येचुरी का लेनिन प्रेम: माओवंशियों पर तर्क़ के हमले होते हैं तो वो ‘महान विचारों’ की पनाह लेता है

तमिलनाडु में लेनिन की मूर्ति

रूस में जिस लेनिन की मूर्तियों को कई जगह से हटाया गया, उस आतंकी और सामूहिक नरसंहारों के दोषी की मूर्ति तमिलनाडु में सीताराम येचुरी समेत वामपंथियों की मौज़ूदगी में स्थापित की गयी। लेनिनवंशियों ने हत्यारे के तथाकथित महान विचारों की बात करते हुए उसकी बड़ाई में कसीदे काढ़े।

‘कुत्ते की मौत आती है तो वो शहर की ओर भागता है’ से प्रेरित होकर ये कहा जा सकता है कि नालायक माओवंशियों पर तर्क़ के हमले होते हैं तो वो विचारों की गोद में पनाह लेता है। वो ये गिनाता है कि लेनिन ने जो विचार दिए थे वो कितने ग़ज़ब के हैं!

ये चिरकुट सोचते हैं कि किसी ने बहुत पहले कुछ कहा था और वो छप कर आ गया तो वो हर काल और संदर्भ में सही होगा। जैसे कि ‘शांति की स्थापना बंदूक की नली से गुज़रते हुए होती है’, ये आज के वामपंथियों के कई बापों में से एक ने कहा था। मेरा सवाल ये है कि आज के दौर में कौन-सी शांति की स्थापना होनी रह गई है? क्या कहीं पर कोई तंत्र असंवैधानिक तरीक़े से लाया गया है? क्या देश की सरकार चुनी गई सरकार नहीं है या राज्यों में पुलिस के मुखिया सरकार चला रहे हैं?

ये वही माला जपेंगे कि मार्क्स ने ये कहा था, लेनिन के विचारों से भगत सिंह सहमत थे, और दिस एवं दैट…

ये लीचड़ों का समूह, जो दिनों-दिन सिकुड़ता जा रहा है, ये नहीं देखता कि किताब किस समय लिखी गई थी, भगत सिंह के सामने कौन थे, और लेनिन ने किस तंत्र को ध्वस्त किया था। उससे इनको मतलब नहीं है। समय और संदर्भ से बहुत दूर इनके लहज़े में ज़बरदस्ती की अभिजात्य गुंडई और कुतर्की बातें होती हैं।

चूँकि लेनिन ने ज़ारशाही को ख़त्म करने के लिए क्रांति की थी, और उसके समर्थकों ने आतंक मचाया था, तो आज के दौर में भी वो सब जायज़ है। जायज़ इसलिए क्योंकि इनको शब्दों से किसी तानाशाह, मोनार्क या ज़ार और लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई सरकार में कोई अंतर नहीं दिखता। ये धूर्तता है इनकी क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है अपने अस्तित्व को लेकर चर्चा में बने रहने का। इसीलिए ‘मूर्ति पूजा’ पर उतर आए हैं।

इनकी बातें अब विश्वविद्यालयों तक सिमट कर रह गई है। वहाँ से भी अपनी बेकार की बातों के कारण हूटिंग के द्वारा भगाए जाते हैं। अब ये डिग्री कॉलेजों में हुए चुनावों में कैमिस्ट्री डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी का चुनाव जीतकर देश में युवाओं का अपनी विचारधारा में विश्वास होने की बातें करते हैं। इनके मुद्दे दूसरे लोग अपना रहे हैं, और ये चोरकटबा सब, तमाम वैचारिक असहमति के बावजूद, अपने बापों के नाम को बचाने के लिए विरोधियों से गठबंधन करते नज़र आते हैं।

चूँकि ये सत्ता में नहीं हैं तो जो सत्ता में है वो हिटलर और ज़ार हो जाता है। चूँकि ये अपनी बातों से जनता को वोट करने के लिए प्रेरित नहीं कर पाते तो ‘आर्म्ड रेबेलियन’ जायज़ हो जाता है। चूँकि तुम्हारा मैनिफ़ेस्टो बकवास है इसलिए ग़रीबी एक हिंसा है, जो कि किसी दूसरे ग़रीब को काट देने के बराबर वाली हिंसा के समकक्ष हो जाती है।

आप ज़रा सोचिए कि अगर मेरे पास शब्द हों, और तंत्र हों, तो मैं आपको क्या साबित करके नहीं दे सकता। मैं ये कह सकता हूँ कि कौए सफ़ेद होते हैं, और आप इसलिए मत काटिए मेरी बात क्योंकि आपने ब्रह्माण्ड के हर ग्रह का विचरण नहीं किया है। मैं ये कह सकता हूँ कि ग़रीबी एक स्टेट-स्पॉन्सर्ड टेररिज़्म है क्योंकि लोग ग़रीबी से मरते हैं और स्टेट कुछ नहीं कर रहा।

उस वक़्त मैं ये नहीं देखूँगा कि क्या देश की आर्थिक स्थिति वैसी है, और क्या सामाजिक परिस्थिति वैसी है कि हर ग़रीब को सब्सिडी देकर भोजन दिया जा सके। उस वक़्त जब आपसे टैक्स लिया जाएगा तो आप ये कहते पाए जाएँगे कि हमारी कमाई से किसी ग़रीब का पेट क्यों भरे? सरकार मिडिल क्लास की जान ले लेना चाहती हैं। ये है वामपंथी विचारकों की दोगलई।

लेनिन की करनी जायज़ हो जाती है, उसके समर्थकों द्वारा किया नरसंहार क्रांति के नाम पर जायज़ है क्योंकि उससे रूस में नया तंत्र सामने आया। फिर हिटलर भी तो औपनिवेशिक शक्तियों से लड़ रहा था, उसने भी तो एक तरह से ऑप्रेसिव तंत्र के सामने खड़े होने की हिम्मत दिखाई थी। उसकी मूर्तियाँ लगवा दी जाएँ?

जब ब्लैक और व्हाइट में चुनाव करना हो, तो ये आपको ‘लेस इविल’, ‘गुड टेरर’ जैसी बातों में उलझाएँगे। ये आपको कहेंगे कि लेनिन कितने महान विचारक थे, लेकिन वो ये भूल जाते हैं कि आपकी पार्टी या विचारधारा के समर्थक लेनिन की लिखी किताब नहीं पढ़ते, वो वही काम करते हैं जो आप उनसे लेनिन के महान होने के नाम पर करवाते हैं: हिंसा और मारकाट।

लेनिन की क्रांति को एक शब्द में समाहित करके अपने काडरों द्वारा किए गए अनेकों नरसंहारों पर चुप रहने वाले संवेदनहीनता के चरम पर बैठे वो लोग हैं जिन्हें ग़रीबों और सर्वहारा की बातों से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग सीआरपीएफ़ के जवानों की विधवाओं, अनाथ बच्चों और अकेले पड़ चुके परिवारों की ग़रीबी और भविष्य की ओर नहीं देखते। ये प्रैक्टिकल बातें नहीं देखते, ये बस यही रटते रहते हैं कि ग़रीबी भी हिंसा है।

अंत में हर बात वहीं ख़त्म होती है कि जब सत्ता आपके समीप नहीं है तो आप हर वो यत्न करते हैं जिससे लगे कि आप बहुत गम्भीर हैं मुद्दों को लेकर। तब वुडलैंड का जूता पहनकर ग़रीब रिक्शावाले के द्वारा भरी दोपहरी में ख़ाली पैर रिक्शे के पैडल चलाने से होने वाले छालों पर कविता करते हैं आप। तब आपके सेमिनारों में ग़रीबी और सत्ताधारी पक्ष के ‘हिंसा’ के तरीक़ों पर बात होती है, जहाँ टेंट के बाहर बैठा ग़रीब प्लेट से बची हुई सब्ज़ी चाटता है जिसे देखकर आपको घिन आती है। आप उसके लिए तब भी कुछ नहीं करते और हिक़ारत भरी निगाह से ताकते हुए उसे गरिया देते हैं कि ‘मोदी को वोट दिया था, तो भुगतो।’

ये तो संवेदना नहीं है। ये तो द्वेष है, घृणा है उन लोगों के प्रति जो संविधान की व्यवस्था का हिस्सा बने हैं और आपकी बातों से कन्विन्स नहीं हो पा रहे। अगर संवैधानिक व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं है तो नाव लेकर समंदर में जाइए और पायरेट बन जाइए। क्योंकि आपकी बातों में देश के किसी कोने के लोग अब विश्वास दिखाते नज़र नहीं आ रहे।

इसीलिए आज भी आप काम की बात करने की बजाय वाहियात बातें करते नज़र आ रहे हैं। आप उन प्रतीकों को डिफ़ेंड कर रहे हैं जिनका नाम लेकर इसी ज़मीन के ग़रीब मुलाजिमों को काटा गया, बमों और गोलियों से भूना गया। इस ख़ून की महक से आप उन्मादित होते हैं कि सरकार पर दबाव बन रहा है क्योंकि आपके प्यादे जंगलों में आपकी कही बातों को सच मानकर आपके ख़ूनी इरादों को अंजाम देते हैं।

आप कभी नहीं फँसते क्योंकि आपको लिखना और बोलना आता है। आपके पास वक़ील हैं। आपकी बेटी नक्सलियों के साथ जंगलों में एरिया कमांडर के सेक्स की भूख नहीं मिटा रही। आपका बेटा सीआरपीएफ़ के लिए माइन्स नहीं बिछा रहा। आप बुद्धिजीवी बनते हैं और मौन वैचारिक सहमति देते हैं क्योंकि प्यादों की लाइन ही राजा को बचाने के लिए पंक्तिबद्ध होती है। आपको ये छोटे-छोटे ग़रीब लोग चाहिए जिनके कंधों पर लूटे गए इन्सास रखवाकर आप चर्चा में बने रहते हैं।

अपने चेहरों के आईनों में देखिए हुज़ूर, वहाँ फटी चमड़ी के बीच पीव और मवाद में नहाया अवचेतन मिलेगा। वो आपसे कुछ कहना चाह रहा होगा लेकिन आप मुँह फेर लेंगे। क्योंकि दोगलेपन में आपका सानी नहीं। आप एक विलुप्त होती विचारधारा के वो स्तम्भ हैं जहाँ आपका अपना कुत्ता भी निशान नहीं लगाता क्योंकि उसे भी पता है कि आपकी ज़मीन ग़ायब हो रही है।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी