समाज जिसे बालिका कहता है, तालिबानी कबीलाई कानून में वो सिर्फ ‘योनि’ है: टैगोर के ‘काबुलीवाला’ के बहाने बात इस्लामी आतंक की

अफगानिस्तान की 6 साल की नज़्दाना, जो बनना चाहती है डेंटिस्ट (बाएँ), काबुलीवाला कहानी (दाएँ)

रहमत ससुर के लिए अपना मोटा सा घूँसा तानकर कहता – “हम ससुर को मारेगा।” सुनकर मिनी ‘ससुर’ नाम के किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती। स्कूल के दौर में पढ़ाई जाने वाली रविन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी “काबुलीवाला” का ये हिस्सा हमें ही नहीं, कई लोगों को याद होगा। ये कहानी अफगानिस्तान (काबुल) से आने वाले एक व्यापारी (फेरीवाले) की कहानी थी।

उस दौर में ये लोग अफगानिस्तान से आते थे और शायद काबुल इकलौती पहचानी हुई जगह होती होगी तो जैसे हर बिहार निवासी खुद को दिल्ली में पटना का बताता है, वैसे ही हर अफगानी काबुलीवाला हो जाता होगा। इनका मुख्य पेशा अखरोट-सूखे मेवे बेचने के अलावा ब्याज पर पैसे कर्ज देना भी रहा होगा। शायद इसी लिए यशपाल की कहानी “पर्दा” में भी ये ब्याज पर कर्ज देते दिखते हैं।

काबुलीवाला कहानी पर्दा से कहीं ज्यादा प्रसिद्ध रही। इसके बारे में बात करते हुए मार्केटिंग (विपणन-विज्ञापन) के क्षेत्र के लोग बताते हैं कि कहानी में बच्चों के होने से लोगों का उस कथानक से भावनात्मक जुड़ाव अधिक होता है। काबुलीवाला कहानी पर फिल्म भी बनी है और उसमें बलराज साहनी (मन्ना डे की आवाज में) “ऐ मेरे प्यारे वतन” गाते भी सुनाई दे जाते हैं। आज कई जगह शायद ये गीत भी बजेगा।

जब ये बजे तो कहानी की मिनी को भी जरूर याद कर लीजियेगा। कहानी की बच्ची मिनी जितनी ही काबुलीवाले की भी बेटी थी। उसके पास बेटी की कोई तस्वीर तो नहीं थी, लेकिन कोयला हाथ पर लगाकर उसकी एक छाप ले ली गयी थी। कागज़ पर लगा हुआ वही छाप सीने से लगाए काबुलीवाला अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर बेटी को याद किया करता था। अक्सर पिता को बेटियाँ कुछ अधिक ही प्यारी होती हैं तो कहानी के लेखक ने अपनी बेटी को कथा में डाला, या काबुलीवाले की बेटी के प्रेम पर कहानी लिख दी तो आश्चर्य कैसा?

आश्चर्य तब होता है जब जिस अफगानिस्तान के किसी पिता की ऐसी रूमानी कहानी पढ़कर कई पीढ़ियाँ बड़ी हुईं, उन्हें अफगानिस्तान की जमीनी हकीकत समाचारों में दिखाई-सुनाई देने लगती हैं। फातिमा (जो कभी निमिषा थी) नाम की एक लड़की की माँ बिंदु ने केरल के उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की थी जिसमें उसकी बेटी को वापस आने देने की अपील थी। ये लड़की मजहब बदल कर निकाह करने के बाद अफगानिस्तान में आईएसआईएस के इस्लामिक आतंकियों की मदद करने के लिए चली गई थी।

युद्ध में इसका इस्लामिक आतंकी पति मारा गया और ये अब अपनी बेटी के साथ अफगानिस्तान की किसी जेल में थी। हालाँकि अफगानी सरकार इन्हें वापस भेजने को तैयार थी, मगर भारत ने इन्हें वापस लेने से इनकार कर दिया था। क्या इस मामले में मानवीयता दिखाई जानी चाहिए थी? क्या एक आतंकी को भारत को वापस लेना चाहिए था? कुछ आतंकियों के पैरोकार इसके समर्थन में शायद कूदकर उतर आएँगे।

जब हम-आप जैसे समझदार लोग इस मामले को देखते हैं, तो हमें कुछ और ही नजर आता है। सबसे पहले सोचना पड़ता है कि ये लड़की क्या कर रही थी? पूरे होशो-हवास में ये पूरी शिद्दत से मदद किसकी कर रही थी? ऐसा करते ही हमें एक ऐसा संगठन दिखाई देता है जिसके लिए स्त्री एक योनि से अधिक कुछ है ही नहीं! वो इस बात की पैरोकारी करते हैं कि लड़कियों को शिक्षा भी नहीं दी जानी चाहिए।

हालाँकि, मलाला इस मामले पर चुप्पी साधे बैठी है, लेकिन ठीक इसी वजह से तो इस्लामी आतंकियों ने उसे रोका था! वो किन्हीं नौकरियों में स्त्रियों को नहीं देखना चाहते, एक बच्चे पैदा करने की खेती तक उसे सीमित कर देना चाहते हैं। क्या उसका किसी मदद पर अधिकार है? जब मानवों जैसा व्यवहार ही नहीं रहा तो मानवाधिकारों की माँग, दोमुँहों को अपने किसी मुँह से करने का अधिकार नहीं रहता।

वो समर्थन कर रहे हैं पंद्रह से पैंतालिस तक की सभी स्त्रियों को भोगदासी बना देने का। क्या ऐसी बातों का समर्थन करने वालों को हम अपने देश में वापस लाना चाहेंगे? अब सवाल है कि ऐसे मुद्दे जब सामने आते हैं तो खुलकर इनका विरोध क्यों नहीं होता? जैसे आधी रात को आतंकियों के लिए अदालतें खुलवाई जाती हैं, जैसे आजाद मैदान में इकट्ठा, एक कट्टरपंथी मजहब की भीड़ शहीद स्मारक को तोड़ देती है, वैसा आंदोलन कभी इन्हें देश के बाहर रोकने के लिए होता नहीं दिखता।

इसकी एक बड़ी वजह मीडिया का सौतेला व्यवहार है। सीरिया से भाग रहे शरणार्थियों के एक बच्चे का समुद्र के किनारे पड़ा शव तो वो वर्षों दिखाते रहेंगे, लेकिन जब राजौरी में एक तीन-चार वर्ष के बच्चे को इस्लामिक कट्टरपंथी गोलियों से भुन डालते हैं, तो उसकी तस्वीरें, सेंसर करके दिखाई जाती हैं। लोगों तक अगर खबर पहुंचे ही नहीं तो फिर आक्रोश कैसा? अफगानिस्तान में ऐसा ही फिर से हो रहा है। लड़कियों को उनके परिवारों से छीना जा रहा है।

तालिबान से पीड़ित अफगानिस्तान की एक बच्ची, जो बनना चाहती है डॉक्टर

वो बच्ची थी, इस बात से इस्लामी कट्टरपंथियों को कोई मतलब नहीं। सभ्य समाज जिसे अठारह से कम उम्र की बालिका मानता है, उसे कबीलाई कानून मानने वाले केवल एक योनि ही तो मानते हैं! मलाला की गूँजती हुई चुप्पी आज इसलिए भी सुनाई दे रही है क्योंकि उसने अपनी आवाज को चंद पुरस्कारों के बोझ तले दब जाने दिया। अगर आपने भी कभी ऐसे लोगों के अभियानों के लिए चंदा दिया हो (जो कि वो माँगते ही रहते हैं) तो एक बार सोचिएगा कि क्या आपकी दी हुई रकम सही तरीके से इस्तेमाल हुई भी?

कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे कथित रूप से किन्हीं दंगों के लिए इकट्ठा की गई रकम से सौन्दर्य प्रसाधन खरीदे जा रहे थे, वैसे ही आपकी दी गयी रकम का भी कोई तीश्ता शीतलवाड़ नाजायज इस्तेमाल कर रही हो! हाँ, जब अफगानियों की दशा पर सोचिए तो वहाँ की छोटी-छोटी बच्चियों की दुर्दशा के बारे में भी जरूर सोचिएगा। मुझे आज ये भूली सी, मगर जानी-पहचानी सी कहानी आज इसलिए नहीं याद आई है क्योंकि स्वतंत्रता दिवस पर हमें इसका देशभक्ति वाला गाना कहीं सुनाई दे गया है।

दरअसल कहानी में बाद में काबुलीवाले को जेल हो जाती है। जेल जाते वक्त भी रहमत काबुलीवाला अपना मोटा सा घूँसा मिनी को दिखाता हुआ कहता है, “ससुर को मारता, मगर क्या करूँ? हाथ बँधे हैं!” काबुलीवाले के हाथ बँधे थे। अफगानिस्तान के लोगों के, दुनिया के तथाकथित चौधरियों के भी हाथ बँधे होंगे। अखबार और खरीदी जा सकने वाली मीडिया के अन्य रूपों में काम करने वाले लोगों के भी हाथ बँधे ही होंगे। वरना ये लोग इस बच्ची को ऐसे तो नहीं जाने देते न? कोई न कोई तो “ससुर को मारता”?

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!