बांग्लादेशी या रोहिंग्या इस देश का नहीं है, उसकी पहचान कर, अलग करना समय की माँग

1 लाख रोहिंग्या को बांग्लादेश भेज रहा ऐसी जगह जिसके चारों ओर है पानी ही पानी (प्रतीकात्मक तस्वीर)

12 जुलाई 2017 की घटना है। ऐसी घटनाएँ छोटे स्तर पर हम और आप सबने कई बार देखी-सुनी है। नोएडा में एक पॉश सोसाइटी है महोगुन सोसायटी के नाम से। उसमें एक नौकरानी किसी घर में काम करती थी, नाम जोहरा बीबी। चोरी का इल्जाम लगा तो साफ मना कर दिया, फिर जब विडियो साक्ष्य की बात की गई तो कहने लगी पगार से काट लेना।

उसके बाद खबर आई कि फ्लैट मालिक ने उसे बंधक बना लिया और मारपीट की, पुलिस खोजने पहुँची तो वो किसी और टावर में मिली। जाहिर है कि बंधक लोग एक टावर से दूसरे में नहीं पाए जाते। फिर कुछ और जाँच हुई, बात बढ़ी और फिर 300 बांग्लादेशियों की भीड़ बग़ल से आ गई, और पत्थर, सरिया, कंक्रीट के टुकड़े आदि से पूरी सोसायटी पर हमला कर दिया।

इसमें ट्विस्ट ये था कि ज़ोहरा बीबी बांग्लादेशी हैं, ऐसा इल्ज़ाम लगा। इस पर वो सीधा कहती है कि उसके पास काग़ज़ात हैं। काग़ज़ात होने का मतलब ही है कि ‘मैं जो थी, उससे मतलब नहीं है, मैं जो हूँ वो क्या हूँ, ये समझो।’ इनके पास आधार है, राशन कार्ड है, वोटर कार्ड है।

दिल्ली तो छोड़िए, राजस्थान तक में बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं की झुग्गियाँ आपको मिल जाएँगी। असम में ये घुसपैठिए किंगमेकर बने बैठे थे क्योंकि किसी खास पार्टी ने इन्हें सिर्फ वोटों को लिए सारे कागज बनवा दिए थे। दिल्ली में भी इसी तरह के वादे होते हैं ऐसी झुग्गियों के लोगों से। इन्हें कहीं से ला कर बसाया जाता है, इन्हें वोटर कार्ड दिए जाते हैं, आधार कार्ड बनवाया जाता है और आप जब भी इनसे पूछिए कहाँ के हो तो सबका एक ही झूठ: बंगाल के मालदा से!

NRC क्यों जरूरी है

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सरकार इस देश के सही नागरिकों की पहचान करते हुए, घुसपैठियों, और गैरकानूनी रूप से घुसे लोगों की पहचान करेगी और उन्हें यहाँ के तंत्र से बाहर करेगी। ये संख्या सिर्फ असम में 50 लाख, पश्चिम बंगाल में 57 लाख और पूरे देश में लगभग 2 करोड़ बताई जाती है। वहीं रोहिंग्याओं की बात करें तो कानूनी रूप से यूएन द्वारा रजिस्टर्ड लोगों की संख्या 14,000 है जबकि गैरकानूनी रूप से रह रहे इन लोगों की संख्या 40,000 के करीब है।

आपको पता ही है कि भारत की जनसंख्या कितनी है और यहाँ गरीबी का स्तर क्या है। साथ ही आपको यह भी पता होगा कि सरकार के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा ग़रीबी उन्मूलन योजनाओं में जाता है जहाँ कम दाम पर खाना देने या डायरेक्ट सब्सिडी देने में तीन लाख करोड़ रुपए जाते हैं। इसके अलावा स्वच्छता अभियान, वृद्धा पेंशन, बीमा योजना, स्वास्थ्य सुविधाएँ आदि में और भी लाखों करोड़ रुपए जाते हैं। और आपको जो पता नहीं है वो यह बात है कि ऐसी योजनाओं के कारण अर्थव्यवस्था चरमराती भी है, धीमी भी होती है और उसके प्रभाव लम्बे दौर में दिखते हैं।

फिर इन दो करोड़ लोगों का भार यह देश कैसे उठाए? खास कर तब जब ये लोग एक-एक जगह बड़ी संख्या में इकट्ठे हो कर उस क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदल देते हैं। कोई इलाक़ा अपनी पहचान खो कर अचानक से मुस्लिम बहुल हो जाता है, या वहाँ के अनुपात बिगड़ जाते हैं। मतलब, एक तो तुम घुसपैठिए हो, ऊपर से तुमने कागज बनवा लिए, फिर यहाँ सरकारें बनवा रहे हो क्योंकि किसी एक इलाक़े में तुमने बस कर वहाँ के लोगों की संख्या पर हावी हो गए! आप सोचिए कि जमीन आपकी, संस्कृति आपकी, लोकतंत्र आपका और प्रतिनिधि ग़ैरक़ानूनी रूप से बसे बांग्लादेशियों का! यही हो रहा है, और यही सबसे बड़ी समस्या है।

एनआरसी जरूरी है ताकि भारतीय के हक का पैसा कोई बांग्लादेशी या रोहिंग्या न उठाए और बाद में कहीं मजहबी नारे लगाते हुए किसी बाजार में फट पड़े। घुसपैठ सिर्फ ठुकराए हुए लोग ही नहीं करते हैं, इनमें वो लोग भी होते हैं जो गैरकानूनी से लेकर आतंकी गतिविधियों में शामिल पाए जाते हैं। इसलिए, इन लोगों को छाँटना और इन पर नजर रखना जरूरी है ताकि हमारे ही देश के नागरिक इनके आतंक का शिकार न हो जाएँ।

बाकी तरह के रिफ्यूजी भी तो लेता है भारत

फिर एक लँगड़ा तर्क आता है कि भारत तो तिब्बती शरणार्थियों को, तमिल रिफ्यूजी को, बौद्ध और हिन्दू लोगों को तो शरण दे रहा है, फिर एक समुदाय के साथ क्या दिक्कत है। पहली बात यह है कि देश की सरकार को पूरा हक है कि वो अपनी नीतियाँ कैसे बनाए। दूसरी बात, जो मुस्लिम बांग्लादेश से यहाँ आए हैं, वो किसी भी तरह से अपने देश में शोषण या भेदभाव का शिकार नहीं थे, न ही वो तय तरीकों से आए हैं।

दूसरी बात, जो हिन्दू, बौद्ध या अन्य गैर-मुस्लिम शरणार्थी भारत में शरण के लिए आए हैं, वो अपने देश में सताए गए लोग हैं। 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में तिब्बत के बौद्ध शरणार्थियों की संख्या लगभग 1,92,000 है, और श्रीलंका से भागे और तमिलनाडु में रहने वाले लोगों की संख्या एक लाख के क़रीब बताई जाती है। पाकिस्तान से, अगर बँटवारे को अलग रखें, आए हिन्दुओं की संख्या लगभग 20,000 है, जिसमें से 13,000 को भारतीय नागरिकता दी जा चुकी है। अफ़ग़ानिस्तान में हिन्दुओं और सिक्खों की संख्या सिमट कर 5000 रह गई है। पाकिस्तान में हिन्दुओं का क्या हाल है, यह किसी से छुपा नहीं है।

ये अगर भारत में नहीं आएँगे, जहाँ इनकी धार्मिक जड़े हैं, संस्कृति है तो कहाँ जाएँगे। दूसरी बात, इनकी संख्या कुल मिला कर तीन-चार लाख ही है, बांग्लादेशी मुस्लिमों की तरह दो करोड़ नहीं। तीसरी बात, जब बाकी समय मुस्लिम अपने ‘कौम’ के लिए नारे लगाता है, तो आज पाकिस्तान, सऊदी, जॉर्डन, तुर्की, कतर, बहरीन या दसियों इस्लामी देश इनके लिए बंगाल की खाड़ी में जहाज क्यों नहीं भेज रहे? पाकिस्तान तो खैर भिखमंगों का देश है और वहाँ से तो पाकिस्तानी भी उब जाते हैं और सोचते हैं भारत में ही आतंकी बन कर फटना बेहतर है, तो वहाँ तो बांग्लादेशी मुस्लिम जाना भी नहीं चाहेंगे। लेकिन, बाकी तो सक्षम देश हैं, वो आगे क्यों नहीं आते अपने मुस्लिम कौम की मदद के लिए?

जनसंख्या और सीमित संसाधनों से जूझता भारत, जहाँ तेरह लाख बच्चे कुपोषण से मरते हैं, भुखमरी और ठंढ से लोग यहाँ मर जाते हैं, और हम इन दो करोड़ मुस्लिमों को इग्नोर करते चलें, इनकी शिनाख्त भी न करें? फिर यही शरणार्थी ठंढ में काँपते हुए मर जाएगा, भूख से मरेगा तो यही बिग बीसी टाइप की संस्थाएँ लिखेंगी कि ‘भारत में ठंढ में मुस्लिम मर गया’ जैसे कि ठंढ को मुस्लिमों की तरफ भाजपा ने फूँक मार कर मोड़ दिया!

विदेशी मीडिया की दोगलई और कुत्सित कवरेज

जैसा कि हमेशा से होता रहा है, द इकोनॉमिस्ट, बीबीसी, WSJ और वाशिंगटन पोस्ट जैसे मीडिया संस्थान पूरे बल से इसे ऐसे दिखा रहे हैं जैसे मुस्लिमों को गैरकानूनी बताया जा रहा है। भारत में 18 करोड़ मुस्लिम हैं, और वो हमारे नागरिक हैं, वो हमारे राष्ट्र का हिस्सा हैं, और उन्हें वही अधिकार प्राप्त हैं, जो किसी भी दूसरे नागरिक को। लेकिन अमेरिका में वाशिंगटन पोस्ट पढ़ने वालों को क्या पता कि स्थिति क्या है क्योंकि वहाँ के लोग तो सिख भाइयों को भी दाढ़ी के कारण मुस्लिम समझते हैं, और ट्रेन के आगे ढकेल देते हैं। ऐसे नस्लभेदी देश में आप जो लिख दें, वो सत्य हो जाता है। इसलिए, वो लिख देंगे कि भारत ने चालीस लाख मुस्लिमों को गैरकानूनी बना दिया, और अमेरिकी लोग मान लेंगे। जब अमेरिका मान लेगा, तो पूरी दुनिया मान लेगी।

फिर लोग बतलाते हैं कि ऑपइंडिया बीबीसी और वाशिंगटन पोस्ट को पत्रकारिता सिखा रहा है। हेल या! बिलकुल सिखाएँगे, क्योंकि ये जो हो रहा है, वो पत्रकारिता तो नहीं है। जब असम में किसी महिला को पुलिस मारती है, उसका दुर्भाग्य से गर्भपात हो जाता है, तो उसे ऐसे दिखाया जाता है कि ‘मुस्लिम महिला का गर्भपात’। प्रथमदृष्ट्या लगता है कि सही तो है, लेकिन जो बात पूरी खबर में नहीं मिलती वो यह है कि महिला को उसके मजहब के कारण नहीं पीटा गया था, और आरोपित पुलिस कर्मचारी निलंबित किए जा चुके हैं।

ये सब भारत की छवि धूमिल करने के लिए किया जा रहा है जबकि प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी अपने ही समर्थकों का आक्रोश, ऐसे ही मुद्दों के कारण दो बड़े राज्यों में चुनाव हार कर झेल चुकी है। कोशिश पूरी है कि भाजपा को, अमित शाह को, नरेन्द्र मोदी को ऐसे दिखाया जाए कि ये लोग तो मुस्लिमों को भारत से निकालने के फिराक में हैं, जबकि सत्य यह है कि समुदाय के आत्मसम्मान और विकास के लिए जितना इस सरकार ने किया है, उतना पिछली किसी सरकार ने नहीं किया।

तो इनका क्या किया जाए?

बांग्लादेशी मुस्लिमों को इनका देश स्वीकार नहीं रहा और रोहिंग्या वापस जाना नहीं चाहते क्योंकि उन्होंने म्यानमार में जो आतंक मचाया है, वहाँ उनका भविष्य उज्ज्वल है भी नहीं। प्रयास यही है कि इन्हें इनके देश वापस भेजा जाए लेकिन उसकी संभावना बहुत कम है। चाहे अमित शाह मंचों से बोल लें, या मोदी जी, आप चाह कर भी इतने लोगों को ज़बर्दस्ती भगा नहीं सकते।

इन्हें बसाने के पीछे हमारे ही देश के कुछ स्वार्थी नेताओं और पार्टियों की चोर मानसिकता रही है। इन्हें लगा कि वो हमेशा सत्ता में रहेंगे और इनके कांड छुपे रह जाएँगे। जबकि सत्ता तो साल भर में भी आती और जाती है, फिर स्थायित्व की ऐसी उम्मीद रखना मूर्खता ही है। इन्हें लगातार बंगाल और असम में बसाने से वोटर लिस्ट प्रभावित हुए और उसके दम पर चुनाव जीते गए। सीधा मतलब है कि वहाँ के स्थानीय लोगों के हक पर डाका पड़ा और सत्ता के गलियारों में वैसे लोग पहुँच गए जिन्हें जनता की सेवा से नहीं, विधानसभा या लोक सभा में पहुँचने भर से ही मतलब था। जाहिर है कि स्थानीय लोगों को ये अच्छा नहीं लगेगा, और उन्होंने लगातार इसको लेकर आवाज उठाई।

इसलिए ममता कहती है कि वो एनआरसी लागू नहीं होने देगी, जबकि हरियाणा में खट्टर कह रहे हैं कि वो लागू करेंगे। ये एक संक्रामक रोग की तरह फैल रहा है। इनको बसाने के पीछे सिर्फ सत्ता बल पाना ही उद्देश्य नहीं रहा है, उद्देश्य हिन्दू बहुल इलाकों में मुस्लिमों की आबादी बढ़ा कर उसके पूरे क्षेत्रीय चरित्र को निगलने की रही है। असम के भारतीय मुस्लिमों से, या बंगाल के भारतीय मुस्लिमों से कोई समस्या नहीं, वो हमारे अपने लोग हैं। समस्या उनसे है जो यहाँ आकर उन्हीं मुस्लिमों का हक छीन रहे हैं।

इनकी शिनाख्त जब हो जाएगी तो सरकार के लिए इन्हें अलग करना आसान हो जाएगा। क्योंकि अगर ऐसा न किया गया तो एक दिन कश्मीर के मंदिरों में जैसे नमाज पढ़े गए, और ‘लो मुजाहिद आ गए हैं मैदान में’ का नारा लगा, और रातों-रात लाखों कश्मीरी पंडितों को बेघर कर दिया गया, वैसे ही इन जगहों से भी लोग भगा दिए जाएँगे या फिर अपने मकानों पर ‘ये मकान बिकाऊ है’ लिखने पर मजबूर हो जाएँगे।

इन्हें वापस नहीं लौटाया जा सकता। लेकिन हाँ, इन्हें पूरे देश में काम करने की परमिट दे कर, बिलकुल छोटी संख्या में अलग-अलग जगहों पर बसाया जा सकता है ताकि वहाँ की डेमोग्रफी पर इनका असर न हो। डॉ पीटर हैमंड की किताब SLAVERY, TERRORISM & ISLAM – The Historical Roots and Contemporary Threat में दिखाया गया है कि जिन-जिन जगहों पर मुस्लिम शरणार्थी एक प्रतिशत से कम में होते हैं, वहाँ ये बहुत ही शांति से रहते हैं, बहुत मिलनसार होते हैं, ऐसा कुछ नहीं करते जिसे गैरकानूनी कहा जा सके। लेकिन आप अगर इन्हें इकट्ठा होने दीजिए, एक बड़े जगह पर रखिए तो ये धीरे-धीरे अपने दीवार खड़े करते हैं, गैरमुस्लिम लोगों को उनके इलाके में घुसने से मना करते हैं, फिर संख्या बढ़ने पर स्थानीय प्रशासन से अपने लिए मस्जिद आदि की डिमांड करते हैं, अधिकारों की बात करते हैं, और एक समय आता है कि स्वीडन जैसे देश को बलात्कार के नक्शे पर नंबर एक बना देते हैं। ये एक कड़वी सच्चाई है जिसे आँख मूँद कर इग्नोर नहीं किया जा सकता।

भारत सरकार के पास जब इनका सही आँकड़ा होगा, इनके फिंगर प्रिंट, रैटिनल स्कैन आदि होंगे तो इनकी गतिविधियों पर नजर रखी जा सकेगी। साथ ही, इन्हें एक तय तरीके से बाँट कर रखा जा सकेगा। ये एक सच्चाई है कि अगर इन्हें डिटेंशन कैम्प में रखा जाएगा तो ये भारत पर एक भार बन कर रहेंगे, सिर्फ खाएँगे, बीमार होंगे और सरकार का खर्च होगा। इसलिए, इन्हें काम करने की परमिट देना एक व्यावहारिक समाधान जैसा दिखता है। इन्हें इतनी छोटी टुकड़ियों में ऐसी जगहों पर भेजा जाए जहाँ इन्हें जनसंख्या का एक प्रतिशत तक भी होने में दस पीढ़ियाँ लग जाएँ।

संवेदना कहाँ है हमारी?

जब भी आप इनको ले कर संवेदनशील होते हैं तो ध्यान रखिए कि इनका पुराना रिकॉर्ड खराब रहा है और यह कि भारत की जनसंख्या कितनी है, संसाधन की स्थिति क्या है। दो करोड़ लोगों को नागरिक बना कर उन्हें अधिकार देना, भारतीय बजट पर एक बहुत बड़ा धक्का देगा क्योंकि ये ‘अल्पसंख्यक’ कहे जाएँगे। आपको पता ही है कि भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी ‘अल्पसंख्यक’ का तमगा चिपकाए अपने लिए बजट में विशेष हिस्सा पाती है, इनके लिए योजनाएँ अलग से बनती हैं, और सरकारें इनके लिए बहुत सक्रिय रहती हैं।

इसलिए, इन बांग्लादेशी और रोहिंग्या के साथ-साथ जो भी शरणार्थी गैरकानूनी रूप से आए हैं, उन्हें बाहर करने की सारी कोशिशें जरूरी हैं। अगर वो संभव न हो, तो फिर इनकी टुकड़ियाँ बना कर लोकल पुलिस स्टेशनों में इन पर विशेष नजर रखने की बात करते हुए, उन्हीं इलाकों में इन्हें बसाया जाए जहाँ मुस्लिम बिलकुल ही कम हैं। बात यह नहीं है कि क्या मैं इन्हें पहले से ही गलत मान कर बैठा हूँ, बल्कि बात यह है कि कई रोग लाइलाज होते हैं, उनके लिए बचाव ही एकमात्र विकल्प है। मानवता की बातें तब ही संभव हैं, जब मेरे देश के मुस्लिमों को उनका हक पहले मिले, न कि दूसरे देश के घुसपैठियों को।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी