25,000 लोगों की मौत की सौदागर कॉन्ग्रेस: आज ही के दिन सुप्रीम कोर्ट में खेला था गणित का ‘गंदा’ खेल

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित आज तक कर रहे हैं इंसाफ़ का इंतज़ार

भोपाल गैस त्रासदी भारत की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक आपदा है। ये वो घटना है जिसके बारे में आज भी यदि सोच लिया जाए तो रूह काँप जाती है। ज़रा सोचिए! कितनी भयंकर घड़ी होगी वो जब फेफड़ो में घुसी ज़हरीली गैस की वजह से, सोते-जागते-भागते क़रीब 25 हज़ार लोग इसकी चपेट में आए और 5 लाख से ज़्यादा प्रभावित हुए।

साल 1984 में 2-3 दिसंबर की मध्यरात्रि में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित संयंत्र से जानलेवा गैस लीक होनी शुरू हुई। इस गैस का नाम ‘मिक’ (मिथाईल आइसो-साइनेट) था। जिसके हवा में घुलने की वजह से 25,000 से अधिक लोगों की मौतें हुई और जो आज ज़िदा है उनमें से कुछ अपंगता के कारण बेबस है तो कुछ अन्य बीमारियों की वजह से लाचार।

ये घटना जिस समय हुई थी, उस समय राजीव गाँधी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस पार्टी सत्ता में थी। इस बात को करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि बिना सुरक्षा शर्तों के इतने ख़तरनाक कारखाने को लगाने की इजाज़त, अपने आपको ‘जन कल्याणकारी सरकार’ कहने वाली सरकार ने ही दी थी।

शायद इसलिए पहले इस कारखाने में सामान्य सुरक्षा की व्यवस्थाओँ पर ख़र्च में लगातार कटौती करके सिस्टम बंद किए जाते रहे। जब गैस लीक हुई तो लोगों को मरने के लिए बेसहारा छोड़कर सरकार भी भाग खड़ी हुई और बड़े-बड़े अफसर भी।

लेकिन, जब सवाल यूनियन कार्बाइड कंपनी पर लापरवाही के सवाल उठने शुरू हुए तो तात्कालीन सरकार (राजीव सरकार) एक बार फिर से कंपनी के साथ आकर खड़ी हो गई। सरकार ने इस दौरान एक क़ानून बनाया और गैस पीड़ितों से कर्बाइड कंपनी के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करने का अधिकार भी छीनकर अपने हाथ में ले लिया।

इस घटना के बाद आज से ठीक 30 साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक समझौता पेश किया गया। इसके समझौते के अनुसार कंपनी को 3.3 बिलियन डॉलर (5355.9 करोड़ रुपए) के क्लेम के बजाए केवल 470 मिलियन डॉलर (762.81 करोड़ रुपए, 1 डॉलर = 16.23 रुपया वर्ष 1989 में) देने थे। इस समझौते के साथ ही कंपनी पर से लापरवाही से हत्या करने वाला आपराधिक केस भी खत्म होना था। सब सरकार के हाथ में था, नतीजन इस समझौते को कोर्ट में भी मान्यता भी मिल गई ।

14 फरवरी 1989 को सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन को उस ज़हरीली गैस रिसाव के पीड़ितों को हुए नुक़सान के लिए $ 470 मिलियन का भुगतान करने का आदेश दिया। शर्मनाक बात तो यह है कि जिस गणित के अनुसार यह रकम तय की गई थी, उसमें पीड़ितों की मूलभूत ज़रूरतों को सिरे से नकारा गया। जब इस राशि का बँटवारा गैस पीड़ितों में हुआ तो 5 लाख दावेदारों में से 90 प्रतिशत पीड़ितों के हिस्से में मात्र 25-25 हज़ार रुपए आए।

आदेश के लगभग 30 साल बाद भी पीड़ितों के ज़ख़्मों का किसी प्रकार का कोई मरहम नहीं लगा है। आज इस समझौते को पूरी तरह से धोखा करार दिया जाता है। क्योंकि दुर्घटना से पीड़ित लोग आज भी मुआवज़ो और बुनियादी सुविधाओं की लड़ाई को लगातार लड़ रहे हैं।

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल ज़ब्बार का कहना है कि इस समझौते में मृतकों और घायल लोगों की संख्या को काफ़ी कम दर्शाया गया था, जबकि हकीक़त में यह बहुत ज़्यादा थी। समझौते पर उठे ऐसे सवालों पर 3 जनवरी 1991 को उच्चतम न्यायलय ने कहा था कि यदि मरने वालों की सँख्या में बढ़ौतरी होती है तो भारतीय सरकार इसका मुआवज़ा देगी।

आजतक की रिपोर्ट में लिखा है कि ज़ब्बार ने बताया कि इस समझौते में गैस के लीक होने की वजह से केवल 3,000 लोगों की मौत और 1.02 प्रभावित लोग दर्शाए गए थे। जबकि, इस दुर्घटना से अब तक वास्तविकता में 20,000 लोगों की मौत हुई है और 5 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए है।

इस दिल दहला देने वाली घटना के मुख्य आरोपी एंडरसन के बारे में बताया जाता रहा है कि तात्कालीन पीएम राजीव गांधी के इशारे पर राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उनकी देश छोड़कर भागने में मदद की थी। इसलिए, एंडरसन को सरकारी प्लेन द्वारा कड़ी सुरक्षा के बीच भोपाल से दिल्ली पहुंचाया गया था, जिसके बाद वो अमेरिका वापस चला गया और कभी भारत लौट कर न लाया जा सका। 92 साल की उम्र में 29 सितंबर 2014 में एंडरसन की मौत भी हो गई, लेकिन भारत में इस मामले पर अब भी पीड़ितों को दिए जाने वाले हक पर विचार-विमर्श ही हो रहा है।

इस त्रासदी का 346 टन ज़हरीला कचरा निस्तारण अब भी भारत के लिए एक चुनौती बना हुआ है। ये कचरा आज भी कंपनी के कारख़ाने में कवर्ड शेड में मौजूद है। इसके ख़तरे को देखते हुए अब भी यहाँ पर आम जन को प्रवेश यहाँ पर वर्जित है।

सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर 13-18 अगस्त 2015 तक इंदौर के पीथमपुर में ‘रामके’ कंपनी के इंसीनरेटर में यहाँ का लगभग 10 टन ज़हरीला कचरा जलाया गया था। ट्रीटमेंट स्टोरेज डिस्पोजल फेसीलिटीज संयंत्र से इसके निष्पादन में पर्यावरण कितना प्रभावित हुआ, इसकी रिपोर्ट केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्रालय को भेज दी गई थी। लेकिन इस क़दम का असर क्या हुआ, ये अब भी सवाल बना हुआ है।

इस हादसे के बाद इस ज़हरीले कचरे को जर्मनी भेजने का प्रस्ताव तैयार किया गया था, लेकिन वहाँ के लोगों के विरोध की वजह से इस कूड़े को वहाँ पर नहीं भेजा जा सका। प्राप्त जानकारियों के अनुसार इस तरह के पदार्थ को 2 हज़ार डिग्री से अधिक के तापमान पर जलाया जाता है।

वैसे बता दूँ अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में इसी मामले में पीड़ितों और केंद्र सरकार द्वारा याचिका दायर की गई है। इस याचिका में यूनियन कार्बाइड कंपनी से 7413 करोड़ रुपयों की माँग की गई है। सरकार ने इस बात को माना है कि दुर्घटना पीड़ितों को उचित मुआवज़ा नहीं मिला है। इसी याचिका पर कोर्ट ने अप्रैल में सुनवाई करने के लिए कहा है।