शहाबुद्दीन… सब इंस्पेक्टर रामसागर सिंह याद आए, पत्रकार राजदेव रंजन याद आए

राजद का पूर्व सांसद शहाबुद्दीन (फाइल फोटो)

यहाँ गोली नहीं छूटेगा तो क्या अगरबत्ती जलेगा… मुन्ना शुक्ला पैदा ही कानून तोड़ने के लिए हुआ है

ज्यादा दिन नहीं हुए जब नाइट कर्फ्यू के दौरान डांस पार्टी का आयोजन करने वाले बिहार के पूर्व बाहुबली विधायक मुन्ना शुक्ला का यह वीडियो वायरल हुआ था। अजीब संयोग है कि उसकी तरह ही जरायम की दुनिया से आया शहाबुद्दीन भी इसी दौर में मर गया। शहाबुद्दीन उस दौर में मरा है, जब बिहार की कानून-व्यवस्था फिर से सवालों के घेरे में है। तब मरा है जब उसके सरपरस्त रहे लालू यादव को जमानत मिल गई है और एम्स ने कहा है कि परिजन जब चाहे उन्हें घर ले जाए। वह उस महामारी से मरा है, जिससे भारत में दो लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने ट्वीट कर उसकी मौत की खबर को पीड़ादायक बताया है। ‘जन्नत में जगह’ मिलने की दुआ की है। बिहार के मुख्यमंत्री ने ‘गहरी शोक संवेदना’ व्यक्त की है। नीतीश कुमार की सरकार में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हम (HUM) के प्रवक्ता दानिश रिजवान का कहना है कि इस मौत से ‘पूरा बिहार सदमे में है’।

मैं शहाबुद्दीन की मौत पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं की बात नहीं करना चाहता। न उन अवसरवादियों की ‘नैतिकता’ की पड़ी है, जो रोहित सरदाना की मौत का जश्न मना रहे थे और आज यह पाठ पढ़ा रहे हैं कि मौत के बाद किसी की आलोचना नहीं होनी चाहिए। मैं अपनी और आपकी बात करना चाहता हूँ। शहाबुद्दीन का नाम सुनते ही आपके जेहन में क्या उभरता है?

मैं तो जब भी यह नाम सुनता हूँ एक बेबस बाप चंदेश्वर प्रसाद याद आ जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर याद आते हैं। सब इंस्पेक्टर रामसागर सिंह याद आते हैं। पत्रकार राजदेव रंजन याद आते हैं। वह डर याद आता है जो जेल में बंद शहाबुद्दीन को जमानत मिलने पर सीवान में पसर जाता था। यकीन मानिए, शहाबुद्दीन याद आता भी नहीं है।

16 दिसंबर 2020 की रात चंदेश्वर प्रसाद यानी चंदा बाबू भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे। उनकी मौत से तीन दिन पहले ही शहाबुद्दीन कोर्ट की इजाजत के बाद अपने बीवी-बच्चों से मिला था। लेकिन, चंदा बाबू को बेटों का कंधा नसीब नहीं हो पाया था। क्यों?

कभी सीवान के जाने-माने व्यवसायी रहे चंदा बाबू ने शहाबुद्दीन को रंगदारी और अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया था। जवाब में उनके दो बेटों गिरीश और सतीश का अपहरण कर लिया गया। उन्हें शहाबुद्दीन के गाँव प्रतापपुर स्थित उसकी कोठी पर ले जाया गया। 16 अगस्त 2004 को वहाँ दोनों भाइयों को तेज़ाब से नहला दिया गया और तब तक ऐसा किया गया, जब तक उनकी तड़प-तड़प कर मौत न हो गई। इस मामले में गवाह रहे चंदा बाबू के तीसरे बेटे राजीव रोशन की कोर्ट जाते समय हत्या कर दी गई।

चंद्रशेखर 1996 में सीवान लौटे। मकसद था अपनी पार्टी भाकपा (माले) को मजबूत करना। सीवान को गुंडागर्दी से मुक्ति दिलाना। 31 मार्च 1997 को बीच चौराहे पर उन्हें गोलियों से भून दिया गया। इसका ऑर्डर देना वाला शहाबुद्दीन था और अंधाधुंध फायरिंग करने वाले उसके गुर्गे। हिंदुस्तान अखबार के पत्रकार रहे राजदेव रंजन की 2016 में सरेराह गोली मारकर हत्या कर दी गई। बाद में मुकदमा वापस लेने के लिए उनकी पत्नी को शहाबुद्दीन के नाम से धमकी मिलती रही।

मुझे प्रतापपुर में 15 मार्च 2001 को पुलिस पर चली वे गोलियाँ याद आती हैं, जिसकी गूँज पूरे देश ने सुनी थी। मुझे प्रतापपुर के बगल का वह गाँव खलीलपुरा याद आता है जहाँ शहाबुद्दीन के गुर्गों ने सब-इंस्पेक्टर रामसागर सिंह को घेर कर मार डाला था। मुझे सीवान जिले का बिंदुसर गाँव याद आता है, जहाँ के चंद्रशेखर रहने वाले थे। 2016 में शहाबुद्दीन को जमानत मिलने की खबर आने के बाद जिस गाँव में अजीब तरह का सन्नाटा और भय पसर गया था।

यह सच है कि बाद के वर्षों में शहाबुद्दीन का सीवान में वर्चस्व कमजोर पड़ गया। वह खुली हवा से ज्यादा जेल की कोठरी में रहा। उसके अपराध के भय से पैदा डर, राजद की पूरी ताकत जुड़ने के बावजूद उसकी पत्नी हिना शहाब को जीत नहीं दिला पाए। यह भी सच है कि कल के सीवान का ‘साहब’, सीवान में समानांतर सरकार चलाने वाला, ‘दरबार’ लगाने वाला शहाबुद्दीन बहुत बेबस और लाचार होकर मरा। पूरी ताकत लगाने के बावजूद अपने पिता के जनाजे तक में शामिल नहीं हो पाया।

संभव है कल को आँकड़ों के हिसाब से उसके अपराधों को कमतर ठहराने की कोशिश होगी। उसके मजहब का हवाला देकर उसे ही प्रताड़ित बताने की कोशिश होगी। पर सच यही है कि गिरीश और सतीश की हत्या आँकड़ों में केवल दो मर्डर ही दिखते हैं, लेकिन उन्हें तेजाब से नहलाने और तड़पा-तड़पा कर मारने से पैदा हुआ खौफ किसी आँकड़ों में दर्ज नहीं होता है। वह कोई सामान्य अपराधी नहीं था। पाकिस्तान की आईएसआई तक से उसके संबंध सामने आए थे।

2020 में हाई कोर्ट ने जब उसे पैरोल पर सीवान जाने देने की अनुमति को लेकर दिल्ली और बिहार की सरकारों से रिपोर्ट माँगी थी, तो दोनों सरकारों ने ही हाथ खड़े कर दिए थे। ये बताता है कि बिहार तो दूर, दिल्ली का शासन-प्रशासन भी, जंगलराज का दौर खत्म होने के डेढ़ दशक बाद भी, शहाबुद्दीन पर लगाम कसने में खुद को नाकाम पाता था, खासकर जब वह जेल से बाहर हो। उसे तिहाड़ भी इसलिए शिफ्ट किया गया था, क्योंकि बिहार के जेल से वह बेधड़क अपना साम्राज्य चला लेता था। ऐसे ही नहीं उसने जेल से निकलते ही नीतीश कुमार को ‘परिस्थितियों का मुख्यमंत्री’ कह दिया था।

भले आज राजनीतिक लोकाचार में नीतीश कुमार उसकी मौत पर गहरी संवेदना व्यक्त कर रहे हों। लेकिन सच यही है कि शहाबुद्दीन की मौत कोरोना संक्रमण से हुई केवल एक और मौत नहीं है। यह उस डर की मौत है जो उसके होने से पैदा होता था।

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