कौन खा गए बिहार के गाँव-गाँव के रोजगार, कारीगरों को मजदूर बनाने में किसका फायदा: कॉन्ग्रेस+लालू+नीतीश की कोख से उपजा है ये पलायन

कबाड़ बन चुका है लोहट का चीनी मिल (फोटो साभार: @MaithilAnup)

बिहार से पलायन की मजबूरी गाहे-बगाहे ही चर्चा में आता है। अभी तमिलनाडु में बिहार के श्रमिकों के साथ कथित हिंसा के बाद इस मुद्दे पर बात हो रही है। इससे पहले कोरोना लॉकडाउन के समय जब किसी तरह अपने घर पहुँचने की होड़ लगी थी, तब यह मुद्दा गरम हुआ था। वैसे गाहे-बगाहे होने वाली इन चर्चाओं का जमीन पर कोई असर नहीं होता है। यदि होता तो बिहार के लोग मजदूर बन पलायन को अभिशप्त नहीं होते।

2020 के विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसकी वजह एक तरह से बिहार में समुद्र के न होने को बता दिया था। उन्होंने कहा था कि बड़े उद्योग उन राज्यों में लगते हैं जो समुद्र किनारे होते हैं। उसी समय राजद नेता और बिहार के वर्तमान उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपनी सरकार बनने पर पहली कैबिनेट बैठक में 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था। अगस्त 2022 से चच्चा-भतीजा की जोड़ी बिहार की सत्ता में बैठी है, कई कैबिनेट बैठक हो चुकी है, पर 10 लाख नौकरी देने की शुरुआत तक न हुई है। यह दूसरी बात है कि इसी बीच नौकरी माँगने, नियमित किए जाने को लेकर प्रदर्शन करने वाले लोगों को बिहार पुलिस दौड़ा-दौड़ाकर पीट चुकी है। हाल ही में चच्चा-भतीजा ने इस 10 लाख ‘सरकारी नौकरी’ को 10 लाख ‘रोजगार’ पैदा करने से जोड़ दिया है।

सवाल है कि क्या बिहार से पलायन करने की मजबूरी को रोकने का इलाज सरकारी नौकरी ही है? बड़े कल-कारखाने ही हैं? क्या बड़ी इंडस्ट्रियों के बगैर राज्य में रोजगार का सृजन नहीं हो सकता? क्या विशेष राज्य के दर्जे या केंद्रीय पैकेज के बिना राज्य में बदलाव संभव नहीं है?

बिहार का गया भीड़भाड़ वाला शहर है। इसी शहर से करीब 28 किमी दूर केनार चट्टी है। कभी यह जगह कांसा और पीतल बर्तन निर्माण के लिए जाना जाता था। बिहार के अलग-अलग हिस्सों से लेकर, आसपास के राज्यों, यहाँ तक कि नेपाल से भी कारोबारियों का केनार चट्टी आना लगा रहता था। यहाँ के 50 परिवार सीधे तौर पर बर्तन निर्माण के काम से जुड़े थे। आज यह सिमटकर 5 घरों तक पहुँच गया है। शेष परिवार के लोग या तो फेरी लगाते हैं या कारीगर से मजदूर बन गए हैं। जो परिवार अभी भी इस काम से जुड़े हैं, उनके घर के भी कुछेक सदस्य अब मजदूरी के लिए पलायन कर चुके हैं।

2020 में जब मैं केनार चट्टी गया था तो 60 साल के राजमोहन कसेरा ने बताया था, “जब से मैं होश सँभाला हूँ सरकार से कोई फायदा नहीं हुआ है। बहुत से विधायक आए। फोटो ले गए। आश्वासन देकर गए आपका उद्योग बढ़ाएँगे। लेकिन फिर लौटकर नहीं आए। इससे हमलोगों का आशा टूट गया तो हमलोग दूसरा-दूसरा रोजगार करना शुरू कर​ दिए। पेट चलाने के लिए करना पड़ता है न। सरकारी मदद मिल जाए तो पहले 50 परिवार जो ये काम करते थे उनका दिन बदल जाएगा।”

2023 में भी केनार चट्टी की किस्मत नहीं बदली है, जबकि 2020 के विधानसभा चुनावों में पलायन रोकने को लेकर बड़े-बड़े वादे हुए थे। इसकी वजह यह थी कि कोरोना की वजह से घर लौटे प्रवासी श्रमिक बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए राज्य में मौजूद थे। कोरोना से जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था उबरी वे फिर से अपना घर छोड़ देश के अलग-अलग हिस्सों में जा चुके हैं। आज आप गाँवों में जाएँ तो पाएँगे कि अमूमन वे पुरुष ही रह गए हैं जो वृद्ध हैं या कुछ भी करने में असमर्थ।

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यह केवल एक केनार चट्टी की कहानी नहीं है। बिहार के ​हर हिस्से का कभी इसी तरह अपना उद्योग था। इनमें से ज्यादातर उद्योग कृषि आधारित थे। इसकी वजह से किसानों के लिए खेती आज की तरह घाटे का सौदा नहीं थी। साथ ही मजबूरी में दूसरे राज्यों में पलायन ही एकमात्र विकल्प नहीं था।

दरभंगा में इम्पल्स कोटा नाम से शिक्षण संस्थान चलाने वाले राजेश झा कहते हैं, “1951 में पूरे देश मे 6982 रजिस्टर्ड फैक्ट्री थी। इनमें से 455 बि​हार में थी। यानी पूरे भारत की 6.51% रजिस्टर्ड फैक्ट्री अकेले बिहार में थी। आजादी के बाद पूरे देश में 56 चीनी मिल थी। इनमें 33 बिहार में थी। इन चीनी मिलों में सकरी, रैयाम, लोहट में निर्मित चीनी एक्सपोर्ट क्वालिटी में सबसे बेहतरीन थी। चीनी मिल से मिल रहे रोज़गार का प्रतिशत 29.50% था। इसके कारण पलायन की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी।”

जगदीश चंद्र झा ने Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है कि बेहतर अर्थ लाभ के लिए मैथिल हमेशा से देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं। हालाँकि तब और अब के पलायन में एक मोटा फर्क है। तब लोग जड़ों की ओर लौटते वक्त अमूमन अपने साथ कृषि की नई तकनीक, स्वस्थ जीवन जीने के तरीके, घरेलू उद्योग लगाने के गुर सीख कर आते थे। इसकी वजह से पुराने वक्त में बिहार में पलायन के साथ उद्योग फल-फूल भी रहा था। मसलन, मधुबनी में मलमल, दुलालगंज में सस्ते कपड़ों और किशनगंज में कागज का उद्योग चला। दरभंगा हाथी दाँत से बने सामान का प्रमुख उत्पादन केंद्र बना। खगड़िया, किशनगंज जैसे इलाके पीतल, कांसे के बर्तन के लिए जाने जाते थे। भागलपुर सिल्क तो मुंगेर घोड़े की नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था। पूर्णिया सिंदूर उत्पादन और निर्यात के साथ टेंट हाउस के सामान बनाने के लिए प्रसिद्ध था।

इसके अलावा चीनी मिल, वस्त्र, जूट, तंबाकू, दाल मिल, आटा चक्की मिलें, तेल मिल वगैरह के साथ-साथ स्वतंत्र भारत में कई सार्वजनिक उपक्रम भी राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लगे। निजी क्षेत्र में रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड (डालमिया नगर), अशोक पेपर मिल (दरभंगा), हिन्द इंजीनियरिंग कम्पनी (बरौनी) जैसे कई बड़े नाम थे। बरौनी में 1946 में खाद कारखाना स्थापित किया गया। फिर यहीं तेल शोधक कारखाना भी लगा। मुंगेर के जमालपुर में रेलवे वर्कशाप तो मोकामा में भारत वैगन एवं इंजीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड शुरू किया गया। बिहार से अलग होकर बने झारखंड वाले हिस्से की पहचान ही उद्योगों और खनिजों से थी। अलग-अलग शहर अलग-अलग कामों के लिए जाने जाते थे। मसलन;

लाख उद्योग: गया, पूर्णिया
तेल मिल: पटना, मुंगेर, शाहाबाद
कागज व लुग्दी उद्योग: डालमिया नगर, समस्तीपुर, दरभंगा, पटना, बरौनी
प्लाईवुड: हाजीपुर
चमड़ा उद्योग: गया, दीघा, मोकामा
सीमेंट उद्योग: डालमिया नगर, खेलारी
तंबाकू उद्योग: मुंगेर, बक्सर, गया, आरा
शराब कारखाना: मुंगेर, पटना, मानपुर, पंचरूखी
शीशा उद्योग: पटना
बंदूक उद्योग: मुंगेर
बटन उद्योग: दलसिंहसराय
दियासलाई: कटिहार
कंबल उद्योग: गया, पूर्णिया, औरंगाबाद, मोतिहारी
बीड़ी उद्योग: बिहारशरीफ, झाझा, जमुई
हथकरघा उद्योग: मधुबनी, भागलपुर, बिहारशरीफ, गया, पटना, मुंगेर
बर्तन उद्योग: सीवान, बिहटा

आज इनमें से किसी भी स्थानीय उद्योग का नाम नहीं बचा है। कल-कारखाने खंडहर बन चुके हैं। जो कभी कारीगर थे वे आज मजदूर हैं। अपने घर से दूर हैं। समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में उनको टारगेट करने की खबरें भी आती रहती हैं।

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यह सच है कि इस स्थिति के लिए कोई एक जिम्मेदार नहीं है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में मजबूरी में पलायन की जो तेजी बिहार ने देखी है, उसकी जिम्मेदारी सीधे तौर पर कॉन्ग्रेस, लालू यादव के जंगलराज और नीतीश कुमार के कथित सुशासन की ही है।

जब कॉन्ग्रेस का केंद्र से लेकर राज्य तक एकछत्र राज्य था, उसने इन उद्योग-धंधों की उपेक्षा की। ऐसे कानून बनाए जो बिहार के खनिज संसाधनों का इस्तेमाल कर बाहर उद्योग लगाने को उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करते थे। जंगलराज लाने वाले लालू प्रसाद याद सत्ता में आए तो उन्होंने खुलकर कहना शुरू किया कि विकास उनका एजेंडा नहीं है। उनका एजेंडा सोशल जस्टिस है। इससे विकास की दौड़ में बिहार करीब-करीब ठहर सा गया। पुराने उद्योग-धंधे एक-एक कर उजड़ गए। नीतीश कुमार के आने के बाद विकास की बातें तो खूब हुई है, लेकिन रोजगार के मौके पैदा नहीं किए गए। भले वे सत्ता में बीजेपी के साथ रहे या फिर राजद और अन्य दलों के साथ।

नॉर्वे में चिकित्सक और गिरमिटिया मजदूरों पर आधारित किताब ‘कुली लाइन्स’ के लेखक प्रवीण झा ने 2020 में ऑपइंडिया से बातचीत में कहा था, “पलायन को यदि प्रवास कहें तो यह अवसर है। यही कारण है कि भारत के समृद्ध राज्यों (गुजरात और पंजाब) से भी प्रवास होता रहा है। विदेशी धन का संचार उन्हें समृद्ध करता रहा है। इसे विस्थापन में ‘पुल फैक्टर’ कहते हैं। यानी, जब आप बेहतर अवसर के लिए किसी स्थान पर जाते हैं। लेकिन पलायन शब्द तब संताप से जुड़ जाता है जब इसमें ‘पुल फैक्टर’ से अधिक ‘पुश फैक्टर’ की भूमिका होती है। बिहार से पलायन का बड़ा कारण ‘पुश फैक्टर’ है। इसी पलायन की वजह स्थानीय उद्योगों का बंद होना और जंगलराज रहा है।”

पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य और समाजशास्त्री नवल किशोर चौधरी इसकी वजहें सामाजिक और आर्थिक दोनों मानते रहे हैं। उनके अनुसार बिहार से पलायन ने इन वजहों से जोर पकड़ा;

  • 90 के दशक में बिहार ने जातीय हिंसा का भीषण दौर देखा है। प्रभावित इलाकों के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग वर्ग का सामूहिक पलायन हुआ।
  • राज्य में उद्योग-धंधे एक-एक कर बंद होते गए और नए लगे नहीं। इससे न केवल रोजगार के नए अवसर ही पैदा नहीं हुए, बल्कि पहले से उपलब्ध अवसर भी समाप्त हो गए। इसने लोगों को बड़े पैमाने पर देश के दूसरे राज्यों में श्रमिक के तौर पर जाने के लिए मजबूर किया।
  • सत्ता में बदलाव के बाद उपेक्षित वर्ग में इस भावना ने जोर पकड़ा कि महानगरों में जाकर मजदूरी कर लेंगे, लेकिन अपने गॉंव में नहीं करेंगे। हमारी सामाजिक सरंचना भी ऐसी है जिसमें स्थानीय स्तर पर जो काम करने में लोग लज्जा महसूस करते हैं, वही काम वे बाहर जाकर आराम से करते हैं। उनके मन में यह भाव होता है कि यहॉं उन्हें कोई देख नहीं रहा।
  • पुश्तैनी धंधों के खात्मे ने भी श्रमिक के तौर पर पलायन के लिए लोगों को मजबूर किया। यह दो तरह से हुआ। मसलन, गॉंवों में नाई, लुहार, कुम्हार का जो काम कर रहे थे उनमें से एक वर्ग ऐसा था जो इस काम को आगे ले जाने को तैयार नहीं था। वह शहरों की ओर निकल गया। जो लोग पुश्तैनी धंधे से जुड़े रहना चाहते थे उनके लिए गॉंवों से अन्य वर्गों के पलायन के कारण रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया। धीरे-धीरे उन्होंने भी महानगरों की राह पकड़ ली।
  • हर साल आने वाली बाढ़ और सुखाड़ ने भी ग्रामीण इलाकों से बड़े पैमाने पर निकलकर महानगरों में मजदूरी करने को लोगों को मजबूर किया।
दुर्दशा पर रो रहा है पंडौल सूत मिल

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर की नजर में इसकी एक बड़ी वजह रेल भाड़ा सामान्यीकरण कानून भी है। स्वतंत्रता के बाद केंद्र सरकार का बनाया यह कानून 90 के दशक में खत्म हुआ था। इस कानून के तहत धनबाद से राँची कोयला की ढुलाई में जितना रेल किराया लगता था, उतने ही भाड़े में यह धनबाद से मद्रास (अब चेन्नई) भी पहुँच जाता था। इसने उद्योगपतियों को समुद्र किनारे कोयला आधारित उद्योग लगाने को प्रोत्साहित किया।

सुरेंद्र किशोर ने ऑपइंडिया से बातचीत में कहा था, “यदि यह कानून अंग्रेजों के जमाने में होता तो टाटा नगर न होता। फिर टाटा बंबई जैसे शहरों में अपना उद्योग खड़ा करते। केंद्र सरकार की इस बेईमानी की वजह से बिहार को कम से कम 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। उद्योगों का राज्य में अपेक्षित विकास नहीं हुआ। न खेती का पंजाब की तरह विकास हुआ। आबादी बढ़ती गई। स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा नहीं हो रहे थे। ऐसे में पलायन होना ही था।”

जाहिर है कि बिहार से मजबूरी में पलायन को रोकने का उपचार केवल बड़े उद्योग-धंधे, सरकारी नौकरियाँ, विशेष दर्जा या केंद्र सरकार के पैकेज नहीं हैं। इसे अलग-अलग इलाकों के हिसाब से दोबारा उद्योग-धंधे खड़े कर ही रोका जा सकता है। यह आजमाया हुआ मॉडल भी है। लेकिन, न तो यह बिहार के आम लोगों की प्राथमिकता में है और न राजनीतिक दलों की। ऐसे में कोई भी नहीं जानता कि इस प्रवृत्ति पर विराम कब लगेगा। जब तक मजबूरी के पलायन पर रोक नहीं लगती तब तक बिहार का मतलब ‘बीमारू’ राज्य और बिहारी का मतलब ‘गाली’ ही रहेगा।

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