‘दलाल गिरोह’ याद कर रहा 1997, क्योंकि 2014 में लालू यादव की कृपा वाला PM नहीं: सोते गुजराल को जगा कर कहा था – गाड़ी भेज रहा हूँ, अब आप प्रधानमंत्री

इंद्र कुमार गुजराल तब लालू की कृपा से बने थे पीएम, अब मोदी के सामने नहीं चलता मोलभाव

भारत की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि 1997 का भारत बेहतर था, जब देश ने स्वतंत्रता के 50 साल पूरे किए थे। ‘2014 से पहले के भारत’ की तारीफ़ के बाद ये एक नया नैरेटिव है। जहाँ मोदी सरकार ‘आज़ादी का अमृत काल’ मनाते हुए विकास और उत्थान के नए लक्ष्य तय कर रही है, ये लोग इंद्र कुमार गुजराल के समय को याद कर रहे हैं। लोगों की आँखों में धूल झोंकना आसान है, क्योंकि युवा पीढ़ी में से अधिकतर को 1997 में होश ही नहीं रहा होगा।

जो लोग 40-45 वर्ष के हो चुके हैं, वो उस दौरान छात्र जीवन में रहे होंगे और अगर देश की राजनीति में उनकी दिलचस्पी नहीं रही होगी तो उन्हें भी उस समय के भारत को लेकर ज्यादा कुछ याद नहीं होगा। इस तरह एक बड़े वर्ग को ये बताना आसान है कि 1997 का भारत स्वर्ग था। कारण ये है कि नरेंद्र मोदी के 2 बार प्रधानमंत्री बनने और भाजपा को लगातार 2 बार पूर्ण बहुमत मिलने के बाद जिस दलाल समूह पर मार पड़ी है, वो कुछ भी कर के झूठ को सच साबित करने में लगा है।

कहते हैं, ‘यथा राजा तथा प्रजाः’, अर्थात राजा के आचरण का ही प्रजा अनुसरण करती है। तो सबसे पहले तुलना कर लेते हैं कि उस समय देश के मुखिया कौन थे और अब कौन हैं। 2014 से देश में एक स्थिर सरकार है, पूर्ण बहुमत वाली पार्टी सत्ता में है, गठबंधन पार्टियाँ मोलभाव नहीं कर सकती हैं और एक सर्वमान्य नेता प्रधानमंत्री है। 2014 के बाद से देश में विकास और सामाजिक उत्थान ने रफ़्तार पकड़ी है। भाजपा ने पहले रामनाथ कोविंद के रूप में एक दलित और फिर द्रौपदी मुर्मू के रूप में एक जनजातीय महिला को राष्ट्रपति का पद दिया।

अब 1997 की भी जरा बात कर लें। 1989 से लेकर 1999 तक, इन 10 वर्षों में देश ने 8 बार प्रधानमंत्री के पद का शपथग्रहण देखा और 6 चेहरों को इस पद पर आसीन देखा। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बीच 3 बार शपथ ली थी। अंततः 1999-2004 तक उनकी सरकार ने कार्यकाल पूरा किया। उनके अलावा 1991-96 तक कॉन्ग्रेस के नरसिम्हा राव कार्यकाल पूरा करने वाले प्रधानमंत्री थे। राजीव गाँधी के निधन के बाद इस उथल-पुथल वाले दशक में भारत कंगाली के स्तर तक पहुँच गया था।

तब देश की अर्थव्यवस्था खस्ता हालत में पहुँच गई थी। 90 का दशक जब शुरू हुआ था, तब भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार कंगाल हो गया था। 2 सप्ताह के लिए ही आयात का खर्च चलाने लायक पैसे बचे थे। विदेशी कर्ज काफी ज्यादा था और राजस्व घाटा बढ़ता ही जा रहा था। नरसिम्हा राव की सरकार ने कुछ कदम उठाए, जिस कारण जैसे-तैसे देश चलता रहा। देश की हालत ऐसी थी कि राव से पहले प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर सिंह सोलंकी की सरकार 400 टन सोना बेच चुकी थी।

वो इंद्र कुमार गुजराल ही थे, जिन्होंने आज़ादी के 50 वर्ष पूरा होने पर झंडोत्तोलन किया था। उनका जन्म पंजाब के उस हिस्से में हुआ था, जो पाकिस्तान में पड़ता है। उनके शिक्षकों में फैज अहमद फैज नाम का एक इस्लामी कट्टरपंथी भी था, जो अपनी कविताओं के जरिए मुस्लिमों में भारत विरोध और देश विभाजन की नींव डाल रहा था। इंद्र कुमार गुजराल का साथी हुआ करता था वामपंथी पत्रकार मज़हर अली खान, जो एक पत्रकार के रूप में भारत को बाँटने की साजिश में लगा हुआ था।

आपातकाल के दौरान वो इंदिरा गाँधी मंत्रिमंडल में शामिल रहे थे और संजय गाँधी से विवाद के बाद उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से हटा कर दूसरा मंत्रालय दे दिया गया था, लेकिन वो सरकार में बने थे। आपातकाल के पक्ष-विपक्ष में बयान न देकर बड़ी चालाकी से उन्होंने सत्ता का पान किया। छात्र जीवन में वामपंथी रहे इंद्र कुमार गुजराल लेफ्ट पार्टियों के भी करीब थे। वो उर्दू के प्रेमी थे। उनका प्रधानमंत्री बनना भी एक संयोग ही था।

उस समय क्षेत्रीय पार्टियों ने मिल कर ‘संयुक्त मोर्चा’ बनाया हुआ था, जिसने कर्नाटक के HD देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री चुना था, लेकिन कॉन्ग्रेस ने कुछ ही महीनों बाद उनसे समर्थन वापस लेने की धमकी देनी शुरू कर दी। इसके बाद चर्चा शुरू हो गई कि अगला पीएम किसे बनाया जाए। सीताराम केसरी की अध्यक्षता वाली कॉन्ग्रेस ने देवेगौड़ा सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। उसी दौर में लालू यादव का चारा घोटाला भी खुल चुका था और CBI जाँच के दायरे में थे। उनसे ताबड़तोड़ पूछताछ हो रही थी।

लालू यादव ने इसके लिए कई बार तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा से लड़ाई भी कर ली, लेकिन वो इसे अदालत का मामला बता कर निकल जाते थे। अतः, देवेगौड़ा के बाद लालू यादव ने खुद को प्रधानमंत्री बनाने की सारी जतन फिर से की, लेकिन वामपंथी नेता ज्योति बसु इसके सख्त खिलाफ थे। लालू यादव ने प्रधानमंत्री पद के एक अन्य आकांक्षी मुलायम सिंह यादव का रास्ता भी रोक रखा था। लालू यादव ने ही तब इंद्र कुमार गुजराल के नाम का प्रस्ताव रखा।

उस समय इंद्र कुमार गुजराल सो रहे थे। नेताओं की बैठक में वो भी शामिल थे, लेकिन फिर उन्हें झपकी लग गई थी और सोने के लिए निकल गए थे। तभी उन्हें लालू का फोन आया, “गाड़ी भेज रहा हूँ। आ जाइए, आपको प्रधानमंत्री बनना है।” वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि ऐसा नहीं था कि इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर सब सहमत थे, लेकिन उनके नाम से असहमति काफी कम थी। वो लिखते हैं कि लालू यादव ने इंद्र कुमार गुजराल का नाम इसीलिए लिया, क्योंकि वो उनके ही विधायकों के वोटों पर पटना के एक फर्जी पते से राज्यसभा सांसद बनाए गए थे।

लालू यादव के सबसे घनिष्ठ मित्र और तब ‘आवामी सहकारी बैंक’ के अध्यक्ष अनवर अहमद के पटना के सब्जबाग स्थित इलाके के घर पर इंद्र कुमार गुजराल के नाम का नेमप्लेट टाँग कर ये दिखाया गया कि वो बिहार के निवासी हैं और यहाँ से राज्यसभा भेजे जाने के योग्य हैं। इंद्र कुमार गुजराल ने शुरू में लालू यादव की खूब मदद की, लेकिन CBI द्वारा चार्जशीट दायर किए जाने के बाद लालू यादव उनसे भी भड़क गए और सभी नेता इस पक्ष में थे कि लालू यादव को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।

अंततः 5 जुलाई, 1997 को लालू यादव ने ‘जनता दल’ का विभाजन कर के ‘राष्ट्रीय जनता दल’ बना डाला। इसके बावजूद उनकी पार्टी के दो करीबी गुजराल मंत्रिमंडल में बनाए रखे गए। गुजराल ने लालू यादव को खुश करने के लिए CBI के निदेशक जोगिंदर सिंह को भी हटा दिया था। ‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक राम बहादुर राय बताते हैं कि इंद्र कुमार गुजराल ने चुन-चुन कर अपने लोगों को एक दर्जन से अधिक पदों पर बिठाया था। उन्होंने भ्रष्टाचार पर कोई कार्रवाई नहीं की और अपना निजी एजेंडा सेट करते रहे।

हो सकता है कि लिबरल गिरोह ये सब मिस कर रहा हो, क्योंकि न तो अब एक चुने हुए छोटे से गिरोह में से सभी को पद देने वाला प्रधानमंत्री है और न ही किसी भ्रष्टाचारी नेता से मोलभाव कर के उसे बचाया जा रहा है। 1997 का भारत वही था, जब प्रधानमंत्री पर प्रधानमंत्री बदल रहे थे और अस्थिर सरकारें चल रही थीं। अब का भारत अर्थव्यवस्था के मामले में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और एक स्थिर सरकार है। हाँ, दलालों को अब उनका हिस्सा नहीं मिलता। इसीलिए उन्हें आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर भारत अच्छा नहीं लग रहा।

अनुपम कुमार सिंह: भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।