वीर दास जैसों की भारत घृणा ‘अभिव्यक्ति की आजादी’, कंगना की अभिव्यक्ति ‘घृणा’: कुंठा की ये नंगई नहीं चलेगी लिबरलों

लिबरल दोमुँहापन: वीर दास पर कुछ, कंगना पर कुछ

कई वर्षों से वीर दास को एक ‘कॉमेडियन’ के तौर पर जाना जाता है। वे भी खुद को ‘कॉमेडियन’ ही बताते हैं। यह बताते समय इस बात को हाइलाइट करना नहीं भूलते कि वे अराजनीतिक हैं। अर्थात हर तरह से लिबरल गुण संपन्न। खुद को अराजनीतिक बताना हर लिबरल का ऐसा हथियार है, जिसे कहीं भी किसी भी मौके पर चलाया जा सकता है।

यही कारण है कि आए दिन सोशल मीडिया पर इनका दोमुँहापन बार-बार दिखाई देता है। प्रश्न किए जाने पर ये ‘कॉमेडियन’ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रजाई ओढ़ लेता है। प्रश्नों के उत्तर नहीं देता क्योंकि उसका ऐसा मानना है कि अधिकतर भारतीय उससे प्रश्न करने लायक नहीं हैं। इस बात में बड़ी गंभीरता से विश्वास करता है कि वो प्रश्नों से ऊपर है।

कॉमेडी के नाम पर भारत की धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के बारे में यह ‘कॉमेडियन’ जो कुछ कहता है, उसके अनुसार एक निर्णय है। ऐसा निर्णय जिसके विरुद्ध न तो अपील की जा सकती है और न ही उस पर प्रश्न उठाया जा सकता है। इस ‘कॉमेडियन’ का आचरण बार-बार यह साबित करता रहा है कि ये लोकतांत्रिक बहस को फिजूल मानता है। अपनी किसी थ्योरी या विचार का पूरे देश के परिप्रेक्ष्य में सामान्यीकरण कर देना इसकी तथाकथित कॉमेडी का मूल तत्व है।

वीर दास का एक स्टैंडअप कॉमेडी का वीडियो वायरल है और सोशल मीडिया पर बहस का विषय भी। वाशिंगटन में अपने शो की शुरुआत करते हुए वे बताते हैं कि ‘वी आर सोल्ड आउट’। अब इसे उनके विरोधी और आलोचक चाहे जैसे देखें पर उनकी ऑडियंस इस पर ताली बजाती है। वे आगे बताते हैं कि वे भारत से आते हैं जहाँ दिन में महिलाओं की पूजा की जाती है और रात में उनका सामूहिक बलात्कार किया जाता है।

इतने बड़े देश को देखने का यह तरीका सामान्य नहीं है। पर इस तरीके का सहारा लेकर भारत के प्रति इस तरह के दृष्टिकोण को सामान्य बनाने का प्रयास साफ़ दिखाई देता है। वैसे भी ऐसे प्रयास कोई पहली बार नहीं हो रहे हैं कि इसके पीछे का उद्देश्य लोगों की समझ में न आए।

जाहिर है, इससे अधिकतर भारतीयों में मन में प्रश्न उठेगा कि ये ‘कॉमेडियन’ किस भारत की बात कर रहा है? यह भारत कहाँ है जिसमें महिलाओं के साथ ऐसा हो रहा है? यदि इस कॉमेडियन का अनुभव ऐसे किसी भारत में रहने का है तो हमारे भारत को अपनी थ्योरी और उससे बनी तथाकथित कॉमेडी में क्यों घसीट रहा है?

पर ऐसे प्रश्न इस ‘कॉमेडियन’ के लिए महत्वहीन हैं। ये ऐसे प्रश्न करने वालों को संघी, भाजपाई या आईटी सेल वाला कहकर इन पर गोली दाग कर इन्हें खारिज कर देता है या प्रश्न के विरोध में गौमूत्र की बात करके इस प्रश्न को ख़त्म करने की कोशिश करता है। अपने एक्ट पर प्रश्न उठाया जाना उसे मँजूर नहीं है। दुनिया भर को अपनी आलोचना का शिकार बनाने वाला खुद को हर आलोचना से ऊपर समझता है।

वो ऐसा कर सकता है क्योंकि उसके बचाव में बुद्धिजीवी, पत्रकारों, संपादकों और भारत में लोकतंत्र की रक्षा के लिए लगातार युद्ध करने का दावा करने वालों की एक पूरी फौज खड़ी हो जाती है जो मूल प्रश्न को अनदेखा कर केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बचाव में शोर मचाती है।

ये वही फौज है जिसके लिए केवल तथाकथित लिबरल के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही असली स्वतंत्रता है। ये वही फौज है जो बार-बार लेफ्ट-लिबरल पत्रकारों के फेक न्यूज की घटनाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कंबल ओढ़ाते हुए बरामद होती है। जो कंगना रनौत की बातों के विरोध में किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है, पर वीर दास की हर बात के समर्थन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हथियार चलाने से बाज नहीं आती। ये फौज हर वीर दास की रक्षा कवच है।

अपने वीडियो के विरोध में खड़े किए गए प्रश्नों के जवाब में ‘कॉमेडियन’ वीर दास ने एक वक्तव्य जारी किया, जिसमें उसने कुतर्क और दर्शन की लगभग ढाई सेर जलेबी काढ़ी है। यह हर लेफ्ट-लिबरल का स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर। हर लेफ्ट-लिबरल कानून की बात पर नैतिकता की चाशनी में सना कुतर्क ठेलता है और नैतिकता की बात पर कानून की धाराएँ कोट करता है। स्पेसिफिक प्रश्नों के उत्तर देने की बात पर दर्शन ठेलता है और प्रश्न करने वालों को संघी बताकर ढिठाई के ऐसे तीर छोड़ता है कि देखकर सामान्य व्यक्ति बिलबिलाने लगे। ‘कॉमेडियन’ वीर दास अपने वक्तव्य में इसी पुराने फॉर्मूले के बिल में घुसा नज़र आता है। यही कारण है कि अपने जिस ऐक्ट में वीर दास एक देश के रूप में भारत के प्रति असम्मान दर्शाता है, उसी असम्मान पर उठाए गए प्रश्न पर जारी अपने वक्तव्य में वह भारत की गरिमा के पीछे छिपने की कोशिश करता है।

वीर दास ने जो कहा या किया वो न तो पहली बार किया है और न ही आखिरी बार। वो भविष्य में भी ऐसा करता हुआ बरामद होगा। ऐसे लोगों के लिए 2014 के बाद का भारत सामाजिक रूप से असहिष्णु और धार्मिक रूप असह्य है। इस भारत में उसका दम घुटता है।

अपने विचार को पूरे देश के लिए निर्णय के रूप में प्रस्तुत करने वाले दर्जनों वीर दास शायद इस भारत के लिए तैयार नहीं थे और यही कारण है कि वे असहज महसूस करते हैं। इस असहजता को भारत के विरुद्ध सार्वजनिक मंचों पर परोस कर वीर दास जैसे लोग अपनी-अपनी कुंठा को मारने का प्रयास करते नज़र आएँगे। आवश्यकता है इनके ऐसे हर प्रयास के विरोध किए जाने की क्योंकि अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए, कुंठा के सार्वजनिक प्रदर्शन की नहीं।