बाला साहेब के ‘आटे की बोरी’ में कैद हो गया उनका ही बेटा, ‘मातेश्री’ के तट पर अस्त हुआ ‘मातोश्री’ का सूरज

शरद पवार की नीति और नीयत में नहीं था बाल ठाकरे का भरोसा!

श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- ‘जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च…’। यानी, जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद जन्म भी। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है- “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः, न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः”। यानी, आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते। आग जला नहीं सकती। जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।

17 नवंबर 2012 को जब शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने अंतिम सॉंसे ली तो उन्होंने केवल शरीर त्यागा था। उनकी आत्मा ने तो साथ छोड़ा 26 नवंबर 2019 को। उस दिन जिस दिन मातोश्री में रहने वाले उनके बेटे ने 10 जनपथ की महारानी और सलमान खुर्शीद की ‘भारत माता’ सोनिया गॉंधी के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस तथा शरद पवार की एनसीपी की सदारत कबूल की। और वह भी केवल मुख्यमंत्री की उस कुर्सी के लिए जिस पर बाल ठाकरे अपनी मर्जी के शिवसैनिक को बिठा दिया करते थे।

आखिर आत्मा क्या थी बाल ठाकरे? बाल ठाकरे की आत्मा थी हिन्दुत्व की वह विचारधारा जिसके दम पर अपने चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में वे किसी के सामने नहीं झुके। लेकिन उनकी मौत के सात साल बाद उनके राजनीतिक वारिस ने इस विचार का किला इस कदर ढहा दिया है कि अब उसका मर्सिया पढ़ने वाला भी कोई नहीं बचा है। हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले बाल ठाकरे ने खुद का स्वभाविक उत्तराधिकारी माने जाने वाले भतीजे राज ठाकरे को किनारे लगाने और फोटोग्राफी के शौकीन बेटे उद्धव ठाकरे को जब राजनीतिक विरासत सौंपने का फैसला किया होगा, तो उन्हें उम्मीद रही होगी कि वह हिन्दुत्व की राजनीति को नए कैनवास पर उकेरेगा। यह तो सोचा भी न होगा कि उनके शरीर त्यागने के सात साल के भीतर ही वह उसकी अंत्येष्टि कर देगा।

वैसे, राजनीति में बेमेल गठजोड़ कोई नई बात नहीं है। ​अपने जिस साझेदार को झटक कर शिवसेना ने एनसीपी और कॉन्ग्रेस से हाथ मिलाया है, वह भी कई बेमेल गठबंधन की भागीदार रही है। चाहे वह आपातकाल के जमाने में जनता पार्टी में जनसंघ का विलय हो या फिर वीपी सिंह की सरकार को समर्थन। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार चलाने का प्रयोग हो या फिर यूपी में मायावती के साथ सत्ता शेयरिंग का फॉर्मूला। लेकिन, देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों और समय की मॉंग को देख ये प्रयोग करते वक्त भाजपा ने कभी अपने मूल सिद्धांत से समझौता नहीं किया। पहचान का संकट खड़ा हुआ तो वह जनता पार्टी से निकल गई। राम मंदिर की राह में वीपी सिंह और उनके शागिर्द रोड़ा बनने लगे तो उस सरकार को भी झटक ​दिया। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई नरम होती दिखी तो पीडीपी से नाता तोड़ लिया। यहॉं तक कि एनडीए की गठबंधन सरकार चलाते वक्त भले कॉमन एजेंडे में राम मंदिर, आर्टिकल 370 और सामान नागरिक संहिता नहीं थे, फिर भी कभी इनसे कन्नी नहीं काटी। भाजपा लगातार इन मुद्दों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रही।

लिहाजा, सत्ता के लिए शिवसेना के इस प्रयोग में कुछ भी नयापन नहीं है। नयापन तो उस तरीके में है जिसके सहारे उसने यह गठजोड़ कायम किया है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सरकार बनने से पहले ही शिवसेना ने अपने मूल एजेंडे को छोड़ दिया है। एनसीपी और कॉन्ग्रेस के साथ मिलकर उसने जो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार किया है, वह कहता है कि समुदाय विशेष को 5 फीसदी अतिरिक्त आरक्षण दिया जाएगा। उसके मुताबिक शिवसेना वीर सावरकर के लिए भारत रत्न नहीं मॉंगेगी। यानी, सत्ता पाने की कीमत चुकाने के लिए उसने हिन्दुत्व की अपनी कोर राजनीति को ही गिरवी रख दिया है, जैसा भाजपा ने अपने तमाम प्रयोगों के दौरान कभी नहीं किया।

यही कारण है कि अब नए साथी शिवसेना के हिन्दुत्व को खुलेआम सांप्रदायिक बता रहे हैं। जरा एनसीपी प्रवक्ता नवाब मलिक के इस बयान पर गौर कीजिए। बकौल मलिक, “शिवसेना का जन्‍म सांप्रदायिक राजनीति के लिए नहीं हुआ है। वे महाराष्‍ट्र की जनता की सेवा के लिए अस्तित्‍व में आए हैं। बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के बाद शिवसेना बिगड़ गई।” मलिक का यह बयान उद्धव ठाकरे के महा विकास अघाड़ी (शिवसेना-कॉन्ग्रेस-एनसीपी) का नेता चुने जाने के बाद आया।

शिवसेना के इस पतन की दो बड़ी वजहें हैं। पहला, सत्ता की लालसा। दूसरा, पुत्रमोह। यह पुत्रमोह ही था जिसके फँदे में फँसकर बाल ठाकरे ने शिवसेना की बागडोर उद्धव को सौंपी थी। लेकिन, सत्ता की लालसा उन्होंने कभी नहीं दिखाई। मराठी अस्मिता के नाम पर राष्ट्रपति चुनाव में भले कॉन्ग्रेस की प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया लेकिन कभी उसकी सत्ता के सामने नहीं झुके। यही उनकी पूँजी थी और कमाई भी।

1966 में शिवसेना बनाने के बाद से बाल ठाकरे करीब 46 साल राजनीति में रहे। कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा। कभी मुख्यमंत्री नहीं बने। न सांसद, न विधायक और न पार्षद ही बनना चाहा। जीवनभर ठसक के साथ हिंदू और सावरकर के नाम की राजनीति की। विरोधियों को हड़काते रहे, लेकिन कोर एजेंडे से कभी समझौता नहीं किया। किसी के सामने नहीं झुके। तब भी नहीं जब मतदान का अधिकार छीन लिया गया। फिर भी जब शरीर त्यागा तो मुंबई थम गई। वह मुंबई जो कभी रुकती नहीं। उसी तरह राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हुआ, जैसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद पर रहे लोगों का होता है।

बाल ठाकरे के निधन के बाद नितिन गडकरी ने कहा था, ‘हिंदुत्व का विचार उनका हुँकार था’। मौत के 7 साल बाद उद्धव ठाकरे ने उस हुँकार को चीत्कार में बदल दिया है। बदले में मिली सीएम की कुर्सी, जिसकी बाल ठाकरे कभी रिमोट अपने पास रखते थे। यही रिमोट उद्धव ने उस शरद पवार को सौंप दी है, जिसे बाल ठाकरे ‘आटे की बोरी’ कहा करते थे। ‘आटे की बोरी’ में बेटा कैद भी बाला साहेब के नाम की दुहाई देकर ही हुआ है। पहले बेटे ने यह दावा कर कि ‘उसने पिता से शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था’, बीजेपी से नाता तोड़ा। फिर अघाड़ी का नेता चुने जाने के बाद कहा, “कभी सोचा नहीं था कि मैं सीएम बनूॅंगा। संघर्ष के समय बालासाहेब की बहुत याद आती है।” सो, सीएम के लिए बाला साहेब के बेटे के चुने जाने के बाद भी मुंबई के ट्राइडेंट होटल के भीतर-बाहर जयकारे शरदराव के लग रहे। 28 नवंबर को यही शोर शिवाजी पार्क में भी सुनाई पड़े तो चौंकिएगा मत।

शायद इसलिए गीतकार इंदीवर लिख कर गए हैं;

कसमे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या
होगा मसीहा सामने तेरे फिर भी न तू बच पाएगा
तेरा अपना खून ही आखिर तुझको आग लगाएगा

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया