‘बहरा नहीं हूँ मैं’: प्यार के लिए तरसते हर बच्चे को हिंसक जानवर बना रही ‘Animal’? किशोरों को भटकाने वाले दृश्य, अभिभावकों की सख्ती के पीछे मजबूरी भी

'बहरा नहीं हूँ मैं...' : फिल्म 'ANIMAL' के जरिए हम क्या सिखाने जा रहे हैं बच्चों को (साभार- स्क्रीनशॉट मूवी ट्रेलर एनिमल)

रणबीर कपूर और रश्मिका मंदाना की 1 दिसंबर 2023 को रिलीज होने वाली फिल्म ‘ANIMAL’ का ट्रेलर रिलीज होने के बाद से ही खासी चर्चा में है। फिल्म की एडवांस बुकिंग के लिए लोग टूट पड़े हैं। इस फिल्म के 3 मिनट के ट्रेलर को देख इसका इतना क्रेज है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि फिल्म और किरदार गहरे तक लोगों के दिलो-दिमाग पर असर डालने की कुवत रखते हैं।

बता दूँ कि ‘अर्जुन रेड्डी’ और ‘कबीर सिंह’ फेम डायरेक्टर संदीप रेड्डी वांगा की डायरेक्ट की गई इस फिल्म को पिता-पुत्र के बिगड़े हुए रिश्तों पर आधारित बताया जा रहा है। फिल्म का ट्रेलर भी ऐसा ही कुछ आभास देता है।

फिल्म के ट्रेलर शुरू होते ही रणवीर कपूर की आवाज सुनाई पड़ती है, “ओके पापा लेट्स प्ले गेम।” इसके बाद सफेद कुर्ता पायजामा पहने पिता के किरदार में अनिल कपूर और बेटे के किरदार में रणवीर कपूर पर्दे पर होते हैं।

बेटा पापा से कहता है, “पापा आपको याद है 5th स्टैंडर्ड में था और माइकल जैक्शन का कॉन्सर्ट हो रहा था बॉम्बे में, आप जानते थे कि मैं माइकल जैक्शन का कितना बड़ा फैन था। मेरे सारे दोस्त जा रहे थे, लेकिन मैं नहीं गया, क्योंकि आपका बर्थडे था। उसी दिन को रिप्ले करते हैं।”

इससे साफ है कि बेटा ये चाहता है कि उस दिन को उसके पापा उसके नजरिए से सोच कर देखें और जिएँ। इसके बाद बेटे के किरदार में रणवीर कपूर चिल्लाते हुए बहुत ही तल्ख आवाज में बोलते हैं, “सुनाई दे रहा है, बहरा नहीं हूँ मैं…” इसके बाद सीन में बेटे की माँ आती है वो उसके पापा से कहती है, “आप उसके सुपर हीरो हो, वो आपको अडोर करता है। दिन मैं 10 मिनट भी नहीं दे सकते अपने बेटे को।”

‘एनिमल’ कहानी इस रिश्ते के ही इर्द-गिर्द घूमती हुई लग है। एक पिता जो कारोबार के चक्कर में अपने बेटे से दूर रहा है। बेटा पिता से बहुत प्यार करता है और उसे ये गम है कि पिता उसके प्यार को कभी समझ नहीं सके। बस फिर क्या है बेटा अपने नुकसान का रास्ता अख्तियार कर लेता है और गैंगस्टर बन जाता है।

इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म का ट्रेलर ही जाहिर कर देता है कि हर किरदार ने बेहतरीन अभिनय किया है। यहाँ तक तो सब ठीक है, लेकिन जहाँ एक छोटे से बच्चे के एक लेटर लिख ये कहने की बात आती है कि टाइम बताएगा वो अपने पापा से कितना प्यार करता है और फिर उसके बाद वही बेटा हिंसक और खूंखार अवतार में दिखाई देता है, परेशानी यहाँ से शुरू होती है।

ये सच है कि दबा, सहमा और प्यार को तरसता बचपन बड़े होने पर पर्सनैलिटी डिसऑर्डर का शिकार हो सकता है। इस बात को साइकॉलोजिस्ट भी मानते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की हम पर्दे पर इसे इस तरह से पेश करें कि टीनऐज के बच्चे भटकाव की राह पकड़ लें। वो पिता या अभिभावकों की भलाई के लिए कही बातों को भी अतिरेक में लेकर गलत राह पर चल पड़े।

वैसे तो फिल्म ‘एनिमल’ को सेंसर बोर्ड ने A सर्टिफिकेट के साथ पास किया है। ए का मतलब यानी एडल्ट सर्टिफिकेट। इस वजह से 18 साल से अधिक उम्र के लोग ही इस फिल्म को सिनेमाघरों में देख पाएँगे, लेकिन क्या ऐसा मुमकिन है कि 18 साल से कम उम्र के बच्चे इसे देखने से चूकेंगे। मोबाइल और इंटरनेट के इस दौर में ऐसा कम ही लगता है।

फिल्मों और उसकी दीवानगी टीनऐज के बच्चों में इस कदर होती है कि वो उनके लहजे, हेयरस्टाइल से लेकर कपड़ों तक को अपनी असली जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं। इस उम्र में दिल-दिमाग की जमीं इतनी पक्की नहीं होती कि वो सही और गलत में अंतर करना सीख सकें।

उन्हें तो वैसे ही रूपहले पर्दे का संसार असली नजर आता है। ऐसे में वे सिनेमा और फिल्मों में दिखाई गई घटनाओं की साम्यता अपनी निजी जिंदगी में तलाशने लगते हैं। ऐसे कई वारदातें हुई हैं जिनमें बच्चों और युवाओं ने फिल्मों की तर्ज पर अपराधों को अंजाम दिया है।

ऐसे में एनिमल जैसी फिल्में उनके दिलो-दिमाग पर अच्छा असर डालेंगी। इसे मान पाना मुश्किल ही लगता है। जब बच्चे जरा से मोबाइल देखने पर डाँटने पर अपनी जान ले लेते हैं। चार साल का बच्चा जब रेप करने की मानसिकता रख लेता है।

ऐसे माहौल में हम कैसे यकीन कर सकते हैं कि ‘एनिमल’ जैसी फिल्म एक बच्चे के जेहन पर सकारात्मक असर डालेगी? बच्चे ही क्यों पल-पल में बागी होने को तैयार दिखता युवा गर्म खून इस फिल्म का संदेश समझ पाएगा और सही रास्ता पकड़ेगा?

क्या बेटा समझ पाएगा कि पिता क्यों उसके लिए सख्त थे उनकी क्या मजबूरियाँ रही थी? और क्या जरूरत से ज्यादा सख्त एक पिता या अभिभावक ये समझ पाएँगे कि बचपन में किस तरह से मानसिक और भावनात्मक तौर पर समझे जाने की जरूरत होती है?

ऐसे में फिल्मों में इतनी हिंसा को देखते हुए हम क्या यकीन कर सकते हैं कि पिता और पुत्र के रिश्तों पर बनी फिल्म ‘एनिमल’ हमारे बच्चों और युवाओं को हिंसक जानवर बनाने की राह नहीं सुझाएगी। इस सवाल का जवाब फिल्मों को समाज का आईना बताने वाले सिनेमा जगत से लेकर हर आम-वो-खास के लिए ढूँढना जरूरी है।

रचना वर्मा: पहाड़ की स्वछंद हवाओं जैसे खुले विचार ही जीवन का ध्येय हैं।