असम में डॉक्टर पर हमला हो या बंगाल हिंसा, दोनों जनसंख्या जिहाद की उपज: सरकारों के चेतने का समय

डॉक्टर सेऊज कुमार सेनापति की निर्दयता से पिटाई करते अपराधी  और बंगाल चुनाव बाद हिंसा

असम के होजाई जिले के एक अस्पताल में एक मरीज की मृत्यु के बाद उसके करीब बीस रिश्तेदारों ने इलाज कर रहे डॉक्टर की न केवल निर्दयता से पिटाई की बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आवश्यक उपकरणों और अस्पताल की बिल्डिंग को भी क्षति पहुँचाई। डॉक्टर की पिटाई के वीडियो के सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद डॉक्टर और स्वास्थ्य सेवाओं में लगे सहायकों के मन में रोष स्वाभाविक है। डॉक्टर की पिटाई करने वाले सभी व्यक्ति मुस्लिम थे।

महामारी के समय, जब सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लगा अधिकतर मानव संसाधन लगातार काम करने की वजह से तनावग्रस्त है, ऐसा आपराधिक कृत्य केवल स्वास्थ्य कर्मियों के मन में ही नहीं, आम लोगों के मन में भी भय पैदा करता है। अपराधियों की पहचान कर ली गई और मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने अपने ट्वीट में हमलावरों का नाम भी बताया और साथ ही प्रशासन को अपराध में लिप्त सभी की गिरफ्तारी और आगे की कानूनी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। एक अच्छा प्रशासन यही करता है। असम के वर्तमान मुख्यमंत्री की छवि एक कुशल राजनेता की है इसलिए लोगों को आशा है कि उनका प्रशासन अपराधियों के विरुद्ध आवश्यक हर कार्रवाई करेगा।

https://twitter.com/himantabiswa/status/1399750324953354247?ref_src=twsrc%5Etfw


अस्पतालों में ऐसे अपराध की यह घटना न तो पहली है और न ही आखिरी। ऐसी घटनाएँ पहले भी होती रही हैं पर बात यह है कि पहले घटी ऐसी घटनाओं से जो प्रश्न उठते रहे हैं उन्हें हर बार पीछे क्यों फेंक दिया जाता है? हाल के वर्षों में कोलकाता के सरकारी और निजी अस्पतालों में न जाने कितनी बार ऐसा देखा गया और ऐसा करने वाले अधिकतर एक ही धर्म के लोग होते हैं इसलिए सरकार उनके विरुद्ध किसी तरह की प्रशासनिक कार्रवाई से कतराती है। कई बार तो अस्पताल अपनी तरफ से ही किसी तरह की पुलिस कार्रवाई के पक्ष में खड़े नहीं होते और आगे के लिए एक और हमले का रास्ता खोल देते हैं।  

ऐसे में यह आश्चर्य नहीं कि एक आम भारतीय ऐसी आपराधिक घटनाओं को डेमोग्राफी में हुए बदलाव के साथ रख कर देखता है। असम में हुई इस ताज़ा घटना को ही देख लें। घटना जिस जिले में हुई, यानी होजाई, यदि उसकी डेमोग्राफी में पिछले पाँच दशकों के बदलाव को देखा जाए तो पता चलेगा कि जिन तहसीलों को लेकर यह जिला बाद में नगाँव से अलग किया गया वहाँ 1950 के दशक में मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से भी कम थी और आज पचास प्रतिशत से भी अधिक है।

ऐसे में यदि इस तरह के आपराधिक कृत्यों को लोग जनसंख्या में हुए बदलाव के साथ रख कर देखते हैं तो क्या गलत करते हैं? यदि इस बदलाव को समझने की कोशिश करेंगे तो यही लगेगा कि एक मरीज की मृत्यु पर अस्पताल के डॉक्टर के साथ यह व्यवहार और तोड़-फोड़ मात्र संयोग नहीं है। ऐसे अपराध आने वाले समय की झलक भी दिखाते हैं और यह संदेश भी देते हैं कि संसाधनों पर अतिक्रमण इस राष्ट्र की नियति है। 

प्रश्न यह है कि ऐसे अपराध के बार-बार किए जाने के मूल में क्या जनसंख्या में बदलाव एक मात्र कारण है? जनसंख्या में ऐसा निरंकुश बदलाव, जो असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में देखा गया, बहस का एक अलग विषय है पर ऐसी घटनाओं के बार-बार दोहराए जाने के पीछे सरकारों और उनके प्रशासनों की क्या भूमिका रही, इस प्रश्न और उससे सम्बंधित विषयों पर सार्वजनिक बहस के लिए कभी रत्ती भर जगह भी नहीं छोड़ी गई।

जनसंख्या में बदलाव, खासकर धार्मिक बदलाव, का व्यक्ति, समाज और अपराध के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव हमेशा दिखाई देता रहा है पर इन सब के बीच सरकारों की भूमिका से जो समीकरण बना उसने केवल प्रश्नों को ही जन्म दिया, उत्तर कभी मिले ही नहीं। सरकारों ने जो भूमिका निभाई उसमें सरकारों की कम और राजनीतिक दलों की छाप अधिक रही। 

अपराध किसी भी समाज या देश के लिए कोई नई बात नहीं है। अपराध होंगे पर उन्हें रोकने के लिए जो किया जाना चाहिए, उससे मुँह मोड़ने का अर्थ किसी भी सरकार के लिए कर्त्तव्य से भागने के बराबर है। जनसंख्या में लगातार हो रहा बदलाव किसी न किसी अपराध की सूरत में हमारे सामने आता रहा है पर उन्हें नजरंदाज कर देना न केवल सरकारों के लिए सरल कदम रहा है, बल्कि अब ऐसे क़दमों को समाधान के रूप में देखा जाना लगा है। हाल ही में बेंगलुरु में बांग्लादेशियों द्वारा की गई भीषण बलात्कार की घटना ऐसे ही सरकारी समाधानों का नतीजा है। 

यह परिवर्तन अब एक-दो राज्यों तक सीमित नहीं रहा। यह अब असम और पश्चिम बंगाल से आगे की बात है। इन राज्यों से आगे का सच है। इस बदलाव को भ्रम बताने और साबित करने की कोशिश अब पुरानी हो चुकी है। यह कोशिश आगे भी चलेगी और शायद और तीव्र हो जाए पर सच यही है कि यह निरंकुश बदलाव किसी तरह का भ्रम नहीं बल्कि यथार्थ है। यह ऐसा यथार्थ है जो आने वाले समय में लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देता दिखेगा। हमारी सरकारें जितनी जल्दी इस यथार्थ को स्वीकार कर लें, उनके लिए समाधान खोजना कुछ सरल हो जाएगा।