कोरोना काल में पत्र लेखन प्रधान राजनीतिक चालें और विरोध की संस्कृति

विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को लिखा पत्र

विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री को एक और पत्र लिखकर पत्र लेखन प्रधान राजनीति को आगे बढ़ा दिया गया। लोकतांत्रिक व्यवस्था का यही आधार है कि विपक्ष अपनी ओर से प्रशासन और व्यवस्था की एक वैकल्पिक योजना नागरिकों के सामने रखे।  इससे पहले उद्धव ठाकरे, भूपेश बघेल और ममता बनर्जी चीनी वायरस से फैले संक्रमण के विरुद्ध लड़ने को लेकर पत्र लिख चुके थे जिसमें क्रमशः कोविड को प्राकृतिक आपदा घोषित करने से लेकर टीकाकरण में कमजोर, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण और पश्चिम बंगाल में उत्पादित ऑक्सीजन पर पश्चिम बंगाल का पहला अधिकार होने जैसी माँगें थीं। डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री को पहले ही पत्र लिख चुके हैं जिसका उत्तर स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने दिया था।

तीसरे चरण के टीकाकरण की घोषणा, कोविड से लड़ाई में राजनीतिक दखल का अलग ही रूप

जबसे तीसरे चरण के टीकाकरण की घोषणा हुई है, कोविड के विरुद्ध देश की लड़ाई में राजनीतिक दखल ने एक अलग ही रूप ले लिया है। राज्यों द्वारा टीका बनाने वाली कंपनियों को दिया जाने वाला ऑर्डर, टीके का मूल्य, टीके में किसी वर्ग को आरक्षण, विदेशी टीकों के आयात को लेकर माँगें या फिर कांग्रेस शासित राज्यों द्वारा एक मई से तीसरे चरण का अभियान शुरू न करने को लेकर घोषणा, लगभग हर बात में राजनीति साफ झलकती रही है। सत्ता में वापसी के बाद ममता बनर्जी केंद्र सरकार की नीतियों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहले ही जा चुकी हैं।  

दूसरी ओर टीका बनाने वाली कंपनियों को ऑर्डर देने की बात हो या तीसरे चरण के टीकाकरण अभियान की शुरुआत, भाजपा शासित राज्यों की ओर से कोई शिकायत नहीं आई। इस मामले में केंद्र सरकार और इन राज्यों के बीच एक न्यूनतम तालमेल बना हुआ है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि केंद्र विरोधी हर मुख्यमंत्री अपने पत्र में यह लिखना नहीं भूलता/भूलती कि महामारी की इस विकट स्थिति से निकलने के लिए सबको मिलकर काम करने की आवश्यकता है।

यह कैसा मिलकर काम करना है कि इसकी आवश्यकता पर जोर देने वाले पत्र लिखने के साथ-साथ न्यायालय भी चले जाते हैं। एक विडंबना और है कि इन्हीं विपक्षी नेताओं ने देश में बनने वाली जिन वैक्सीन के खिलाफ बार-बार बयान देकर जनता के मन में भ्रम पैदा किया, वही अब जनता के लिए उन्हीं वैक्सीन को जल्द से जल्द देने के इंतजाम को लेकर खुद चिंतित हैं पर सब कुछ केंद्र से करवाना चाहते हैं।  

जिन माँगों को लेकर अब बारह दलों के नेताओं ने पत्र लिखा है उनमें से कुछ माँगें पहले भी उठाई गई हैं। दरअसल ममता बनर्जी मुख्यतः जिन दो माँगों को लेकर उच्चतम न्यायालय गई हैं, जिनमें एक; सबको मुफ्त टीका देने की माँग और दूसरी; यूनिवर्सल वैक्सीनेशन की माँग भी इस पत्र में है। उसके अलावा मुख्यतः यह माँग उठाई गई है कि टीकाकरण से संबंधित सारी योजना केंद्र अपने हाथ में ले।

यह वही विपक्ष है जो अभी कुछ माह पूर्व ही केंद्र सरकार की आलोचना इस बात के लिए कर रहा था कि कोविड से लड़ने में केंद्र ने राज्यों को स्वतंत्रता नहीं दी है। कि ऐसी स्वतंत्रता न रहने की वजह से ही राज्य अपने अनुसार नियम और योजनाएँ नहीं बना पा रहे। यही विपक्ष अपनी सरकारों के लिए केंद्र से अधिकार माँग रहा था। यह और बात है कि जब केंद्र द्वारा यह स्वतंत्रता मिल गई तो राज्यों का प्रदर्शन कैसा रहा, वह पूरे देश ने देखा।

दरअसल विपक्ष यह चाहता है कि उसके द्वारा चलाई जा रही राज्य सरकारों को अधिकार तो मिले पर उन्हें किसी बात के जिम्मेदार न बनाया जाए। लगता है जैसे टीके की खरीद, उसका मूल्य और योजना के अनुसार टीकाकरण चलाने की बात पर विपक्ष शासित राज्य खुद पर विश्वास नहीं कर पा रहे और फिर से यह जिम्मेदारी केंद्र पर डालना चाहते हैं। इन विपक्षी नेताओं ने अपने पत्र में लिखा कि वे केंद्र सरकार की नीतियों और गलतियों की चर्चा विस्तार में नहीं करना चाहते। दरअसल वे विस्तार में ऐसी कोई चर्चा करने लायक होते तो अवश्य करते। यह विश्वास करने योग्य बात नहीं कि जो विपक्ष बिना बात के प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार की आलोचना करता है या उन्हें नीचा दिखाना चाहता है वह उन्हें लज्जित करने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने देगा।

पत्र में एक और माँग सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को लेकर उठाई गई है और कहा गया है कि सरकार इस प्रोजेक्ट को तुरंत रोके और उसमें लगने वाले पैसे को यूनिवर्सल वैक्सीनेशन प्रोग्राम में लगाए। इस प्रोजेक्ट को रोकने की माँग बार-बार अलग-अलग मंचों पर उठाई जा रही है और इस माँग को आगे रखकर एक नैरेटिव बनाने की कोशिश की जा रही है कि; सरकार के पास कोविड से लड़ने के पैसे नहीं है और यह जबरदस्ती ऐसा प्रोजेक्ट लेकर आगे बढ़ रही है। 

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को रोकने की यह माँग मीडिया की ओर से उठी थी और अब इसे विपक्षी नेताओं के पत्र में भी जगह मिल रही है। जबकि सरकार इस प्रोजेक्ट को इसलिए नहीं रोकना चाहती क्योंकि उसका मानना है कि समय पर प्रोजेक्ट करना सरकारी काम का हिस्सा होना चाहिए। इसके अलावा उसका मानना है कि इससे किराए के मद में होने वाले सरकारी खर्च में प्रतिवर्ष कमी आएगी। मोदी सरकार आने से पहले सरकारी योजनाओं को समय पर पूरा न करना सरकारी कार्य प्रणाली का एक अहम् हिस्सा था और यह बताने की जरूरत नहीं कि पत्र लिखने वाले ये नेता उन सरकारों को चलाते थे, जिन सरकारों की कार्य संस्कृति इस सोच से संक्रमित थी।  

यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि क्या देश में और परियोजनाएँ रुक गई हैं? जब महामारी के चलते अर्थव्यवस्था अच्छा न कर रही हो तो इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रोजेक्ट रोकना कहाँ तक तार्किक है? बुद्धिजीवियों से भरे विपक्ष के लिए यह समझना क्या इतना ही मुश्किल है कि वह पत्र लिखकर इस तरह के प्रोजेक्ट को रोकने की माँग कर दे? और माँगों में एक माँग है बेरोजगारों को 6000 प्रति महीने मिले, जो शायद राहुल गाँधी के न्याय योजना से प्रेरित है और शायद इस आशा से उठाई गई है कि कहीं सरकार इस माँग को मान ही ले तो कान्ग्रेस पार्टी के लिए राहुल गाँधी को अपना अध्यक्ष घोषित करने में सुभीता हो जाएगा। 

वैसे विपक्षी नेताओं के इस पत्र पर विपक्ष के विपक्ष की और से कपिल सिबल की प्रतिक्रिया आई जो काफी हद तक तार्किक लगी कि यह समय राजनीति करने का नहीं है। यह समय ऐसा है जिसमें सबको मिलकर इस महामारी को हराना है। किसकी गलती थी और किसकी सही, इसकी चर्चा महामारी पर जीत के बाद कर लेंगे। ऐसा शायद केवल कपिल सिबल ही नहीं, एक आम भारतीय भी सोच रहा है।