगस्त 1993 में चेन्नई में आरएसएस कार्यालय पर बम विस्फोट हुआ था, जिसमें छह वरिष्ठ प्रचारकों सहित 14 लोगों की मौत हो गई थी। इस घटना के परिणामस्वरूप अन्नाद्रमुक सरकार ने कट्टरपंथी संगठनों, विशेष रूप से अल-उम्मा, के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। लेकिन द्रमुक के शासनकाल में अगस्त 1993 के आरएसएस कार्यालय विस्फोट कांड तथा अवैध हथियार रखने के आरोप में टाडा के तहत हिरासत में लिए गए 16 अल-उम्मा कार्यकर्ताओं को जनवरी 1997 में जमानत पर रिहा कर दिया गया क्योंकि राज्य सरकार के अभियोजक ने उनकी जमानत का विरोध नहीं किया था।
एक गुप्त सूचना के आधार पर तमिलनाडु पुलिस कमांडोज ने भारी मात्रा में विस्फोटक (जिलेटिन की छड़ें), डेटोनेटर, लोहे के पाइप, पीवीसी पाइप, अलार्म घड़ियाँ, केबल, तार, सोल्डरिंग उपकरण, आरी और बिजली के टेस्टर आदि बम बनाने में लगने वाली चीजों का जखीरा बरामद किया था। इसके बावजूद सरकार निश्चिंत बनी रही। कमांडोज ने बरामदगी-जब्ती की यह कार्रवाई 11 मार्च, 1997 को चेन्नई के एक उपनगर कोडुंगैयुर में एक घर से की थी। इस सिलसिले में पुलिस ने अल-उम्मा समूह से जुड़े दो कट्टरपंथियों को भी गिरफ्तार किया: मोहम्मद खान उर्फ सिराजुद्दीन (26 साल) और 22-वर्षीय शाहुल हमीद उर्फ अफ्तार। मोहम्मद खान अल-उम्मा के संस्थापकों में से एक एसए बाशा का भाई है।
कोयम्बटूर धमाकों से दो महीने पहले नवंबर-दिसंबर 1997 में पूरा तमिलनाडु सिलसिलेवार बम विस्फोटों से हिल गया था। बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर 6 दिसंबर, 1997 को चेरन एक्सप्रेस, पांडियन एक्सप्रेस और एलेप्पी एक्सप्रेस ट्रेनों में भी धमाके किए गए थे। पुलिस ने नौ लोगों की जान लेने वाले इन विस्फोटों के पीछे केरल के गुमनाम संगठन इस्लामिक डिफेंस फोर्स को जिम्मेदार ठहराया था।
10 जनवरी 1998 को चेन्नै के बीचोबीच अन्ना फ्लाईओवर के नीचे एक विस्फोट हुआ और इस्लामिक डिफेंस फोर्स ने इसकी जिम्मेदारी ली। इसके बाद 8 फरवरी को तंजावुर के पास सालियामंगलम के एक चावल मिल में शक्तिशाली विस्फोट हुआ। पुलिस ने मिल से विस्फोटकों और डेटोनेटर का एक बड़ा जखीरा जब्त किया। पुलिस को जाँच में पता चला कि मिल मालिक अब्दुल हमीद का बेटा अब्दुल कादर मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों से जुड़ा था। मिल के मालिक और उसके बेटे दोनों को गिरफ्तार किया गया था। विस्फोट में अब्दुल कादर गंभीर रूप से घायल हो गया था। उसके बाद चेन्नै में वेपरी और तांबरम में आतंकवादी संगठनों से जुड़े दो मुसलमानों से सैकड़ों डेटोनेटरों बरामद हुए। पुलिस ने इन दोनों से 84 जिलेटिन की छड़ें, 50 किलोग्राम सल्फर, 11.5 किलोग्राम अमोनियम नाइट्रेट, 100 डेटोनेटर, दो देशी पिस्तौल और नाइट्रिक तथा सल्फ्यूरिक एसिड की बोतलें जब्त कीं।
इन सभी विस्फोटों और कुकृत्यों के बाद भी अल-उम्मा पर प्रतिबंध तो दूर, कोई कड़ी कार्रवाई तक नहीं हुई थी, 8 फरवरी के विस्फोट के बाद भी नहीं। किसी बड़ी वारदात की ओर संकेत करने वाली चेतावनी जैसी इन घटनाओं पर राज्य सरकार सख्त कार्रवाई करने में नाकाम रही। किसी बड़ी दुर्घटना को रोकने की दिशा में यह सरकार की बड़ी विफलता थी।
प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन अल-उम्मा के अध्यक्ष एसए बाशा ने जुलाई 2003 में कोयंबटूर का दौरा करने पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जान से मारने की धमकी भी दी थी। बाशा और आठ अन्य लोगों ने यह धमकी उस समय खुले आम दी थी जब हिंदू मुन्नानी नेता की हत्या से संबंधित एक मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद पत्रकार कोयंबटूर अदालत परिसर में इन मुजरिमों से बात कर रहे थे। इस तरह के व्यक्ति और उसके संगठन अल उम्मा को द्रमुक सरकार ने 14 फरवरी 1998 के विस्फोटों तक बेरोकटोक काम करने दिया था।
आउटलुक और फ्रंटलाइन जैसी तगड़ी आरएसएस-विरोधी पत्रिकाओं ने भी इन धमाकों में तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएनएमएमके) की भूमिका स्वीकार की थी। फ्रंटलाइन ने मार्च 1998 के अंक में प्रकाशित किया था: “विस्फोटों के कुछ घंटों के भीतर ही तमिलनाडु सरकार ने अल-उम्मा और जिहाद कमिटी पर प्रतिबंध लगा दिया था। अल-उम्मा के संस्थापक अध्यक्ष एसए बाशा और संगठन के 12 अन्य सदस्यों को चेन्नई में गिरफ्तार किया गया; चेन्नई के ट्रिप्लिकेन में उनके घर से विस्फोटक सामग्री और हथियार भी जब्त किए गए थे। जिहाद कमिटी और तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएमएमके) के नेताओं को राज्यव्यापी कार्रवाई में गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तार लोगों में जिहाद कमिटी का अध्यक्ष आरएम हनीफा, महासचिव मोहम्मद हनीफा, छात्रसंघ सचिव अकरम खान, टीएमएमके अध्यक्ष और कॉलेज व्याख्याता एमएच जवाहिरुल्ला तथा कोषाध्यक्ष जीएम पक्कर शामिल थे। अगले कुछ दिनों में इन तीन संगठनों के 100 से अधिक कार्यकर्ताओं को कीझक्कराई, देवाकोट्टाई, डिंडिगुल, नागपट्टिनम, तंजावूर, नागरकॉइल, मेलापलायम और उदुमालपेट से गिरफ्तार किया गया। लगभग 1,000 अन्य लोगों को एहतियाती तौर पर हिरासत में लिया गया था … “
यहाँ तक कि आउटलुक ने भी कोयम्बटूर धमाकों में टीएनएमएमके के शामिल होने की बात स्वीकार की। उसने लिखा:
“कोयम्बटूर में फरवरी में हुए धमाकों के बाद शुरू हुई कार्रवाई जारी रहने के बीच यह बात और साफ देखी जा सकती है कि आम मुसलमान तेजी से अलग-थलग पड़ता जा रहा है। हर दिन पुलिस छुटभैये इस्लामी कट्टरपंथी संगठन अल उम्मा द्वारा छिपाए गए सैकड़ों किलो विस्फोटक बरामद कर रही है। इन बरामदगियों से साफ है कि वास्तव में अल उम्मा आतंकवादी समूहों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ संगठन है…
प्रारंभ में मुस्लिम कट्टरपंथी समूह 10 प्रमुख संगठनों के रूप में विभाजित थे। लेकिन, कोयंबटूर में नवंबर के दंगों के बाद उनमें से ज्यादातर ने आपस में मिलकर काम करना शुरू कर दिया था। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण समूह थे: तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम, अखिल भारतीय जिहाद कमिटी, अल उम्मा, तमिल इस्लामिक पेरावई, सुन्नत अल जमात यूथ फ्रंट, सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया), स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लाम, मुस्लिम प्रोटेक्शन फोर्स और जेएक्यूएच (जमीअतुल अहले क़ुरान वल हदीस)।
… अल उम्मा के गिरफ्तार सदस्यों के अनुसार, आईएसआई ने 1994 में मदुरै में हिंदू मुन्नानी नेता, राजगोपाल को खत्म करने का सुझाव दिया था। इसके अलावा, आरएसएस कार्यालय (अगस्त 1993) और हिंदू मुन्नानी कार्यालय (1995) में विस्फोट में प्रयुक्त आरडीएक्स की आपूर्ति भी आईएसआई द्वारा की गई थी।
…15 दिसंबर तक अल उम्मा के लोगों ने अतिरिक्त विस्फोटक जुटाने में केरल की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के कट्टरपंथी इस्लामी अध्यक्ष अब्दुल नासिर मदनी का समर्थन भी हासिल कर लिया था। पुलिस सूत्रों के अनुसार, चार सप्ताह में इन आतंकियों ने लगभग 1000 किलोग्राम विस्फोटक जमा कर लिए थे।”
यह उन विस्फोटों में टीएनएमएमके और अब्दुल मदनी की भागीदारी को जान लेना पर्याप्त है। अब मदनी और टीएनएमएमके के समर्थन में कॉन्ग्रेस, वाम और द्रमुक के कृत्यों को देखा जाए।
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के पाँच साल के शासन (2001-06) के बाद मई 2006 में द्रमुक एक बार फिर सत्तरूढ़ हुई। इसके बाद, 24 जुलाई 2006 को इंडियन एक्सप्रेस में एक समाचार प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था –“कोयंबटूर आतंकी घटनाओं के आरोपी के लिए द्रमुक ने जेल को स्पा में बदला”। समाचार में बताया गया था.
“अब्दुल नासिर महदानी की आयुर्वेदिक मालिश का खर्च वहन सरकार कर रही थी और उसकी पत्नी के खिलाफ गिरफ्तारी का वॉरंट होने के बावजूद वह महदानी से बेरोकटोक मिल सकती थी।
इन हालात में आतंक पर नकेल कसने की जरूरत पर सख्त बातें करने वालों पर हँसा जा सकता है। महदानी 1998 के कोयंबटूर सीरियल विस्फोटों का मुख्य आरोपी है, जिसमें बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी को निशाना बनाने की कोशिश करते हुए 58 लोगों की हत्या कर दी गई थी।
जब से करुणानिधि ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है, तब से यहाँ उच्च सुरक्षा वाली जेल में रखे गए महदानी और अल उम्मा के अन्य 166 कैदियों के बीच माहौल खुशनुमा है। इनमें से ज्यादातर को कोयंबटूर विस्फोटों के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। करुणानिधि की बदौलत, 10 मालिश वालों और चार वरिष्ठ आयुर्वेदिक डॉक्टरों की एक टीम ने 2001 से जेल के अस्पताल में रखे गए महदानी पर “उच्च गुणवत्ता वाला उपचार” शुरू किया है …
हालाँकि जेल मैनुअल में कहा गया है कि कोई कैदी यदि किसी प्रकार की निजी चिकित्सा हासिल करता है तो उसे उपचार की लागत का भुगतान करना होगा, तमिलनाडु सरकार महदानी की “धारा” और “पिझ़ीकिल” (आयुर्वेदिक मालिश) चिकित्सा का बिल भरने के लिए करदाताओं के पैसे का उपयोग कर रही है …
विस्फोट मामलों की जाँच कर रहे अधिकारियों को जिस बात ने सबसे ज्यादा क्षुब्ध किया, वह यह थी कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने चुपचाप अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 268 के तहत प्रतिबंध हटाते हुए महदानी के जेल के अंदर कहीं भी आने-जाने पर लगी रोक को खत्म कर दिया गया था।
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने नाम सामने न आने की शर्त पर बताया था, “द्रमुक के सत्ता में आने के तुरंत बाद, उसे जेल से बाहर ले जाने और उसका इलाज केरल में करवाने की कोशिश की गई थी। हमने इस तरह के कदम का कड़ा विरोध किया। केरल में आरोपी के प्रति दोस्ताना रवैया रखने वाली सरकार होने के चलते उसके एक बार केरल पहुँचने के बाद वह हमारी पकड़ से दूर हो जाता। यह सब तब हो रहा था जब विशेष अदालत में चल रही सुनवाई पूरी होने वाली थी और जल्द ही मामले में फैसला आने की उम्मीद थी।” इस अधिकारी ने यह भी कहा कि “…वास्तव में, विस्फोट से पहले के दिनों में, तमिलनाडु (1996-2001) में सत्तारूढ़ द्रमुक पर मुस्लिम आतंकवादी संगठनों के साथ रब्त-जब्त रखने और अल उम्मा जैसे जेहादी समूहो की गतिविधियों को नज़रअंदाज करने के आरोप थे।”
हालाँकि कोयंबटूर विस्फोटों के बाद द्रमुक को इस्लामिक कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ा था और इसने केंद्र में भाजपा के साथ गठबंधन की अवधि के दौरान 1999 से 2003 तक खुले तौर पर आतंकवाद-समर्थक नीति का पालन नहीं किया था, लेकिन 2004 से मौका मिलते ही वह अपने असली रूप में वापस पहुँच गया था। द्रमुक ने 2004 के लोकसभा चुनावों और तमिलनाडु में 2006 के विधानसभा चुनावों में फिर से टीएनएमएमके के समर्थन से जीत हासिल की। मई 2006 में शपथ ग्रहण के दो ही हफ्ते बाद, तमिलनाडु की द्रमुक सरकार ने किचान बुहारी के 12 मुस्लिम कट्टरपंथी सहयोगियों के खिलाफ मामले खत्म करने का आदेश दिया। अल-उम्मा समर्थक बुहारी कोयंबटूर विस्फोटों के प्रमुख अभियुक्तों में शामिल था। इंडियन एक्सप्रेस ने 8 अगस्त 2006 को एक रिपोर्ट की:
“…तिरुनेलवेली के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, “…वरिष्ठ पुलिसकर्मी मुस्लिम कट्टरपंथियों के प्रति द्रमुक सरकार की ज़बरदस्त सहानुभूति से हैरान थे। प्रत्यक्षतः, जिस आरोपी से सरकार को सहानुभूति थी, उसने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील माने जाने वाले तिरुनेलवेली जिले में शांति भंग करने के इरादे से गंभीर अपराध किया था और वह कानून-व्यवस्था संबंधी समस्याएँ पैदा करने का आरोपी था। साथ ही, उसका और उसके साथियों का संबंध मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों से था। सरकार को चाहिए था कि वह कानून को स्वाभाविक तरीके से काम करने देती। किसी सरकार के इन कदमों से पुलिस का मनोबल गिरता है।”
पुलिस अधिकारियों ने बताया कि मेलापालयम थाने में 2001 की अपराध संख्या 15 के रूप में दर्ज एक मामले में पकड़े गए पाँच में से दो आरोपी किशोर थे, जिन्हें उनकी कम उम्र के कारण छोड़ दिया गया था, लेकिन अन्य तीन – एमएस सैयद मोहम्मद बुहारी, शेख हैद और जफर अली ने अपना अपराध स्वीकार किया था। इसके बावजूद, सरकार ने उनके खिलाफ मामलों को वापस लेने का आदेश दिया। …ऐसे भी आरोप हैं कि सत्तारूढ़ द्रमुक अपने सहयोगी दल तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएमएमके) के तुष्टीकरण के लिए इन मामलों में कमजोरी दिखा रहा था। पुलिस के एक वर्ग का मानना है कि द्रमुक सरकार द्वारा छह मामलों के खत्म करने का फैसला संभवतः टीएमएमके के साथ चुनाव-पूर्व समझौते का हिस्सा रहा हो। ”
टीएनएमएमके केवल द्रमुक का गठबंधन सहयोगी नहीं था, बल्कि द्रमुक के नेतृत्व वाले डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव अलायंस (डीपीए) गठबंधन में कॉन्ग्रेस भी शामिल थी। यह अलग बात है कि किसी पार्टी का गठबंधन मुख्यधारा की किसी ऐसी पार्टी से हो, जिसके कुछ सदस्य कभी आतंकवाद के पक्षधर होने के दोषी हों, लेकिन किसी कट्टरपंथी आतंकवाद-समर्थक पार्टी के साथ गठबंधन करना और उसके दबाव में आतंकवादियों को रिहा करना तथा उनके खिलाफ मामले वापस लेना बिलकुल अलग किस्म की बात है। (उस समय, तमिलनाडु विधानसभा में 234 में से द्रमुक के पास 97 और कॉन्ग्रेस के पास 33 विधायक थे। इस प्रकार द्रमुक और कॉन्ग्रेस को मिला कर उनके पास बहुमत था और किसी अन्य दल के समर्थन की आवश्यकता नहीं थी। मजे की बात यह है कि टीएनएमएमके हालाँकि द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन डीपीए का समर्थन कर रहा था, उसके पास अपना एक भी विधायक नहीं था।)
1998 के कोयंबटूर धमाकों के मामले में गिरफ्तार अब्दुल नज़र मदनी को बरी करने के खिलाफ अपील न करने का द्रमुक सरकार का फैसला निश्चित रूप से वोट बैंक के लालच में गलत किस्म की सहानुभूति का नतीजा था।
कॉन्ग्रेस विधायक दल ने 2006 में केरल विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर 1999 से कोयंबटूर जेल में बंद अब्दुल मदनी को छोड़ने की माँग की थी। इस प्रस्ताव को वामपंथियों का भी समर्थन था। केरल विधानसभा ने 16 मार्च 2006 को सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित किया। मदनी पर बाद में आईपीएल क्रिकेट के दौरान 2008 में बेंगलूरु में हुए बम विस्फोटों का आरोप भी लगा। मार्च 2006 में उसकी रिहाई की माँग के प्रस्ताव और 1 अगस्त 2007 को कोयंबटूर विस्फोट मामले में उसके बरी होने के बाद वह 2008 में एक और हमले में शामिल पाया गया था
इंडियन एक्सप्रेस ने 25 जुलाई 2006 को रिपोर्ट किया: “अगर तमिलनाडु में द्रमुक सरकार 1998 कोयंबटूर विस्फोट के आरोपी अब्दुल नासिर महदानी की आयुर्वेदिक मालिश की व्यवस्था कर रही है, तो केरल में वाम दल और कॉन्ग्रेस उसके अकड़े पड़े पैरों को ठीक करने की कोशिश में जुटे थे।”
बाद में, 2009 में द्रमुक-कॉन्ग्रेस सरकार ने कोयम्बटूर विस्फोट के दोषियों को समय से पहले से रिहा कर दिया। इस कृत्य के लिए भाजपा ने उनकी कड़ी आलोचना की थी।
सितंबर 2005 में, टीएनएमएमके ने देश के विभिन्न हिस्सों में बम विस्फोटों में सिमी के शामिल होने के तथ्य के बावजूद सिमी पर से प्रतिबंध हटाने की खुले तौर पर माँग की थी। टीएनएमएमके तमिलनाडु में कॉन्ग्रेस की सहयोगी थी। मई 2006 की टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया था,: “टीएनएमएमके अध्यक्ष एमएच जवाहिरुल्लाह और इसके महासचिव एस हैदर अली ने चेन्नई में संवाददाताओं से बातचीत में अन्नाद्रमुक को दूसरी भाजपा करार देते हुए सोमवार को कहा कि तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कडळगम (टीएनएमएमके) ने 8 मई, 2006 को होने वाले विधानसभा चुनावों में द्रमुक के नेतृत्व वाले डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव अलायंस (डीपीए) को अपना समर्थन देने का फैसला किया है। टीएनएमएमके कार्यकर्ता राज्य के सभी 234 निर्वाचन क्षेत्रों में काम करेंगे ताकि डीपीए की जीत सुनिश्चित हो सके।”
इस पार्टी ने कोयम्बटूर विस्फोटों के पहले 1997 में हुए साम्प्रदायिक दंगों का विरोध करते हुए तमिलनाडु में 4 फरवरी 1998 को हुए लोकसभा चुनावों के बहिष्कार की घोषणा की थी। यह पार्टी 1999 के लोकसभा चुनावों, 2001 के विधानसभा और 2004 के लोकसभा चुनाव में भी कॉन्ग्रेस गठबंधन के साथ थी। 2001 में अन्नाद्रमुक और कॉन्ग्रेस साथ थे। 11 जुलाई 2006 को मुंबई की उपनगरीय ट्रेनों में 11 मिनट के भीतर हुए सात विस्फोटों में 187 लोगों की मौत और सैकड़ों लोगों के घायल होने की घटना के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने टीएनएमएमके के साथ संबंधों के लिए कॉन्ग्रेस और द्रमुक की भर्त्सना की थी।
मुंबई मिरर ने 20 जुलाई 2006 को जयराज सिवन की लिखी रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, “सिमी आध्यात्मिक संगठन है”। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि “तमिलनाडु का नेता ‘सिमी बचाओ’ अभियान में शामिल हुआ।” यह समाचार इस प्रकार था –
“चेन्नै: तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव अलायंस (डीपीए) को तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कळगम (टीएमएमके) के साथ अपने संबंधों की व्याख्या करनी पड़ सकती है। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने टीएमएमके पर स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के साथ ‘गहरे संबंध’ होने का आरोप लगाया था। उल्लेखनीय है कि सिमी 11 जुलाई के मुंबई सीरियल धमाकों में कथित संलिप्तता के लिए संदेह के घेरे में है।
सत्तारूढ़ डीपीए के साथ अपने संबंधों के बावजूद, टीएमएमके को केंद्र और राज्य की खुफिया एजेंसियां जाँच कर रही हैं क्योंकि 1998 के कोयंबटूर सीरियल धमाकों के बाद अल-उम्मा पर लगे प्रतिबंध के परिणामस्वरूप अधिकांश अल-उम्मा नेता टीएमएमके में शामिल हो गए थे।
हालाँकि डीएमके ने तब से इस संगठन से कुछ दूरी बना रखी थी – मुख्यतः भाजपा के साथ पाँच साल के गठबंधन के दौरान – लेकिन 2004 के संसदीय चुनावों से पहले टीएमएमके भी डीपीए में शामिल हो गया। इस बारे में करुणानिधि का कहना है कि कई अन्य छोटे दलों की तरह टीएमएमके गठबंधन का सहयोगी नहीं है, बल्कि वह केवल दोस्ताना रुख रखने वाली पार्टी है।
इस बारे में संपर्क किए जाने पर टीएमएमके अध्यक्ष प्रोफेसर एमएच जवाहिरुल्लाह ने कहा, “भाजपा के आरोप बेतुके हैं। हमारा स्वतंत्र संगठन है और हम लोकतांत्रिक और संवैधानिक माध्यमों से अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में विश्वास करते हैं।” यह पूछे जाने पर कि क्या वह अतीत में सिमी के सक्रिय सदस्य थे, उन्होंने कहा, “मैं 1989 तक सिमी में था। उसके बाद 30 वर्ष की उच्चतम आयु सीमा पार कर लेने पर मैं सिमी का सदस्य नहीं रहा।” हालाँकि, उन्होंने सिमी का बचाव करते हुए कहा, “सिमी एक आध्यात्मिक संगठन है। वह चरमपंथी गतिविधियों में कभी शामिल नहीं होगा।
करुणानिधि और उनके सहयोगियों ने अब तक सिंह के इस आरोप पर प्रतिक्रिया नहीं दी है कि द्रमुक और कॉन्ग्रेस जैसे डीपीए के सहयोगी राज्य में टीएमएमके जैसी कट्टरपंथी और जेहादी ताकतों को प्रोत्साहित कर रहे हैं।
जुलाई 2006 में मुंबई में हुए बम धमाकों में सिमी की संलिप्तता साफ-साफ उजागर होने के बाद भी टीएनएमएमके ने सिमी को ‘आध्यात्मिक संगठन’ कहने की धृष्टता की थी, जबकि सिमी के नेता खुले तौर पर ओसामा बिन लादेन की ‘सच्चे नायक और इस्लामी योद्धा’ के रूप में प्रशंसा कर रहे थे।
आज इतने सालों के बाद भी, कॉन्ग्रेस ने 1998 के कोयंबटूर धमाकों के लिए आरएसएस पर अपने झूठे और बेशर्म आरोपों के लिए माफी नहीं माँगी है। न ही, उसने कभी टीएनएमएमके की निंदा की या उसके साथ अपने गठबंधन अथवा संबंधों की साफ-साफ व्याख्या की।
राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस को सीधे-सीधे आरएसएस पर उनके झूठे आरोपों के लिए माफी माँगने या कम से कम 1998 के कोयंबटूर विस्फोटों के अपराधियों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा जाना चाहिए। आतंकवादियों के लिए ‘जी’ जैसे शब्दों का उपयोग करने से कहीं अधिक, कॉन्ग्रेस और द्रमुक जैसे उसके सहयोगियों के कृत्यों को ज्यादा व्यापक रूप से उजागर किया जाना चाहिए।
(The writer is the author of book “Gujarat Riots: The True Story” which gives all details about the 2002 riots- Godhra and after, one of the admins of www.gujaratriots.com and one of the admins of the Twitter handle @gujaratriotscom)
[यह लेख प्रथम ऑपइंडिया पर अंग्रेज़ी में यहाँ प्रकाशित हुआ। इसके बाद इसका हिंदी अनुवाद साप्ताहिक पाञ्चजन्य में यहाँ प्रकाशित हुआ। https://www.panchjanya.com/Encyc/2019/4/4/Congress-feeding-up-terrorism-and-separatism.html ]
GujaratRiots.com: Author of the book “Gujarat Riots: The True Story” which gives all the details about the 2002 Gujarat riots - Godhra and thereafter.