सेकुलर नहीं, अच्छा हिंदू बनिए, उनको उनकी ईद के साथ छोड़ दीजिए, क्योंकि फूलों की यही बारिश कल पत्थर बन बरसेंगे

पटना के गाॅंधी मैदान में ईद पर नमाज अता करने को जुटे लोग (फोटो साभार: @NitishKumar)

दिवंगत सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj) के सबसे चर्चित और ऐतिहासिक भाषणों में से एक जून 1996 को लोकसभा में दिया गया था। इसमें उन्होंने बताया था कि कैसे तथाकथित सेकुलरों का सेकुलरिज्म हिंदुओं को गाली देने से शुरू होता है। कैसे हिंदू और राष्ट्र हित की बात करने वालों को साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छा हिंदू वह होता है जो अपने धर्मों का अनुसरण करते हुए दूसरों के मजहब का सम्मान करे। यही परिभाषा उन्होंने एक अच्छे मुस्लिम, सिख और ईसाई के लिए भी बताई थी। सही मायनों में यही सेकुलरिज्म है।

लेकिन, हमने सेकुलरिज्म की जो परिभाषा गढ़ रखी है या हम पर जो थोप दी गई है, वह मुस्लिम तुष्टिकरण से शुरू होकर मुस्लिम तुष्टिकरण पर ही खत्म हो जाती है। इस सेकुलरिज्म में हिंदू भावनाओं की, उनके त्योहारों की कोई जगह नहीं है। इस सेकुलरिज्म में ईद के दिन नमाजियों पर फूल बरसाना भाईचारा होता है। लेकिन ‘मुस्लिम काॅलोनी’ से रामनवमी की शोभा यात्रा निकालना उन्मादी हिंदू हो जाना होता है।

आप कहेंगे कि इतने ज्ञानी तो आप भी हैं, फिर मैं क्यों ज्ञान दे रहा हूँ। इसकी वजह उत्तर प्रदेश से आया वह वीडियो है, जिसमें बाराबंकी के पीरबटावन स्थित ईदगाह से ईद की नमाज पढ़कर निकले नमाजियों पर हिंदू फूलों की बारिश करते दिख रहे हैं। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटाफाॅर्मों से लेकर व्हाट्सएप पर आए वे संदेश हैं जो ईद की बधाइयाँ बाँट रहे हैं। ऐसा करने की भारत जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष देश’ के प्रधानमंत्री या प्रधान सेवक की मजबूरी समझी जा सकती है। सियासी मजबूरी उनकी भी समझी जा सकती जो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति करते हैं। लेकिन आम हिंदुओं की वह कौन सी मजबूरी है जो उन्हें कथित भाईचारे की मिसाल बनने को इतना उद्वेलित करती है? पॉलिटिकली करेक्ट दिखने की चूल मचा देती है?

इसका कारण हम पर थोप दी गई वह ‘सोच’ लगती है, जिसको सुषमा स्वराज ने अपने उस ऐतिहासिक भाषण में बेनकाब किया था। उन्होंने बताया था कि सिखों का नरसंहार करने वाले, राम भक्तों पर गोली चलाने वाले, हिंदू शरणार्थियों को भगाने वाले, मुस्लिम घुसपैठियों को बसाने वाले इस देश में खुद को ‘सेकुलर’ कहते हैं। लेकिन, जैसे ही कोई हिंदुओं की बात करता दिखता है, उसे ‘साम्प्रदायिक’ घोषित कर दिया जाता है। इस थोपी गई सेकुलरिज्म को चुनौती देते हुए सुषमा स्वराज ने कहा था, “हम साम्प्रदायिक हैं, हाँ, हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि हम वंदे मातरम् गाने की वकालत करते हैं। हाँ, हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान के लिए लड़ते हैं। हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि धारा 370 को समाप्त करने की माँग करते हैं। हाँ, हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि हिन्दुस्तान में गोरक्षा और उसके वंश और वर्धन की बात करते हैं। हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि हिंदुस्तान में समान नागरिक संहिता बनाने की माँग करते हैं। हम साम्प्रदायिक हैं, क्योंकि कश्मीरी शरणार्थियों के दर्द को जुबान देने का काम करते हैं।”

सेकुलरिज्म की थोपी गई परिभाषा को विस्तार देने की नीयत से ही सोनिया गाँधी वह कानून ला रही थीं, जिसमें दंगा होने पर हिंदू ही जिम्मेदार माना जाता। इसी परिभाषा को आज ‘मुस्लिम काॅलोनी’ के नाम पर विस्तार दिया जा रहा है। मजहबी आतंकियों को ‘पीड़ित/भटका हुआ’ बताना इसी परिभाषा के तहत चली आ रही पुरानी परिपाटी है जो अब ‘मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी’ तक पहुँच चुकी है। यही सेकुलरिज्म माफिया-आतंकी अतीक अहमद में अखिलेश यादव, मायावती, काॅन्ग्रेस, ओवैसी जैसों को मजहब देखने की ताकत देता है। इसी सेकुलरिज्म की उपज इफ्तार के नाम पर वह जलसा है जो हिंदू त्योहारों पर हमलों के बाद भी होता है। इसी सेकुलरिज्म के कारण हिंदू पहले पत्थर खाने, फिर गुनहगार ठहराए जाने को अभिशप्त हैं। इसी सेकुलरिज्म के अनुसार हिंदू राष्ट्र की पताका लगाने, हिंदू राष्ट्र लिखा टी शर्ट पहनने पर आपकी गिरफ्तारी हो जाती है। इसके ही कारण ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाकर भीड़ आपको जेल भेज देती है। इसके कारण ही ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष हिंसक हो जाता है और नारा ए तकबीर शांति का संदेश।

मैं आपको कोई बहुत पुरानी बातें याद नहीं दिला रहा। पटना में जुमे की नमाज के बाद माफिया अतीक अहमद के समर्थन में नारेबाजी तो 22 अप्रैल 2023 को मनी ईद से एक दिन पहले की है। जिस पाक रमजान महीने के बाद यह ईद आई है, उसी दौरान काजल हिंदुस्तानी की गिरफ्तारी हमने देखी है। ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाने वाली भीड़ देखी है। देश के कई राज्यों में रामनवमी शोभा यात्राओं पर हुए हमले देखे हैं। यह भी देखा है कि कैसे हिंदू त्योहारों पर तमाम तरह की प्रशासनिक बंदिश लगाई गई है।

मैं यह नहीं कह रहा कि आप भी उनकी तरह हो जाए। वैसे भी उनके जैसा होना हिंदुत्व नहीं है। लेकिन ईद के नमाजियों पर फूलों की बारिश करना भी हिंदुत्व नहीं है। उन्हें ससम्मान उनके त्योहारों के साथ छोड़ देना हिंदुत्व है। इसलिए उस लिजलिजेपन को त्याग दीजिए जो आपके भीतर कथित सेकुलरिज्म से पैदा होता है। इसी लिजलिजेपन के कारण सेकुलरिज्म की यह परिभाषा दशकों से ढोई जा रही है। यही सियासी दलों को उनका तुष्टिकरण/तृप्तिकरण करने देता है। यही ईद के फूल को रामनवमी पर हिंदुओं पर बरसने वाला पत्थर बना देता है।

जिस दिन आम हिंदू सेकुलर दिखने के इस रोग से मुक्त हो जाएगा, उसी दिन तुष्टिकरण/तृप्तिकरण की राजनीति के साथ-साथ हिंदुओं पर पत्थरबाजी करने वालों का भी बधिया हो जाएगा। सो, सेकुलर नहीं। अच्छा हिंदू बनिए।

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