जहाँ हुआ जलियाँवाला नरसंहार, 8 महीने बाद कॉन्ग्रेस ने वहीं क्यों रखा अधिवेशन: 2 फाइल, एक लेटर में छिपा है राज

जलियाँवाला बाग नरसंहार और कॉन्ग्रेस

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का 34वाँ अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। पहले दिन यानी 27 दिसंबर, 1919 को मोतीलाल नेहरू ने अध्यक्षीय भाषण दिया, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश शासन की शान में खूब तारीफ की। उस दौरान जॉर्ज फ्रेडेरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के सम्राट कहे जाते थे। उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ़ वेल्स, एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था। अधिवेशन में मोतीलाल ने सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की। अपने भाषण के माध्यम से वे ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र करना नहीं भूले।

अधिवेशन के अलावा उन दिनों अमृतसर सुर्खियों में लगातार बना हुआ था क्योंकि 13 अप्रैल, 1919 को इस शहर में ही जलियाँवाला बाग नरसंहार हुआ था। यह घटना जितनी अमानवीय थी, उससे ज्यादा शर्मनाक भी थी। जब एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्य की मोतीलाल स्तुति कर रहे थे तो ब्रिटेन की संसद में डायर को ‘क्षमतावान’ अधिकारी बताया जा रहा था। दरअसल 19 जुलाई, 1920 के ब्रिटिश संसद में एक प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान बताया गया कि डायर ने ‘कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया है’। इससे ज्यादा नृशंस नजरिया क्या हो सकता है, जबकि कॉन्ग्रेस ने इस पूरे मामले पर चुप्पी साध ली।

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ब्रिटिश भारत का यह क्रूरतम अध्याय यहीं खत्म नही होता। भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार की होम पॉलिटिकल विभाग की फ़ाइल संख्या जनवरी 1920/77 के अनुसार कॉन्ग्रेस ने अमृतसर को अपने अधिवेशन के लिए जानबूझकर चुना, जिससे एक खास राजनैतिक मकसद को पूरा किया जा सके। दस्तावेज के अनुसार जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस उन खूनी धब्बों से ब्रिटिश सरकार को बचाने का प्रयास कर रही थी, जिनके निशान आजतक अमृतसर में मौजूद हैं।

उपरोक्त फ़ाइल में एक पत्र है, जो कॉन्ग्रेस के एक सदस्य ने अमृतसर के उप-आयुक्त को लिखा था। उसमें उन्होंने सुझाव दिया कि अमृतसर में कॉन्ग्रेस का अधिवेशन दोनों (ब्रिटेन और कॉन्ग्रेस) के हितों के लिए जरूरी है। उस कॉन्ग्रेस सदस्य ने लिखा है कि अगर ब्रिटिश सरकार कॉन्ग्रेस को अधिवेशन की अनुमति देती है तो इससे जनता के बीच सरकार की छवि में सुधार होगा।

जलियाँवाला बाग नरसंहार पर ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमिटी की रिपोर्ट प्रकाशित की। जिसमें बताया गया है कि 13 अप्रैल, 1919 को 5,000 से ज्यादा लोग वहाँ मौजूद थे। डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी, जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुरकियाँ (छोटी तलवारें) थी। वे लगातार, बिना चेतावनी के, 10 मिनट तक गोलियाँ चलाते रहे। इस घटना के बाद डायर ने लिखित में बताया कि जितनी भी गोलियाँ चलाई गईं, वह कम थी। अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक होती।

नरसंहार में कितने निर्दोष भारतीयों का बलिदान हुआ, आजतक इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं है। हालाँकि, राष्ट्रीय अभिलेखागार में होम पोलिटिकल विभाग की फाइल संख्या 23-1919 में इस संबंध में एक चौकाने वाली जानकारी मिलती है। फाइल के अनुसार एक ब्रिटिश अधिकारी जेपी थॉमसन ने एचडी क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को एक पत्र में लिखा, “हम इस स्थिति में नहीं हैं, जिसमें हम बता सकें कि वास्तविकता में जलियाँवाला बाग में कितने लोग मारे गए।”

इस प्रकार के भयावह तथ्यों के बावजूद भी ब्रिटिश भारत में जलियाँवाला बाग नरसंहार का उपयोग कॉन्ग्रेस ने अपने निजी फायदे के लिए किया। बाद में जवाहर लाल नेहरू ने नरसंहार को कॉन्ग्रेस का एक ‘उपक्रम’ बना दिया। विभाजन के बाद जलियाँवाला बाग ट्रस्ट को वैधानिक रूप दिया जाना प्रस्तावित किया गया।

प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि इसका विधेयक संसद के समक्ष प्रस्तुत न करके मंत्रिमंडल से ही पारित हो जाए। वे 11 मार्च, 1950 को लिखते हैं, “मैं चाहता हूँ कि इस विधेयक के मसौदे को जलियाँवाला बाग मैनेजिंग कमिटी की बैठक में रखा जाए। उसके बाद, मुझे उसकी प्रति भेज दें। तब विधेयक को मंत्रिमंडल के समक्ष मंजूरी के लिए पेश किया जायेगा। जाहिर है इसे संसद के वर्तमान सेशन में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह मंत्रिमंडल के द्वारा पारित कराया जाएगा।” (भारत का राष्ट्रीय अभिलेखागार, गृह मंत्रालय, 16(11)-51 Judicial)

विधेयक के मसौदे पर एक भ्रम फैलाया जाता है कि इसे डॉ बीआर आंबेडकर ने तैयार किया था। दरअसल इसका मसौदा कॉन्ग्रेस के ही एक सदस्य टेकचंद ने बनाया था। आंबेडकर के पास तो यह समीक्षा के लिए 24 मार्च, 1950 को भेजा गया था। कुछ मामूली सुझावों के साथ उन्होंने इसे वापस भेज दिया।

जलियाँवाला बाग मेमोरियल ट्रस्ट बिल, 1950 में नेहरू के साथ सरदार पटेल भी न्यासी थे। एक्स-ऑफिसियो में पंजाब के राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रखा गया। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा पहले चार लोगों को नामांकित किया जा सकता था लेकिन अंत में यह संख्या तीन कर दी गई। इसके न्यासी जीवन भर के लिए पदाधिकारी बनाए गए। आखिरकार, संसद के समक्ष 7 दिसंबर, 1950 को विधेयक प्रस्तुत किया गया। तब तक सरदार पटेल बेहद अस्वस्थ हो गए थे। उनके स्थान पर पहले राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर विचार किया गया। बाद में नेहरू के सुझाव पर डॉ सैफुद्दीन किचलू को न्यासी बनाया गया।

कॉन्ग्रेस ने इस पूरे मामले में अलोकतांत्रिक रवैया अपनाया और किसी अन्य दल, सामाजिक एवं राजनैतिक व्यक्ति से इस सन्दर्भ में चर्चा तक नहीं की। शुरुआत में विधेयक को संसद में न लाकर मंत्रिमंडल से ही पारित किया जाना था। बाद में प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे संसद के समक्ष रखा तो इसमें सभी सदस्य कॉन्ग्रेस के ही थे। नियम तो यहाँ तक था कि कॉन्ग्रेस का जो भी अध्यक्ष होगा, वह ट्रस्ट का सदस्य होगा। यह विधान 1951 में लागू हुआ था, जिसे भारत सरकार ने 2018 में बदल दिया।

Devesh Khandelwal: Devesh Khandelwal is an alumnus of Indian Institute of Mass Communication. He has worked with various think-tanks such as Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, Research & Development Foundation for Integral Humanism and Jammu-Kashmir Study Centre.