कभी ‘किसान’-कभी मुसलमान, जिंदगी दिल्ली-NCR वालों की करते हलकानः विरोध-प्रदर्शन के नाम पर शाहीनबाग से शुरू हुई अराजकता का अंत कहाँ

दिल्ली की सीमाओं पर एक बार फिर से जुट गए हैं किसान

दिल्ली में एक बार फिर से किसानों का आंदोलन शुरू हो गया है। जंतर-मंतर पर हुए महापंचायत में 60 से भी अधिक किसान संगठनों का जुटान हुआ। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान से किसानों को बुलाया गया है। परिणाम ये हुए कि गाजीपुर बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर बैठ कर एक बार फिर से वो दिल्ली को घेरने लगे हैं। जन्माष्टमी और वीकेंड की छुट्टियों के बाद लोग जब काम पर निकले तो उन्हें कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ा।

दिल्ली-NCR में अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो कामकाजी हैं और रोज सुबह काम पर जाते हैं, शाम को दफ्तर से लौटते हैं। बच्चें जिन स्कूलों में पढ़ते हैं, वहाँ भी वो स्कूल की गाड़ी से आते-जाते हैं। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि रोजमर्रा के जीवन को लोगों को किस परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। किसान भी गाड़ियों में सवार होकर पहुँच रहे हैं, जिससे दिल्ली के विभिन्न इलाकों के लोग ट्रैफिक जाम की समस्या का सामना कर रहे हैं।

‘किसान महापंचायत’ की वजह से पुलिस को कई रूट्स को डायवर्ट करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इन प्रदर्शनकारियों की माँगें क्या हैं, ये भी स्पष्ट नहीं है। लेकिन हाँ, दिल्ली के लोगों को ज़रूर परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। आंदोलन जितने दिन चलेगा, उतने दिन उन्हें दिक्कतें आती रहेंगी। अजीब बात ये है कि कोई पुलिस-प्रशासन अथवा सरकार इन लोगों की मदद करने की स्थिति में नहीं होगी। किसान भीड़तंत्र के सहारे सामानांतर व्यवस्था चलाते रहेंगे।

दिल्ली सरकार प्रदर्शनकारियों को देती है सुविधाएँ, केंद्र बना रहता है सुस्त: भुगतती है जनता

दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में AAP की सरकार है, जो इस तरह के प्रदर्शनकारियों को सारी सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए कुख्यात है। इससे पहले जब लगभग एक साल तक दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का जुटान हुआ था और लोगों की समस्याएँ सुनने वाला कोई नहीं था, तब यही केजरीवाल सरकार इन प्रदर्शनकारियों के लिए भोजन-पानी और शौचालय की व्यवस्था करने में लगी हुई थी। एम्बुलेंस से लेकर डॉक्टर्स तक, सबका इंतजाम दिल्ली सरकार ने किया।

वहीं केंद्र सरकार का रवैया भी इस मामले में सुस्त रहता है। क्योंकि अगर दिल्ली पुलिस बल प्रयोग करेगी तो दुनिया भर में तमाम लेख लिख कर उसे बदनाम किया जाएगा, इसीलिए वो भी सुस्त बनी रहती है। हमने शाहीन बाग़ आंदोलन के समय भी ऐसा ही देखा था। जब हजारों गाड़ियों का ट्रैफिक जाम लगा करता था, तब भी शाहीन बाग़ में CAA के विरोध में डटीं खातूनों को वहाँ से हटाने के लिए किसी प्रकार का प्रयास पुलिस-प्रशासन ने नहीं किया।

इससे बिगड़ा किसका? केंद्र सरकार को अंत में हार कर कृषि सुधार के लिए आए तीनों कानून वापस लेने पड़े। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा की। वहीं CAA को लेकर अब तक नियम-कानून नहीं बनाए गए। केंद्र सरकार योजना लेकर आई, भीड़तंत्र ने दिल्ली को बंधक बना कर रखा, केंद्र सरकार झुक कर पलट गई। इस पूरी पटकथा में जो असली पीड़ित हैं, उनका तो कोई नाम तक नहीं लेता। वही लोग, जो दिल्ली में टैक्स देते हैं। जिनसे सरकारों को कमाई होती है।

शाहीन बाग़ के कारण हुआ नुकसान हम भूल गए?

हमारी याददाश्त खासी कमजोर है, तभी हम भूल जाते हैं कि जब कोरोना वायरस के खतरे से निपटने के लिए पूरा देश ‘जनता कर्फ्यू’ का पालन कर रहा था, तब शाहीन बाग़ में मुस्लिम महिलाएँ बैठी हुई थीं और संक्रमण के उस दौर में भी नियम-कानून की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं। आम जनता को इस प्रदर्शन के खिलाफ सड़क पर उतरना पड़ा, लेकिन आम लोगों की सुनता कौन है। यहाँ जो जाति-मजहब के आधार पर भीड़ जुटा ले, सरकार और पुलिस-प्रशासन वहीं झुकता है।

उस इस्लामी प्रदर्शन के दौरान नोएडा और कालिंदी कुंज को जोड़ने वाली सड़क को जाम रखा गया था, कई महीनों तक। इससे अस्पताल जाने-आने वाले एम्बुलेंसों से लेकर रोजमर्रा के काम के लिए आवागमन करने वाले लोगों और स्कूली बच्चों तक को रोज कई घटों का अतिरिक्त सफर करना पड़ा। एम्बुलेंस के अस्पताल पहुँचने में देरी के कारण मौतों की भी खबर आई। पुलिस भी धरनास्थल के आसपास बैरिकेडिंग लगा देती है, जिससे आम लोग वहाँ से गुजर नहीं पाते। यही पुलिस अतिक्रमणकारियों के सामने हाथ खड़े कर देती है।

विरोध प्रदर्शन तो ‘किसान आंदोलन’ के विरुद्ध भी किया था स्थानीय लोगों ने सिंघु सीमा पर, लेकिन उनकी आवाज़ क्या सुनी किसी ने? गाँव वालों ने ‘सिंह बॉर्डर खाली करो’ का पोस्टर लेकर उन किसानों के खिलाफ विरोध जताया। बदले में किसानों ने भी आमने-सामने आकर नारेबाजी शुरू कर दी। अब आम आदमी अपना काम-धाम छोड़ कर इन नकली किसानों की तरह कहीं धरना नहीं दे सकता महीनों, इसीलिए शायद उसकी नहीं सुनी जाती।

आम लोगों की कोई नहीं सुनता, जनता ही सहती है हजारों करोड़ रुपयों का नुकसान

अब कोई आम आदमी सारे काम छोड़ कर विरोध करने ही निकल पड़ेगा तो उसके परिवार का पेट कौन पालेगा? जब देश भर में कोरोना के नियम-कानूनों के तहत मास्क न पहनने वालों और मेडिकल दिशानिर्देशों का उल्लंघन उड़ाने वालों से जुरमाना वसूला जा रहा था और लॉकडाउन में बाहर निकलने वाले पुलिसिया कार्रवाई का सामना कर रहे थे, दिल्ली की सीमाओं पर हजारों प्रदर्शनकारी इन्हीं नियम-कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हुए बेख़ौफ़ बैठे हुए थे। उन्हें रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

इन आन्दोलनों से देश को जो वित्तीय घाटा होता है, उसकी यदा-कदा चर्चा भी हो जाती है तो लोगों की परेशानियों पर कोई बात नहीं करता। ‘किसान आंदोलन’ के कारण प्रतिदिन 3500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ, ये अंदाज़ा ‘भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल एसोचैम (ASSOCHAM)’ ने लगाया था। कई राज्यों की अर्थव्यवस्थाएँ इससे प्रभावित हुई थीं। टेक्सटाइल्स, ऑटो कंपोनेंट, बाइसाइकल्स और स्पोर्ट उत्पादों जैसी इंडस्ट्री अपने निर्यात ऑर्डर को पूरा नहीं कर पाई और सप्लाई चेन पर आसान पड़ने के कारण खुदरा सब्जियों-फलों के दाम बढ़ गए। भुगता किसने फिर से? जनता।

ये आंदोलन भड़काऊ भासनों और कट्टरपंथ का अड्डा भी बनते हैं, जिसके कारण दंगे होते हैं और फिर आम जनता ही भुगतती है। शाहीन बाग़ आंदोलन के बाद दिल्ली में दंगे हुए और दर्जनों हिन्दू मारे गए, कई बेघर हुए। ‘किसान आंदोलन’ के दौरान वहाँ हत्याओं की खबरें आती रहीं। वहीं शाहीन बाग़ के कारण 250 दुकानें भी बंद रहीं। इलाके को 150 करोड़ रुपयों का अनुमानित घाटा सहना पड़ा। इस प्रदर्शन का असर 20 लाख लोगों पर पड़ा। फिर आंदोलन होंगे, फिर जनता परेशानी सहेगी, सरकार अड़ेगी और फिर पीछे हटेगी, जनता इन सबके बीच फिर पिसेगी।

अनुपम कुमार सिंह: भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।