सहिष्णुता यहीं है, क्योंकि विश्वबंधुत्व, उदारता और बड़प्पन की मिट्टी से बना है हिंदुत्व

हिंदुओं ने धार्मिक विद्वेष के परिणामस्वरूप बड़े कत्लेआम सहे हैं

वो आज अचानक सर पर एक किताब लिए शहर की सड़कों पर खुशी से नाच रहा है। वो घोर निराशावादी जिसे किसी ने हँसते हुए भी मुश्किल से देखा होगा, आज वो इतना खुश है तो ज़रूर कोई ख़ास बात होगी।

कौन है ये आदमी? शोपनहावर। और ये सर पर कौन सी किताब रखी है? ‘गीता’। दार्शनिक ने जवाब दिया, इसे गीता कहते हैं। बड़ी विचित्र पुस्तक है। आज मुझे एक ऐसी किताब मिली जिसमें कोई विरोध का स्वर नहीं है, कोई खंडन की बात ही नहीं लिखी। वास्तव में शोपनहावर के लिए ये एक अजूबा था, क्योंकि सारे धर्मों की पुस्तकें पढ़ने के बाद उसने तो यही निष्कर्ष निकाला था कि वो सब आपस में लड़ने की ही शिक्षा देती हैं। लेकिन ये तो सचमुच कमाल की पुस्तक है।

वस्तुत: भारतीय ऋषियों ने जिस सामासिकता के प्रवाह से सदियों से इस धरा को सिंचित किया है, उसी का सारतत्व है गीता। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय समावेशी होने पर बल देता है। वेद ने कभी नहीं कहा कि तुम हिंदू बनो या कुछ और बनो। वेद यही कहते हैं कि तुम जो हो वही ठीक से बन जाओ- ‘मनुर्भव’ अर्थात मनुष्य बनो।

इस धरा पर विचारों की सहिष्णुता पनपी है। नवीन व प्रगतिशील विचारों पर Heresy और Blasphemy के आरोप लगाकर किसी के प्राणहरण करना निश्चित रूप से भारतीय संस्कृति व सभ्यता का हिस्सा नहीं है। ये इसका इतिहास नहीं है। बल्कि इसके विपरीत यहाँ विचारकों को विशेष सुरक्षा प्राप्त थी। ब्रह्महत्या को पाप माना जाता था।

ब्राह्मण, यानी विचारक। नव विचारों के प्रवर्तक होते थे, इसलिए विरोधियों को उनकी हत्या की सहज इच्छा हो सकती थी, किन्तु उनकी हत्या के कृत्य को जघन्य अपराध घोषित कर उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया। हमारे यहाँ किसी भी बड़े विचारक को ज़िंदा नहीं जलाया गया, बल्कि हमने तो घोर नास्तिक चार्वाक को भी ऋषि का दर्जा दिया।

यही कारण है कि आज भारतभूमि में उत्पन्न हुए मत पंथों की किसी भी शाखा को उठाकर देख लें, कालांतर में पनपी कुछ एक कमियों के बावजूद उनमें समन्वय और सामंजस्य का गुण कभी धूमिल नहीं हुआ। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श को ध्वस्त करने वाली कोई बात इस पर हावी नहीं हुई। हमने कभी किसी को अपने लिए खतरा नहीं माना और इस आधार पर किसी पर हमला नहीं किया कि उनकी मान्यता हमसे अलग है।

मन में असुरक्षा का भाव न रखना ही वस्तुत: ताकतवर होने की निशानी है, जो हमें सिर्फ शक की बिनाह पर अन्यों को प्रताड़ित करने की कायराना हरकत से बचाती है।

अगर आपको अपनी स्कूली पढ़ाई याद हो तो जैसे भूगोल की कक्षा में एक आम पंक्ति हुआ करती थी ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’, वैसे ही इतिहास में भी एक बात सभी भारतीय राजाओं के बारे में आमतौर पर लिखी होती थी और प्रत्येक विद्यार्थी की जुबान पर रहती थी- ‘उसने अपने राज्य में धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया। वह स्वयं अमुक धर्म को मानने वाला था, किंतु उसके साम्राज्य में सभी धर्मों को समान रूप से राज्य का आश्रय प्राप्त था।’

यानी धर्मनिरपेक्षता भारत के DNA में है। इसके बावजूद भारत के मूल धार्मिक मंतव्यों को जिन्हें हम आज हिंदुत्व के नाम से जानते हैं, उस हिंदुत्व को साम्प्रदायिकता के नोबेल से नवाजा जाता है। जिन लोगों का ईश्वर ही निरपेक्ष है उनको भला पंथ सापेक्ष होकर करना ही क्या था। उपासना का मतलब है अपने उपास्य के गुणों को धारण करना। अथर्ववेद का मंत्र कहता है- ‘अकामो धीरो अमृत: स्वयंभू:’ वह उपास्य ईश्वर अकाम यानी निरपेक्ष है। उस निरपेक्ष और अकाम ईश्वर के उपासक पंथ निरपेक्ष न होकर साम्प्रदायिक हो जाते ये कैसे संभव था?

यजुर्वेद से एक विचार उठाकर देख लीजिए- ‘मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामाहे।’ मैं सभी को मित्र की दृष्टि से देखूँ और न केवल मैं बल्कि हम सब यानी वो पूरा समुदाय जिसका मैं हिस्सा हूँ वो अन्यों को मित्र की दृष्टि से देखे। वेदों में समन्वयपरक ऋचाओं की कोई कमी नहीं है। समन्वय की इतनी प्रबल प्रेरणा के बाद स्वाभाविक है कि हम सबको साथ लेकर चलने वाला समुदाय ही होते न कि विघटनकारी, लेकिन न जाने लोगों ने आज कल कैसी कला सीख ली है, वो शीशे में अपना मुँह देखते हैं और कमियाँ हमारे चेहरे में गिनाते हैं।

जब कहा कुछ जाए और किया कुछ जाए तो उसे पाखंड कहते हैं। हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता का पाखंड आजादी के बाद से ही चल रहा है। उसके साथ-साथ उदारवाद का एक सहायक पाखंड अखंड रूप से ध्वन्यमान है। ये तथाकथित उदारवाद धर्म निरपेक्षता के और धर्म निरपेक्षता उदारवाद के कंधे पर एक साथ सवार होने का प्रयास करते-करते आपस में इतने गड्डमड्ड हो गए हैं कि जागृत जनमानस का एक सजग आघात इसे लुढ़का कर पातालगामी बनाने के लिए पर्याप्त है। किंतु कुछ लोगों का अज्ञान और कुछ की धूर्तता इसे संभव ही नहीं होने देती।

‘सत्य का आग्रह रखना’ और ‘असत्य-अन्याय का प्रतिकार करना’ इन शब्दों का यदि कोई अर्थ हो तो उसी अर्थ का मान रखते हुए साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, उदारता, सहिष्णुता, असहिष्णुता को नापने के दोहरे मापदंडों के बारे में यहाँ कुछ विचार रखने का मन है।   

वास्तव में भारत अब विविधताओं के साथ-साथ विरोधाभासों का देश भी बनता जा रहा है। धर्म के नाम पर देश का बँटवारा करने वाले उदार हैं और उस बँटवारे को झेलने वालों और सालों धार्मिक प्रताड़ना का शिकार हुए हिंदुओं को सत्तर साल बाद थोड़ी सी राहत पहुँचाना भी साम्प्रदायिकता है।

एक ही स्थल यरुशलम से निकले अलग-अलग धर्मों को दुनिया भर के कितने ही देशों में राजकीय धर्म का दर्जा हासिल है। सदियों देश-देशांतर की ख़ाक छानने और शरणार्थियों जैसा जीवन बिताने के बाद यहूदी बंधुओं भी को अपना अलग देश मिल जाता है, जो वास्तव में खुशी की बात है। लेकिन इस धरती के विस्तृत भूभाग पर शासन कर चुके और अभी भी बड़ी संख्या में विद्यमान आर्य या हिंदू दुनिया के नक़्शे में किसी एक देश पर उंगली रखकर दावा नहीं कर सकते कि ये उनका है। वो इसलिए कि हिंदुओं का ऐसा करने का कोई मकसद ही नहीं रहा। वो तो स्वयं शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को गढ़ने वाले हैं। धरती के हर कोने से जो भी आया हमने ‘अतिथि देवो भव’ की भावना से उसे गले लगाया।

क्या ये उदारता बरतने के लिए हिंदुओं को अतिरिक्त तनख्वाह दी जाती है? नहीं, बल्कि वही अतिथि हमारे ही घर में रहकर हम पर जजिया लगाता है, खराज और ख़ुम्स की लूट मचाई जाती है। आप कहेंगे कि ये तो पुरानी बात हो गई। इसका जिक्र तो बस एक सिलसिला याद दिलाने के लिए है, वरना आज की बातों में पुरानी बातों से कम दम नहीं है।

आजकल एक महा बेतुका सवाल भी चल पडा है- ‘हिन्दुस्तान तुम्हारे बाप का है क्या?’ इस बात को पूरी तरह से नज़रअंदाज करते हुए कि जो सवाल कर रहा है और जिससे सवाल किया जा रहा है उन दोनों का बाप एक ही है। लेकिन धर्म के नाम पर जो बाप को भी बाँट दे उन्हें रोकने वाला कोई नहीं, उनकी तो हर जगह हरी झंडी ही है। लाल बत्ती तो बाकियों के लिए बनी है। धर्मनिरपेक्षता खुद को शीशे में देखने जाए तो पहचान भी न पाए।

कोरोना के संकट में लगातार सेवा कार्यों में लगे RSS के जवानों को आतंकवादी कहना और संक्रमण को जान-बूझकर फैलाने वालों के खिलाफ एक शब्द भी न बोलना, उल्टा उनका बचाव करना आजकल घनघोर उदारवाद की श्रेणी में आते हैं। वो बम फोड़कर भी सिर्फ हेडमास्टर के बेटे और और गणित के टीचर हैं। गजब बातें हैं इस देश में, यहाँ आतंकवादी रोटियाँ बाँटते हैं और शान्तिधर्मी बम फोड़ते हैं।

अब देखिए, हमने सुना था भावनाएँ कोमल होती हैं। फिर पता चला कि कुछ धार्मिक भावनाएँ हैं जो बिहारी की नायिका से भी ज्यादा सुकोमल होती हैं। इसलिए वही सबसे अधिक आहत होती हैं। फिर वही सुकोमल भावनाएँ आहत होने के नाम पर इतनी दहशतगर्द कैसे हो जाती हैं कि इंसानी जान की प्यासी हो जाती हैं? जिस मानवता की रक्षा के लिए उन सुकोमल धार्मिक भावों का अस्तित्व था, कैसे वो उसी मानवता को तबाह करने पर आमादा हो जाती हैं? फिर उन नृशंस पापों के बदले जन्नत में सुकोमल हूरें मिलती हैं? इस खोजबीन भरे अनुत्तरित जिज्ञासा भाव की व्यर्थ कवायद को शांत करने के घोर मानसिक प्रयास में वो याद आया जो महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा था- ‘और अधिक सवाल मत करो गार्गी, तुम्हारा सिर फट जाएगा।’ क्योंकि यहाँ तो सवाल पर सवाल हैं और जवाब पर बवाल है। अस्तु।

आपने बहुत से ऐसे बच्चे देखे होंगे जो दूसरों को पीट कर खुद रोने लगते हैं। बड़े लोग समझ नहीं पाते हैं कि ऐसे में किसका पक्ष लें। चिंटू ने पिंटू की गर्दन दबोच ली, कसकर उसका मुँह भी दबा दिया। जब दम घुटने लगा तो पिंटू ने किसी तरह अपनी गर्दन छुड़ाई। अभी खडा होकर हाँफ ही रहा था कि चिंटू ने रो-रोकर बुरा हाल मचा दिया कि देखो पिंटू ने मेरा हाथ मरोड़ दिया, इस पर लाल निशान हो गए और अब वो मुझे जोर-जोर से धमका भी रहा है। अरे भाई वो धमका कहाँ रहा है वो तो बस जोर-जोर से अपनी हाँफ उतार रहा है। लेकिन अब ऐसी सफाइयों का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि कैमरा बिल्कुल सही समय पर पहुँच गया था।

जब मस्जिद ने मंदिर को अपने नीचे कुचल कर दबाया तब किसने देखा? आज जब उसने अपनी दबोची हुई गर्दन को बाहर निकाला तो कैमरा ऑन था। अरे! इसने अपनी गर्दन बाहर कैसे निकाल ली? देखो इसने अपनी गर्दन बचाने के चक्कर में चिंटू को कितनी खरोंचें मार दीं। सांप्रदायिक है ये। असहिष्णु है। इतना भी सहन नहीं कर सकता? देखो चिंटू कितना डरा हुआ है। इतने में कोरोना की बीमारी आ धमकी। आर्थिक स्थिति ख़राब हो गई। अब चिंटू को पैसों की ज़रूरत पड़ी। उसने पिंटू से पैसे माँगने में एक सेकेण्ड भी बर्बाद नहीं किया। क्यों भई, अब पिंटू ये भी तो कह सकता है कि ये मेरे खून पसीने की कमाई है, अब इसे मैं ही इस्तेमाल करूँगा। जब मस्जिद के आगे वितरण किए जाने वाले, खाने को लेने आए हिंदू को दुत्कार कर पंक्ति से अलग किया जा सकता है तो फिर मंदिरों की संपत्ति के इस्तेमाल में ये क्यों संभव नहीं है? ओहो ये क्या बात कर रहे हो? घोर साम्प्रदायिक!!! शान्तं पापम्, शान्तं पापम्!!! कब्जे के लिए मस्जिद, दान के लिए मंदिर। उदारवाद जिंदाबाद।

आतंकी वारदातों को अंजाम देते हुए जो आतंकी स्पष्ट रूप से मजहबी नारे बुलंद करते हैं, उनके आतंक का कोई धर्म नहीं होता। वहीं बिना किसी सबूत के किसी आतंक का रंग भगवा कर दिया जाता है। कहते हैं कि रेत से तेल नहीं निकलता, लेकिन इतना सुस्पष्ट और विशुद्ध दोगलापन तो किसी रेत से निकले तेल को पीकर ही आ सकता है।

हिंदुओं ने धार्मिक विद्वेष के परिणामस्वरूप बड़े-बड़े कत्लेआम सहे हैं। इस विषय में बहुत सा साहित्य और शोध मौजूद है जिसे आप स्वयं पढ़ सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में हिन्दुओं सहित सभी मतों की कुछ अनपेक्षित व हानिकारक बातों का प्रतिकार किया। किंतु विरोध के सुर ग्रंथ के केवल उस खंड पर उठे जिसमें इस्लाम की आलोचना की गई थी और सदा की तरह ही ये एक प्राणघातक विरोध था।

ऐसे ही न जाने कितने विचारकों को इस धार्मिक उन्माद ने समय से पहले हमसे निर्दयता से छीना है। हर युग की यही कहानी है। किंतु असहिष्णुता का अवॉर्ड किसे दिया जाता है? इस असहिष्णुता के अवॉर्ड को बनाने की विधि भी बहुत विचित्र है। कुछ अति सहिष्णु लोग इधर से अपना वो अवॉर्ड डालते हैं, जो उन्हें किसी न किसी सहिष्णुता के नाम पर मिलता है और उधर से ये असहिष्णुता का अवॉर्ड बाहर आता है। फिर वो समग्र हिंदुत्व को समर्पित कर दिया जाता है।

ये सब बातें भड़काने या सांप्रदायिक सद्भाव को ख़त्म करने के लिए नहीं हो रही हैं। हिंदुत्व तो बना ही विश्वबंधुत्व, उदारता और बड़प्पन की मिट्टी से है। यदि वो अन्याय का शिकार हो रहा है तो प्रतिकार के लिए उसकी धार्मिक भावनाओं को भड़काने की ज़रूरत नहीं है। वो आँख खोल कर देश के संविधान से ही अपने ऊपर हो रहे अन्यायों के विरुद्ध उपचार ले सकता है। इसके लिए छाती पर बम बाँधकर निर्दोष लोगों को विस्फोट से उड़ाने का अमानवीय कृत्य करने की जरूरत नहीं है।

भारत की महान धरोहर की रक्षा इन छिछले उपायों से संभव भी नहीं है, क्योंकि ये उसकी मूल शिक्षाओं के विरुद्ध है। ये सब लिखना तो बस धर्मनिरपेक्षता के उलटे पहाड़े को सीधा करके समझने का एक छोटा सा प्रयास है।

सच तो ये है कि घनघोर साम्प्रदायिकता की ईंटों से चिने महल पर सेक्युलरिज़म का पेंट चढ़ाकर अपने उदारवाद का झंडा बुलंद करने वालों को अगर तर्क की एक खरोंच भी तबियत से लग जाए तो विद्वेष की बदरंग परतें बाहर निकल आती हैं। ये परतें उन लोगों को तो साफ़ नज़र आती हैं जो अपनी आँख से देखते हैं किंतु जिन दर्शकों को उस पेंट के ही रंग वाला चश्मा बेचा गया है, उन्हें नज़र नहीं आती। उनके चश्मे का ख़ास रंग उस खुली पोल को स्वत: ढक लेता है। ऐसे लोगों को याद रखना चाहिए कि जब जनमानस अंगड़ाई लेता है तो आप उसकी इस दृष्टि से या उस दृष्टि से बस व्याख्या ही कर सकते हैं, उसे बदल नहीं सकते।

आज भारत की संस्कृति ने फिर से अपनी पहचान बनानी शुरू की है, क्योंकि हमने उस पर बिना किसी झेंप के गर्व करना सीख लिया है। और वो गर्व करने योग्य है। वरना अपनी चीज़ पर सिर्फ अपना होने की वजह से गर्व किया जाए तो ये वजह तो सभी के पास मौजूद है, किंतु उसकी विशेषताओं को पहचानकर उस पर गर्व करना उस गर्व की परिपक्वता और दीर्घजीविता के लिए अत्यंत आवश्यक है। आइए भय, पूर्वाग्रह और तुष्टिकरण के परदे से बाहर निकल कर खुली आँखों से सत्य के प्रकाश का अवलोकन करें।

Dr. Amita: डॉ. अमिता गुरुकुल महाविद्यालय चोटीपुरा, अमरोहा (उ.प्र.) में संस्कृत की सहायक आचार्या हैं.