चिंतन: निराशावादी और विरोधाभासी है वामपंथ, समाज के विपरीत है इसकी अवधारणा

कम्युनिज्म या वामपंथ का पूरा सिद्धांत "विचारों" पर केंद्रित है, बिना किसी विचारधारा के

हेगेल के सिद्धांत के मुताबिक मानव मस्तिष्क की जीवन प्रक्रिया, अर्थात चिंतन की प्रक्रिया, जिसे हम ‘विचार’ के रूप में जानते हैं, एक विषय या कर्ता है, और वास्तविक दुनिया केवल इस विचार का प्रतिबिंब है।
एक अन्य संदर्भ में हेगेल ने विचारों को दुनिया के सृजनकर्ता के रूप में माना। लेकिन मार्क्स के अनुसार भौतिक दुनिया मानव मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती है, और फिर विचार बनते हैं। यानी कि कम्युनिज्म या वामपंथ का पूरा सिद्धांत “विचारों” पर केंद्रित है, बिना किसी विचारधारा के। साम्यवाद केवल ‘विचार’ की बात करता है, ‘विचारहीनता’ या ‘सोचने की प्रक्रिया’ की नहीं।

जैसा कि परंपरागत फिलोसफी में माना जाता है, विचार अल्पकालिक रहते हैं, सभी विचारों को बदला जा सकता और वे खुद भी प्रतिक्षण विलुप्त होते रहते हैं। इसके विपरीत, “विचार प्रक्रिया” कभी समाप्त नहीं होती है और यह लगभग दसियों या सैकड़ों अन्य विचारों को हर विचार के लिए संसाधित करती है, जो मर जाती है। कम्युनिज्म ये नोटिस ही नहीं करता है कि “इस दुनिया के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों को जन्म देती है”।

उदाहरण के लिए, अगर मैं फूल देखता हूँ- यहाँ ‘देखना’ एक विचार नहीं है और अगर मैं देख रहा हूँ तो कोई विचार नहीं उठेंगे। लेकिन जब बहुत ही तत्परता से मैं कहता हूं कि ‘फूल बहुत सुंदर है’, तो विचार पैदा होता है। अगर मैं केवल तभी देखूँ तो सुंदरता की भावना होगी, लेकिन विचार पैदा नहीं होगा। लेकिन जैसे ही हम इसे अनुभव करते हैं, हम इसे एक शब्द देना शुरू करते हैं। यह विचार ज्ञान को शब्द देने के रूप में जन्म लेता है, यहीं प्रतिक्रिया, शब्द देने की आदत, दर्शन को धारणा देती है। सनसनी दब जाती है, दर्शन उदास हो जाता है, पर शब्द मन में तैरते रहते हैं। ये शब्द एकमात्र विचार हैं!

मार्क्सवाद समाज को दो भागों में वर्गीकृत करता है, जो कि शोषण कर रहे हैं और जो शोषित हैं। यह उन परिभाषाओं के विपरीत है, जिन पर ‘समाज’ मौजूद है। और ये उन सभी सिद्धांतो को भी ख़ारिज करता है जो एक व्यक्ति या संस्था की सफलता और खुशी के उपायों का अनुमान लगाते हैं। तो, मूल रूप से कम्युनिज्म ये भविष्यवाणी करता है कि ‘समाज में कोई भी सफल नहीं है या कुछ अच्छा भला नहीं होता है।

और फिर यह कम्युनिस्टों द्वारा लिखी गई बहुत लोकप्रिय स्लोगन के विपरीत है, जो हर किसी को उसकी क्षमताओं के अनुसार देने और उनकी जरूरतों के अनुसार प्राप्त करने की वकालत करता है। इस प्रकार, किसी समाज की आवश्यकताओं को एक व्यक्ति की विशिष्ट आवश्यकताओं से ऊपर और उससे आगे रखा जाएगा, कम्युनिज्म अपनी इस एकमात्र थ्योरी को भी विरोधाभास की नजर से देखने लगता है।

इसलिए, एक आभासी विचारधारा पर आधारित कम्युनिज्म, नवाचार को पूरा करने पर या विचारों की प्रकृति निर्धारित करने वाली विचार प्रक्रिया पर काम नहीं करता। मैं समझता हूँ कि वामपंथ के पीछे छिपे पागलपन और विवेकशीलता का निर्धारण करने के लिए इतना ही काफ़ी है।

(उपर्युक्त चिंतन अमेरिकी लेखक और FBI के अधिकारी रहे W. Cleon Skousen की पुस्तक “The Naked Communist” को आधार बनाकर लिखा गया है। वामपंथियों ने इस पुस्तक को राइट विंग वालों का हथकंडा बताकर रिजेक्ट कर दिया था।)

Anand Kumar Singh: बिंत-ए-सहरा रूठा करती थी मुझ से मैं सहरा से रेत चुराया करता था #TehjeebHafi