कन्हैया कुमार की ‘डिमोशन’ और राहुल गाँधी की ‘प्रमोशन’ यात्रा: कॉन्ग्रेस का गटर ही जेएनयू के वामपंथ का किनारा

राहुल गाँधी के साथ कन्हैया और जिग्नेश मेवाणी (साभार: इंडियन एक्सप्रेस)

कन्हैया कुमार ने कॉन्ग्रेस पार्टी ज्वाइन कर ली है। इसके साथ ही उनका डिमोशन हो गया। उनके डिमोशन की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि एक समय था जब बुद्धिजीवियों, संपादकों और पत्रकारों ने जेएनयू में उनके भाषण कौशल और मीडिया द्वारा उन्हें दिए जाने वाले एयर टाइम के आधार पर उन्हें नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले सबसे बड़ा नेता घोषित कर दिया था। यह वो समय था जब लोकतंत्र की तथाकथित हत्या रोकने के लिए इन सब को हर दस महीने में एक नए हीरो की तलाश रहती थी और कन्हैया कुमार ऐसे ही किसी तलाश में बरामद हुए थे। नरेंद्र मोदी के खिलाफ सबसे मजबूत दावेदार से एक कॉन्ग्रेसी सिपाही बनने तक की उनकी इस डिमोशन यात्रा में लगभग साढ़े चार वर्ष लगे।

राजनीतिक पंडितों और विशेषज्ञों का यह मानना है कि उनके कॉन्ग्रेस ज्वाइन करने से कॉन्ग्रेस पार्टी सेंटर से लेफ्ट की तरफ चली गई है। मुझे लगता है इसमें कुछ भी नया नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में भारत के टुकड़े होने की बात डफली की तान पर गाने के बाद जो नेता कन्हैया कुमार और उनके साथियों के समर्थन में सबसे पहले विश्वविद्यालय के कैंपस पर उतरा था उसका नाम राहुल गाँधी ही था। ऐसे में यदि कन्हैया कुमार आज कॉन्ग्रेस पार्टी ज्वाइन करते हैं तो उसमें कैसा आश्चर्य? ऐसा तो हो नहीं सकता न कि टुकड़े-टुकड़े का नारा लगाने वाले के समर्थन में राहुल गाँधी सार्वजनिक तौर पर उतर आएँ पर जब नारा लगाने वाले गाँधी जी (मेरा मतलब राहुल गाँधी से है) की पार्टी ज्वाइन कर लें तो इसे लेकर आश्चर्य व्यक्त किया जाए। 

कन्हैया कुमार का अपना राजनीतिक कद और जमा पूँजी कितनी बड़ी है, इसे लेकर बहस होती रहेगी। व्यवहारिकता और यथार्थवादी विश्लेषक यह याद दिलाएँगे कि कैसे कन्हैया कुमार बड़े-बड़े सेलेब द्वारा उन्हें दिए गए समर्थन और चुनाव प्रचार के बावजूद गिरिराज सिंह से कितने मतों से हारे थे। दूसरी ओर आधुनिक राजनीतिक कला और अप्रत्यक्ष संपत्ति के पारखी यह बताएँगे कि कैसे कन्हैया कुमार के पास बोलने की कला और जेएनयू की डिग्री है और ऐसा कुछ है जो दिखाई भले न दे पर उन्हें लंबी रेस का नेता बनाता है। कई पारखी उन्हें पहले ही आज का मार्क्स बता चुके हैं। सोशल मीडिया युग में आधुनिक वैचारिक मतभेद का आलम यह है कि उनके विरोधी मार्क्स को अपने युग का कन्हैया कुमार बता चुके हैं। 

इस तरह की बहस के बीच जो प्रश्न खो जाएगा वह यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में एक कुशल नेता की कॉन्ग्रेसी खोज क्या कन्हैया कुमार तक ही जा सकती है?

कन्हैया कुमार कई वर्षों से अपनी मार्केटिंग के सबसे बड़े सेल्समैन हैं। जेएनयू में वर्षों तक रहने और अफ्रीकन स्टडीज में पीएचडी की डिग्री लेने के बावजूद वे ऐसी हिंदी बोलते हैं जिससे वे जमीन से जुड़े हुए लगें। उन्होंने कॉन्ग्रेस ज्वाइन करते समय यह बताया कि यदि कॉन्ग्रेस नहीं रहेगी तो यह देश नहीं रहेगा। उनके कहने का अर्थ यह कि वे दरअसल देश बचाने आए हैं, इस प्रक्रिया में कॉन्ग्रेस ज्वाइन करना तो महज एक संयोग है। साथ ही उन्होंने बताया कि कैसे उनके समर्थन देने के कारण लोगों की मित्रता और शादियाँ तक टूट गई।

राजनीतिक दल ज्वाइन करते समय कौन से नेता ने खुद की ऐसी मार्केटिंग की होगी? अपनी ऐसी विकट मार्केटिंग के पीछे शायद उनके मन में आत्मविश्वास की कमी एक कारण है और ऐसा लगता है जैसे वे कॉन्ग्रेस पार्टी में अपने प्रवेश को उचित ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, यह सोचते हुए कि लोगों के मन में उनकी योग्यता को लेकर सवाल होंगे। 

कन्हैया कुमार का कॉन्ग्रेस ज्वाइन करना मेरे लिए आश्चर्य व्यक्त करने वाली घटना नहीं है। मेरे विचार से इस समय वर्तमान भारतीय राजनीति के सेक्युलर दलों के बीच नेता एक्सचेंज प्रोग्राम चल रहा है। ऐसे नहीं कि केवल कन्हैया कुमार का ही ट्रांसफर हुआ है। पिछले ढाई-तीन वर्षों में ऐसे कई और लाइटवेट नेता कॉन्ग्रेस पार्टी से आम आदमी पार्टी, शिवसेना और तृणमूल कॉन्ग्रेस में गए हैं और यह एक वृहद सेक्युलर सहयोग का हिस्सा है। 

वर्तमान में कॉन्ग्रेस पार्टी घाटे वाले उस बैठ गए कॉर्पोरेट ग्रुप की तरह है जिसके प्रमोटर को अचानक एक दिन यह लगता है कि यदि हम कुछ करते हुए नहीं दिखे तो बैंक हमें और लोन नहीं देंगे। कुछ करते हुए दिखने की इस प्रक्रिया में प्रमोटर पैरेंट कंपनी के अफसर सब्सिडियरी कंपनी में ट्रांसफर करता है और सब्सिडियरी कंपनी के अफसर पैरेंट कंपनी में। साथ ही किसी प्रसिद्ध एनजीओ के सीईओ को बड़े तामझाम के साथ कंपनी में लाता है और कर्ज देने वाले बैंकों को बताता है कि देखिए हम पूरे ग्रुप की रिस्ट्रक्चरिंग कर रहे हैं और अब आप बस अगले तिमाही का रिजल्ट देखिएगा। 

कन्हैया कुमार पर कॉन्ग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व का भरोसा वर्षों से एक्टिविस्ट, एनजीओ, संपादक, पत्रकार, बुद्धिजीवी और आन्दोलनजीवी वगैरह पर उसके भरोसे का ही विस्तार है। इसमें नया कुछ नहीं है। यह पार्टी द्वारा अपनी राजनीतिक लड़ाई को आउटसोर्स करने का एक और उदाहरण है। आने वाले समय में कन्हैया कुमार और उनके ही और मित्रों को कॉन्ग्रेस ज्वाइन करते हुए देखेंगे। हर राजनीतिक दल का अपनी लड़ाई लड़ने का अलग-अलग तरीका होता है पर उसे आउटसोर्स करने का काम लोकतांत्रिक राजनीति के भारतीय मॉडल में फिट होने में काफी समय लगेगा। कॉन्ग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व जितनी जल्दी इस बात को स्वीकार कर लेगा, पार्टी के लिए राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक रहने की संभावना उतनी ही बढ़ेगी।