‘Times Now’ के दिल्ली में AAP की जीत की भविष्यवाणी के बावजूद, इन वजहों से वो अभी भी चुनाव हार सकते हैं

केजरीवाल-अमित शाह

सभी राजनीतिक दलों के समर्थकों के बीच, सोशल मीडिया पर भाजपा के समर्थक ही ओपिनियन पोल को गंभीरता से लेते हैं, शायद उनसे भी ज्यादा गंभीरता से, जो लोग ऐसे सर्वे करवाते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ऐसे समर्थकों में से अधिकांश ‘माहौल’ से अधिक ‘डेटा’ पर भरोसा करते हैं- यही वजह है कि जब भी विपक्ष द्वारा हेटक्राइम, जय श्री राम, आदि नैरेटिव्स तैयार किए जाते हैं, तो वे डेटा माँगते नजर आते हैं। जनमत सर्वेक्षण डेटा यानी आँकड़ों से संबंधित होते हैं, और इसी कारण भाजपा समर्थकों को इसे नकारना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह उनके सामान्य भावनाओं के खिलाफ जाता है।

हालाँकि, ‘टाइम्स नाउ‘ द्वारा करवाए गए हालिया सर्वेक्षण ने भाजपा समर्थकों का मनोबल गिराने का काम किया है। टाइम्स नाउ ने दावा किया है कि यह सर्वे जनवरी 27, 2020 और फरवरी 01, 2019 के बीच किया गया था, यानी कि ऐसी अवधि के दौरान जब कि भाजपा को बढ़त बनाते हुए देखा गया। यह पोल सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को मतदान का 52% हिस्सा देने की बात कहता है, जिसका अर्थ है कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 60 से अधिक सीटों पर विजय होगी।

आश्चर्य की बात है कि यही ओपिनियन पोल कहता है कि 52% मतदाता शाहीन बाग़ में चल रहे CAA-विरोधियों के भी विरोध में हैं। गौरतलब है कि यही शाहीन बाग़ भाजपा ने विधानसभा चुनाव में प्रमुख मुद्दा बना रखा है। यही ओपिनियन पोल यह भी कहता है कि अगर दिल्ली में इसी समय लोकसभा चुनाव भी करवाए जाएँ तो भाजपा दिल्ली में सभी सीटों पर विजयी रहेगी। यह कितना भी विवादस्पद क्यों न लगे, लेकिन यह वास्तविकता है कि लोग विधानसभा और आम चुनावों में अलग-अलग मुद्दों पर मतदान करते हैं।

तो क्या इसका आशय यह है कि बीजेपी के दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने की संभावना नहीं है? मुझे नहीं लगता है कि इस निष्कर्ष को ही आखिरी मान लिया जाना चाहिए। इसके पीछे पाँच मुख्य कारण ये हैं –

पहला कारण स्वाभाविक है: ओपिनियन पोल ब्रह्म वाक्य नहीं होता

वर्ष 2015 के चुनाव में कोई भी ओपिनियन पोल आम आदमी पार्टी की इतनी बड़ी जीत की भविष्यवाणी नहीं कर पाया था। बावजूद इसके, आम आदमी पार्टी के खाते में 70 में से 67 सीटें आईं। उस समय आधे से ज्यादा पोल भाजपा को बहुमत से विजयी मानकर चल रहे थे। ओपिनयन पोल के माध्यम से मतदातों का सटीक आँकलन कठिन होता है। फिर, भाजपा अपने बूथ प्रबंधन के मामले में कहीं ज्यादा परिपक्व है। जबकि आम आदमी पार्टी के पास ‘वॉलंटियर्स’ तक की भी कमी है।

‘मोदी फ़ॉर PM, केजरी फॉर CM’ शायद पिछली बार जितना प्रभावी न हो

केजरीवाल और उनकी पार्टी ने ‘मोदी फ़ॉर PM, केजरी फॉर CM’ का नारा पिछले चुनावों में वोट माँगने के लिए इस्तेमाल किया था, लेकिन फजीहत होने के बाद यह बैनर हटा दिए गए थे। टाइम्स नाउ द्वारा चलाए गए ओपिनियन पोल की बात मानें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा अभी भी मोदी को ही केंद्र में देखना चाहता है। और अगर इसी ओपिनियन पोल की मानें तो आज यह नारा इसलिए भी प्रभावी नहीं रह गया है क्योंकि 2015 में जीतने के बाद, केजरीवाल ने कभी भी मोदी पर हमला करने का कोई भी अवसर नहीं खोया है।

वह पूरी तरह से अलग केजरीवाल थे, जिसे लोगों ने 2015 से पहले देखा था, जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में सीधे मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, फिर भी मोदी को ‘कायर और मनोरोगी’ कहने जैसे ध्रुवीकरणों का इस्तेमाल नहीं किया था। इस तरह के सम्बोधन नोटबंदी के बाद और भी बदतर होते गए। भारत-पाक तनाव के दौरान भी पाकिस्तान में केजरीवाल के समर्थन में हैशटैग चलाए गए। लगता नहीं है कि लोग यह सब भूलेंगे।

केजरीवाल मोदी नहीं है

मीडिया और ओपिनियन पोल करने वालों के इस बात को मानने के पीछे कि AAP वर्ष 2015 के चुनाव परिणामों को दोहराने वाली है, यह कारण है कि मोदी इस चुनाव में वर्ष 2014 से भी बेहतर प्रदर्शन को दोहरा सकते हैं।
ओपिनियन पोल करने वालों में से कई लोग वास्तव में मानते हैं कि केजरीवाल मोदी की तरह हैं और इस तरह उन्हें विश्वास है कि केजरीवाल 2020 में वही दोहराएँगे जो कि मोदी ने 2019 में दोहरा चुके हैं।

यह कोई रहस्य नहीं है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग केजरीवाल से प्यार करता है। पिछले चुनावों के दौरान, NDTV के रवीश कुमार ने एक ब्लॉग लिखा था, जिसमें लगभग यही तर्क दिया गया था कि केजरीवाल को लोकतंत्र में आशा को जीवित रखने के लिए जीतना चाहिए। केजरीवाल ने जीत हासिल की और लोकतंत्र फिर स्थापित हो गया, जो कि मोदी के चुनाव जीतने पर मर जाता है।

इसके अलावा, केजरीवाल वामपंथी इकोसिस्टम के भी चहेते हैं। हालाँकि, केजरीवाल गोवा और पंजाब को जीतने में विफल रहे, और इस इकोसिस्टम का मोह भंग हो गया और कुछ ने तो अपने संरक्षक कॉन्ग्रेस में वापस जाने का फैसला भी किया। इसके बाद वो सब राफेल घोटाले के कोरस में शामिल हो गए, जबकि अन्य लोग तब भी मोदी का विकल्प JNU के छात्रों, जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल और यहाँ तक कि ममता बनर्जी जैसों में ढूँढने लगे।

2019 के लोकसभा चुनाव के फैसले के बाद, इकोसिस्टम ने 2014 के परिणामों के बाद जो कुछ भी किया था उसे ही दोहरा रहा है। केजरीवाल पर विश्वास होना उसी रिपीट मोड में होने का हिस्सा है। और उनके पास यह मानने के कारण हैं कि दिल्ली में केजरीवाल की वही छवि है जो राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की छवि है। दोनों ने ही निम्न वर्गों तक वह पहुँचाया है, जो कि उनके लिए मायने रखता है। अगर मोदी ने उन्हें गैस सिलेंडर, बिजली, मकान आदि दिए, तो केजरीवाल ने कम से कम पानी और बिजली “मुफ्त” दी।

जिस समय पत्रकार मनगढ़ंत राफेल घोटालों की आढ़ में सपने देख रहा था, उस समय मोदी जमीनी स्तर पर लोगों का समर्थन जीत रहे थे। केजरीवाल भी इसी तरह अपनी ‘मुफ्त’ बिजली और पानी के कारण जमीनी स्तर पर समर्थन ले सकते थे। लेकिन वास्तविकता यही है कि केजरीवाल मोदी नहीं है।

राफेल घोटाला काल्पनिक था, लेकिन केजरीवाल अपने किए हुए बड़े-बड़े वादों को निभाने में वास्तव में असफल रहे हैं। भाजपा उन असफलताओं को प्रकाश में लाने का प्रयास कर रही है और अमित शाह खुद मैदान में आ चुके हैं। मोदी अपने ऊपर लगने वाले आरोपों में उलझकर विरोधियों के नेरेटिव्स में नहीं उलझते हैं, जबकि केजरीवाल को अमित शाह ने फंसा लिया है और वो अपनी असफलताओं के बारे में बात करने पर मजबूर है।

दिल्ली भारत नहीं है

केजरीवाल के मोदी नहीं होने के अलावा, अन्य अंतर यह है कि दिल्ली भारत नहीं है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो भारत में अन्य स्थानों की तुलना में ‘माहौल’ से अधिक आसानी से प्रभावित होता है, शायद इस क्षेत्र पर मुख्यधारा के मीडिया के कारण यह प्रभाव है।

AAP का उदय, जिसे कि यह पार्टी देश में कहीं और नहीं दोहरा पाई, उस सिद्धांत के लिए एक तरह से वसीयतनामा है। यही कारण है कि मोदी ने 2019 के चुनाव में जो दोहराया है, उस प्रदर्शन की सीधी तुलना 2020 में केजरीवाल के प्रदर्शन के साथ नहीं हो सकती है।

ऐसी खबरें हैं कि भाजपा के स्वयंसेवकों को चुनावों से पहले दिल्ली में झुग्गियों में समय बिताने के लिए कहा गया है। उन्हें वहाँ केवल ‘शाहीन बाग’ पर बात नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी समझाना चाहिए कि कैसे ‘मुफ्त’ वास्तव में मुफ्त नहीं है और इस तरह के अन्य मुद्दों पर भी बात करनी चाहिए।

आखिरी ओवर में नरेंद्र मोदी की रैलियाँ

नरेंद्र मोदी की रैलियाँ होने वाली हैं, जो कि अपने आप में सबसे बड़ा कारण है।

नोट: राहुल रौशन द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस लेख का अनुवाद आशीष नौटियाल ने किया है।

Rahul Roushan: A well known expert on nothing. Opinions totally personal. RTs, sometimes even my own tweets, not endorsement. #Sarcasm. As unbiased as any popular journalist.