सितारे गर्त में… क्योंकि दूध का जला भारत अब दही भी फूँक-फूँक कर खा रहा: राजनीति हो या फिल्म आपका ‘चुनाव’ ही इनकी निर्लज्जता का जवाब है

सियासत से फिल्म तक वही निर्लज्जता (फोटो साभारः ET)

भारत के वामपंथी-लिबरल जमात के लिए चीजें तीन तरह की होती हैं। एक सही, दूसरा गलत और तीसरा जो गलत है लेकिन उसकी वजह ‘जेन्युइन’ है। इन्होंने तीनों खाँचों में अपनी सहूलियत के हिसाब से चीजें भी फिट कर रखी है। पहले वर्ग में वे बातें हैं जो उनकी कही है। वह हमेशा सही ही होता है। भले वे युद्धिष्ठिर से पहले अशोक का अवतरण करवा दें।

दूसरे वर्ग में वे हैं जो उनके कहे को तर्क की कसौटी पर परखते हैं। जो हिंदुत्व की बात करते हैं। जो राष्ट्र की बात करते हैं। ऐसे लोग इनके लिए हमेशा गलत ही होते हैं। तीसरे वर्ग में वे इस्लामी आतंकी हैं, जिनके गलत करने की ‘जेन्युइन’ वजह है। जैसे, यदि नूपुर शर्मा नहीं होती तो कोई गौस मोहम्मद और मोहम्मद रियाज किसी कन्हैया लाल का गला ही नहीं काटता।

चीजों को परखने की इन्हीं तीन कसौटियों को अंतिम सत्य मानने वाले हमारे देश में हर क्षेत्र में भरे पड़े हैं। राजनीति हो या खेल। साहित्य हो या मनोरंजन। प्रशासन हो या न्यायपालिका। शिक्षा हो या खेती-किसानी… कोई क्षेत्र इनकी विशेषज्ञता से वंचित नहीं है। यही कारण है कि इनके लिए आतंकवाद भी गुड और बैड होता है।

अपनी इस निर्लज्ज्ता में ये केवल हिंदुओं को ही नीचा नहीं दिखाते। केवल भारत राष्ट्र की अवधारणा को ही चुनौती नहीं देते। हमारी महान परंपराओं और संस्कृति को ही तुच्छ नहीं बताते। वे उस नैतिकता, सामाजिक आदर्श और तय रिश्तों को भी बेहयाई से लाँघते हैं, जो सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्यों से अपेक्षित है।

इसी निर्लज्जता की वजह से आज आमिर खान से लेकर नीतीश कुमार तक चर्चा में हैं। राजनीतिक निर्लज्जता की इसी परंपरा के कारण एक व्यक्ति 22 साल में आठवीं बार शपथ ले लेता है। हर बार मुख्यमंत्री वही होता है, बस पाटर्नर बदल जाते हैं। यही निर्लज्ज परंपरा बॉलीवुडियों को यह कहने का साहस देती है कि ‘मत देखो हमारी फिल्म, किसी ने जबर्दस्ती थोड़े की है।’

यह काबिलेगौर है कि जब-जब राष्ट्रवाद की भावना इस देश की नसों में गहरे से उतरती है, यह निर्लज्जता फड़फड़ाने लगती है। लाल सिंह चड्ढा से करीब 23 साल पहले 1999 में आमिर खान की एक फिल्म आई थी ‘सरफरोश’। इस फिल्म के रिलीज होने के चंद दिन के बाद ही कारगिल का युद्ध हुआ। ‘ऑपरेशन विजय’ ने राष्ट्रवाद के भाव को द्रुत गति प्रदान कर रखी थी। उसी साल एक इंटरव्यू में आमिर खान ने इस देश को यह समझाने की कोशिश की थी कि युद्ध के पीछे तो आईएसआई होता है। उन्होंने माना था कि पाकिस्तान के प्रति भारतीयों का विरोध उन्हें निराश करता है, जो ठीक नहीं है।

2014 में नरेंद्र मोदी के रथ पर सवार जब राष्ट्रवाद का यह भाव फिर से देश में लौटा तो इसी आमिर खान को इस देश में डर लगने लगा। तुर्की जब कश्मीर को पाकिस्तान का बताने लगा तो आमिर खान के भीतर का भी उम्माह जाग उठा।

भारत के प्रधानमंत्री ने वैश्विक मंच से पूरी दुनिया को संदेश दिया कि गुड और बैड टेररिज्म कुछ नहीं होता। टेररिज्म मतलब टेररिज्म ही होता है। अब ये गुड और बैड टेररिज्म नहीं चलेगा। इसके बाद अचानक से भारत की सेना को निशाना बनाने का चलन तेज हो गया। उसके पराक्रम और क्षमता पर सवाल उठाए जाने लगे। सिनेमाई पटल पर भारतीय सैनिकों को जोकर की तरह चित्रित किया जाने लगा।

लाल सिंह चड्ढा मैंने देखी नहीं है। वैसे भी मैं फिल्में न के ही बराबर देखता हूँ। लेकिन इस फिल्म की कहानी और किरदारों को लेकर जो तथ्य सामने आए हैं, वे बताते हैं कि इस फिल्म में भी भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू परंपराओं को नीचा दिखाने के चलन का निर्वाह किया गया है।

भले राजनीति से लेकर बॉलीवुड तक इन निर्लज्जों को सहूलियत से अपना शयन कक्ष बदलने की अनुमति देता हो। लेकिन, भारत का बहुसंख्यक समाज आज भी नैतिकता, सामाजिक आदर्श और तय रिश्तों के स्तंभों पर खड़ा है। इसलिए जरूरी है कि चुनावी अखाड़ा हो या मल्टीप्लेक्स, इसका प्रत्युत्तर भारतीय समाज भी निर्ममता से देता रहे। यह उत्तर शमशेरा और लाल सिंह चड्ढा की दुर्गति से ही नहीं रुकता। 2024 में एक बार फिर से मोदी की वापसी ही इसका विराम नहीं है। जब तक इनकी निर्लज्जता पर बार-बार प्रहार नहीं होगा ये नष्ट नहीं होंगे। इनके भीतर का डर गहरा नहीं होगा। इन्हें पता ही नहीं चलेगा कि शयनकक्ष बदलने के दिन बीत गए।

इन पर लगातार प्रहार इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ये हमारे वोट, हमारे प्रेम, हमारे भरोसे, हमारे समय, हमारी जेब, श्रम से उपार्जित हमारे धन से खरीदे गए टिकट की कीमत पर खड़े हुए हैं। हमसे ये सितारे बने हैं। इन्हें बार-बार बताते रहिए कि आज का भारत जग चुका है। वह दूध से ऐसा जला है कि अब दही भी फूँक-फूँककर खाता है।

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