बंगाल-बिहार-तमिल-मराठी… सबकी आग में पूरे भारत को झोंकना चाहते हैं राहुल गाँधी, कहाँ से आई इतनी नफरत?

राहुल गाँधी की बेसिरपैर वाली राजनीति (फोटो साभार: 'वेलकम' मूवी का एक सीन और ANI)

बिहार में एक नेता हुआ करते थे। लोग उसे लालू यादव के नाम से जानते हैं। अब वो अपराधी है। सजायाफ्ता कैदी भी। अपनी नेतागिरी के दिनों में वो जात-पात की बात करते थे। भाषणों में अगड़े-पिछड़े की बात से तालियाँ बटोरते थे। रैलियों में लाठी से दम ठोकते थे। ‘भूरा बाल साफ करो’ की न सिर्फ बात करते थे बल्कि सरकारी नौकरियों-नियुक्तियों में भूमिहार-राजपूत-ब्राह्मण-लाला (कायस्थ) लोगों से भेदभाव की लकीर भी खींच दी गई थी।

नतीजा क्या हुआ? बिहार दशकों पीछे चला गया। कभी दलहन-तिलहन का कटोरा कहा जाने वाला राज्य पलायन की मार झेलने लगा। अभी तक झेल रहा। कभी चीनी और राइस मिल जिसकी पहचान थे, वहीं के लोग अब दूसरे राज्यों में मजदूरी करने को विवश हैं। ग्लोबल ब्रांड वाली मॉर्टन टॉफी और कुकीज़ कभी बिहार में ही बनकर विदेशियों तक के दिलों पर राज करती थी। अब क्या हुआ उस बिहार को? जो कभी अस्मिता हुआ करती थी, अब वही गाली बन चुकी है।

उस नेता लालू का इन सबसे और इस पूरे प्रकरण में क्या बिगड़ा? क्या उसका परिवार पलायन करके किसी और राज्य में गया रोजी-रोटी के लिए? क्या उसके बेटे को ‘बिहारी’ कह कर गाली देने की किसी में हिम्मत है? क्या जब लालू यादव अपराधी साबित हुआ तो जिस परिवेश से उठ कर वो सीएम की कुर्सी तक आया था, उसी चपरासी क्वॉर्टर में लौट गए उसके बीवी-बच्चे? नहीं।

जिस राजनीति की सीढ़ी चढ़ लालू यादव ने सत्ता की कुर्सी पर कब्जा जमाया, उससे वो खुद और साथ में उसका परिवार अभी तक मलाई चाट रहा। कोई भुगत रहा तो वो है पूरा बिहारी समाज।

राहुल मतलब आग-लगावन राजनीति

बिहार में लालू ने जो किया, देश भर में वही जहर राहुल गाँधी घोल रहे। जात-पात, अगड़े-पिछड़े की बात कर रहे। वो ऐसा कर रहे, क्योंकि उनको देश के सबसे मलाईदार सत्ता सर्कल मतलब लुटियंस दिल्ली में एक सरकारी बंगले की जरूरत है। वो बखूबी जानते हैं कि केंद्रीय सत्ता तो मिलने से रही, ऐसे में कॉन्ग्रेस का प्रिंस बने रहने के लिए किसी भी तरीके से सांसदी बची रहे और एक बंगला मिल जाए। इसमें उनका फायदा स्पष्ट है। स्पष्ट यह भी है कि बिहार की तरह नुकसान उठाएगा वोटर, वो भी दशकों तक।

राहुल गाँधी की संक्रमणकारी और जहरीली राजनीति को समझना है तो एक शब्द को समझना होगा – नक्सलबाड़ी। बिहार से ज्यादा दूर नहीं है। अभी जिस राज्य पर ममता बनर्जी का कब्जा है, वहीं है यह गाँव। इस गाँव से फैला संक्रमण इतना खतरनाक है कि क्या हिंदी क्या अंग्रेजी… वामपंथ की हत्यारी विचारधारा का नाम ही इसके नाम पर पड़ गया।

नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ खूनी खेल अब तक देश के छिटपुट हिस्सों में खेला जा रहा। तमाम खर्चे और सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिल कर काम करने की रणनीति के बावजूद नक्सल नाम के इस नासूर को अब तक जड़ से उखाड़ा नहीं जा सका। ‘मैं तुम्हें बंदूक दूँगा, उसको मार दो’ के बजाय इसकी शुरुआत हुई थी ‘अत्याचारी-पीड़ित’ का बीज बोकर। नतीजा इतना भयावह है कि आज वही तथाकथित पीड़ित अपने ही बच्चों के स्कूल तक को बम से उड़ा देता है। अपने ही समाज के भाई-दोस्त को ‘मुखबिर’ कह कर गला काट देता है।

जो काम कल ‘दिमागी वामपंथियों’ ने किया था, वही आज राहुल गाँधी कर रहे। किसानों को पीड़ित बता रहे, उद्योगपतियों को अत्याचारी, छोटे व्यापारी बनाम सरकारी जीएसटी, कंपनियों को कामगारों का शोषक आदि-इत्यादि वाक्यांश गढ़ कर वो बीज बो रहे हैं खूनी खेल का। इतना तय है कि दिमागी वामपंथियों की तरह वो भी सिर्फ इसकी मलाई चाभेंगे, खुद इस खूनी खेल का हिस्सा नहीं बनेंगे। जो उनके षड्यंत्र में फँसेंगे, वो मरेंगे, उनका परिवार दुख-दर्द भोगेगा।

दादी इंदिरा गाँधी का जिक्र हमेशा करते हैं कॉन्ग्रेस के प्रिंस। अफसोस कि उनसे सीख नहीं ले पाए कुछ भी। यह इंदिरा ही थीं जिनके समय में तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी स्वर बुलंद हुआ था। नतीजा देश को भी पता है और कॉन्ग्रेस को भी। भारत के दक्षिणी हिस्से में कॉन्ग्रेस न सिर्फ कमजोर हुई बल्कि क्षेत्रिय पार्टियाँ भी अपने-अपने इलाकों में पनपी। अगर इतना सब कुछ जानते राहुल गाँधी तो अमूल-नंदिनी विवाद पैदा नहीं करते।

एक राज्य को दूसरे राज्य से लड़ा दो, एक कंपनी को दूसरी कंपनी के खिलाफ भड़का दो… राहुल गाँधी को लगता है कि इससे उनके 2-4 वोट बढ़ जाएँगे। अपने सहयोगी ठाकरे का राजनीतिक पतन देख कर भी उन्हें समझ नहीं आया। वैसे समझ जाते तो राहुल गाँधी के लिए एक विशेष नाम का प्रयोग सोशल मीडिया पर देश की जनता क्यों करती भला! जिस मराठा राजनीति के दम पर ठाकरे परिवार पैदा हुआ, उसी महाराष्ट्र में आज उसका नाम-निशान दोनों खत्म हो चुका है।

बंगला और कुर्सी: राहुल गाँधी का एक्के मकसद

देश में कितनी जाति के लोग रहते हैं? इन जातियों का जनसंख्या में प्रतिशत कितना है? पिछड़े लोगों की कितनी आबादी है? किस जाति के कितने लोग IAS/IPS/डॉक्टर/इंजीनियर हैं? मीडिया में कौन जाति वाला मालिक है, कौन नौकरी कर रहा? मराठी लोगों की नौकरियाँ गुजरातियों को क्यों? गुजराती दूध-दही कर्नाटक में क्यों? गरीब लोगों के साथ 24 घंटे अन्याय क्यों होता है? किसान के खिलाफ अन्याय कौन रहा है? भारत की जल-जंगल-जमीन पर जिन आदिवासियों का सबसे पहला हक है, उन पर अत्याचार करने वाले कौन हैं?

हाल-फिलहाल ऊपर की लिखी एक भी लाइन अगर आपने कहीं पढ़ी-सुनी-देखी है तो उसे आँख मूँद कर राहुल गाँधी से जोड़ लीजिए। कब कहा, कहाँ कहा, किसको टारगेट करके कहा… इन सब तथ्यों को खोजने की जरूरत नहीं। जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि राहुल गाँधी के अलावा ऐसी घिसी-पिटी, समाज को तोड़ने वाली बात इस देश में और कोई नेता कर नहीं रहा।

आज की पीढ़ी वाले जिन नेताओं के बाप-दादा ने समाज में जहर घोला था, अपने-अपने हिस्से में आग लगाई/लगवाई थी, उसी के दम पर क्षेत्रिय राजनीति पर कब्जा किया था… वो भी आज नौकरी/रोजगार/कमाई/विकास आदि की बात कर रहे। इनसे उलट राहुल गाँधी समाज के हर एक तबके को भड़काने का काम कर रहे हैं क्योंकि उनको लगने लगा है कि वो देश के ‘प्रिंस’ हैं। उनके परदादा-दादी-पिता ने देश के लिए ‘बलिदान’ दिया, इसलिए देश पर पहला हक उनका है।

राहुल गाँधी बस यह भूल जाते हैं कि भले उनके पूर्वजों ने पीएम की कुर्सी संभाली है, लेकिन इसके बदले उन्हें सैलरी/सुविधाएँ मिलती थीं। पीएम की कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति देश पर अहसान करता है, अभी तक वो इसी भुलावे में जी रहे हैं। और अगर मौत/हत्या वाले तर्क पर पीएम की कुर्सी मिलने का अधिकार जताने का राग अलापा जाए तो न जाने कितने डॉक्टर-इंजीनियर-IAS-IPS आदि भी नौकरी करते हुए मरे/मारे गए। तो क्या उनके बच्चे भी इन सरकारी पदों को अपनी बपौती समझने लगें?

राहुल गाँधी अब तक सिर्फ गलत ही किए, कर रहे हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। जिन मुद्दों पर उन्होंने समाज में अभी तक जहर नहीं घोला है, उसके लिए उनकी जय-जयकार। ओवैसी और बाकी कट्टरपंथी मुस्लिम नेता देश की सेना और पुलिस में किस मजहब/धर्म/पंथ के कितने लोग हैं, ऐसा सवाल पूछते रहते हैं। राहुल गाँधी ने अभी तक यह नहीं किया है। इस पर उनके लिए ताली तो बनती है। 

‘नहीं किया है’ और ‘नहीं करेंगे’ में हालाँकि धागे भर का फर्क है। अभी उनकी माँ सोनिया गाँधी स्वास्थ्य कारणों से राज्यसभा के रास्ते सांसदी बचाने निकल पड़ी हैं। वजह वही है – सरकारी बंगला। 2024 लोकसभा चुनाव के बाद जिस दिन राहुल गाँधी को यह लगा कि वो अब कॉन्ग्रेस में भी प्रिंस के लायक नहीं… उसी दिन वो जात-पात-अगड़ा-पिछड़ा वाले पतन के रास्ते पर और नीचे गिरेंगे। मुस्लिम-सिख-ईसाई सबको अपने जहर से लुभाएँगे। स्पष्ट है कि तब भी फायदा उनको ही होगा, दशकों तक कोई झेलेगा तो वो होगा सिर्फ और सिर्फ वोटर। 

राहुल गाँधी न तो पहले हैं, ना ही आखिरी होंगे। तमाम ऐसे नेताओं के नाम आपको याद होंगे, जो कहलाते तो ‘जनता के सेवक’ हैं, लेकिन एक उम्र के बाद लोकतंत्र में उनकी सेवा सासंद वाली एक कुर्सी और दिल्ली में एक बंगला कब्जाने के अलावा कुछ और नहीं रही। ‘प्रिंस’ राहुल गाँधी की राजनीति भी आज महज एक कुर्सी और बंगले को बचाकर रखने तक सिमट गई है।

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