लोकतंत्र का प्रहरी: 9 घंटे तक पूछताछ सहने वाले नरेंद्र मोदी Vs चुनावी जीत पर मौत का तांडव करने वाले मुख्यमंत्री?

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी (साभार: ट्विटर)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अक्सर उनके विरोधियों द्वारा ‘फासीवादी’ कहा जाता है। हालाँकि, मैं इस शब्द (विरोधियों) को जरा हल्के ढंग से प्रयोग करती हूँ। नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र और देश के संविधान-कानून का बिल्कुल भी सम्मान नहीं करने वाले के रूप में दिखाया जाता है।

मैंने अपने जीवन का बड़ा समय गुजरात के अहमदाबाद में बिताया है। बल्कि यूँ कहूँ कि मोदी के गुजरात में। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि एक बड़ी राजनीतिक घटना के साथ मेरा पहला साक्षात्कार उस वक्त हुआ, जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच इस्तीफा दे दिया था और नरेंद्र मोदी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था। मुझे वो बात अच्छी तरह से याद है कि जब गुजरात में अयोध्या से लौट रही ट्रेन में उन्मादी भीड़ ने आग लगी दी थी और उसी के बाद दंगे हुए। भीड़ द्वारा महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 60 लोगों को जिंदा जला दिया गया था, जिसे केवल आतंक कहा जा सकता है।

गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों का अपना एक इतिहास रहा है। 80 के दशक में गुजरात में कॉन्ग्रेस के माधव सिंह सोलंकी की सरकार के समय तो वहाँ सबसे खराब साम्प्रदायिक दंगे देखे गए थे। सोलंकी ने अपने ‘KHAM’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) वोट बैंक के अनुसार वोटों को विभाजित करने के तरीके का इस्तेमाल किया था। उन्हीं की छत्रछाया में गुजरात में डॉन लतीफ फला-फूला। शायद आप जानते हों कि लतीफ ने 1986-87 में अहमदाबाद के स्थानीय निकाय चुनावों में पाँच नगरपालिका वार्डों में जीत दर्ज की थी। खास बात ये कि उस दौरान वह जेल में था। यह जिस वक्त की घटना है, उस दौरान कॉन्ग्रेस के अमरसिंह चौधरी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

2002 से पहले गुजरात में बात-बात पर साम्प्रदायिक दंगे (इसे मेन स्ट्रीम मीडिया झड़प कहती है।) होते थे, जैसे कि उत्तरायण में पतंग के धागे काटने से लेकर रथयात्रा जुलूस तक की बातों पर। ये दंगे साम्प्रदायिक तौर पर सेंसिटिव इलाकों में होते थे, जैसे पुराने अहमदाबाद में। साबरमती नदी के पश्चिम में अहमदाबाद आमतौर पर शांतिपूर्ण रहता था। जब किसी ने मुझे 27 फरवरी 2002 को बताया कि पुराने शहर में ‘दंगे’ शुरू हो गए हैं, तो मेरा रिएक्शन नॉर्मल था। लेकिन जब मैंने अपने घर (मैं साबरमती के पश्चिम में रहती हूँ) की छत से धुआँ उठता देखा तब मुझे लगा कि यह ‘कोई सामान्य दंगा’ नहीं था।

मेरे घर से करीब एक किलोमीटर दूर एक मंदिर के ठीक बाहर सिटी ट्रांसपोर्ट की एक बस में आग लगा दी गई। मैं फिर से दोहराना चाहती हूँ, यह पहली बार था जब मैंने दंगे देखे थे ना कि मैंने इसे केवल अखबारों में पढ़ा था। नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करने वाले गुजराती अखबार जले हुए शवों से भरे पन्ने प्रकाशित करते थे। अखबारों के इन कार्यों से साम्प्रदायिक तनाव को और अधिक बढ़ावा मिला। हालाँकि, उस दौरान किसी ने मीडिया को जिम्मेदार नहीं ठहराया, वैसा ही अब भी कोई नहीं करता है।

2002 के दंगों के सबसे प्रमुख मामलों में से एक कॉन्ग्रेस नेता और पूर्व सांसद एहसान जाफरी की मौत थी। वह अहमदाबाद के चमनपुरा स्थित गुलबर्गा सोसायटी में रहते थे। 28 फरवरी 2002 को दंगाई भीड़ ने उस सोसायटी में आग लगा दी, जिसमें जाफरी समेत लगभग 35 लोगों की मौत हो गई थी। कॉन्ग्रेस नेता की पत्नी जकिया जाफरी ने पुलिस समेत गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री तक सभी को उनकी मौत का आरोपित बताया था।

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9 घंटे तक नरेंद्र मोदी से हुई थी पूछताछ

इन्हीं मामलों और आरोपों की जाँच के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एसआईटी का गठन किया गया था और मार्च 2010 में राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी से एसआईटी ने घंटों पूछताछ की थी।

वकील कार्तिकेय तन्ना के मुताबिक, उस विशेष मामले में एक आरोपित के तौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एसआईटी कार्यालय गए और 9 घंटे तक बैठे रहे और उनसे पूछे गए हर सवाल का जवाब दिया। उस दौरान उनके साथ कोई भी वकील नहीं था। एसआईटी के दफ्तर में जाते वक्त वह अपने साथ केवल अपनी पानी की बोतल लेकर गए थे। यहाँ तक ​​कि उन्होंने चाय लेने से भी इनकार कर दिया था।

इसकी तुलना में अगर देखा जाए तो पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हुई हिंसा के मामले में बड़े पैमाने पर आरोप लगे हैं। बंगाल में विभिन्न समितियों समेत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन पाया है। कई लोगों ने सत्ताधारी पार्टी टीएमसी के कार्यकर्ताओं पर लूटपाट, बलात्कार और हत्या के आरोप लगाए । बहुत से लोगों को केवल इस बात के लिए बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया, क्योंकि उन्होंने भाजपा का समर्थन किया था।

यह बड़ा ही सोचनीय है कि जिस राज्य की पार्टी के कार्यकर्ताओं पर बड़े पैमाने पर राजनीतिक हिंसा करने के आरोप हैं, उस राज्य के मुख्यमंत्री को इसके लिए जवाबदेह नहीं बनाया गया। उससे कोई सवाल नहीं पूछा गया। वास्तव में उत्पीड़न के डर से राज्य छोड़ने वाले लोगों को मीडिया के एक वर्ग ने जीत की तरह मनाया, इसे राजनीतिक सफाई तक की संज्ञा दी गई।

20 साल के इस अंतराल में हम दो राज्यों के मुख्यमंत्री के कार्यकाल को देख सकते हैं, इससे पता चलता है कि लोकतंत्र का सम्मान कौन करता है।

Nirwa Mehta: Politically incorrect. Author, Flawed But Fabulous.