जलते जहाज पर 900 टन पानी डालकर आग बुझाने की हुई थी कोशिश: अग्निशमन सप्ताह

मुंबई में अग्निशमन के दफ्तर के सामने बना स्मारक

अगर धमाका मुंबई में हो तो क्या शिमला में (1700 किलोमीटर दूर) धरती काँपेगी क्या? नहीं भाई अतिशयोक्ति अलंकार नहीं है ये, सिर्फ कोलाबा की ऑब्जर्वेटरी में ही नहीं, शिमला के भूकंप नापने के यंत्रों ने भी इस धमाके के कम्पन को, भूकंप समझकर रिकॉर्ड कर लिया था। कई टन के (मदर ऑफ़ आल बॉम्ब्स) MOAB की ख़बरें हैरत से पढ़ते-पढ़ते, बता दें की 1395 टन बारूद एक बार मुंबई में भी फटा था। एस.एस. फोर्ट स्टिकीन नाम का जहाज 14 अप्रैल, 1944 को बॉम्बे के बंदरगाह पर था। धमाका इसी जहाज में हुआ था।

इस जहाज में लदे 1395 टन विस्फोटकों में 238 टन क्लास A यानि टारपीडो, माइन, तोपों के गोले और गोलियाँ थीं। उसके अलावा कपास की गाँठें, तेल के पीपे, कबाड़ लोहा, लकड़ी और 890000 पौंड की सोने की ईटों के 31 कैरट लदे हुए थे। दोपहर करीब दो बजे जहाज के नाविकों को आग लगने की चेतावनी दी गई। जहाजी, तटरक्षक और आग बुझाने वाली नावें थोड़ी ही देर में आग बुझाने में नाकाम होने लगी। 900 टन पानी जहाज में पंप कर देने के बाद भी आग का स्रोत नहीं ढूँढा जा पा रहा था। आग बुझ नहीं रही थी और जहाज पर डाला जा रहा पानी उबलने लगा था।


14 अप्रैल 1944 के विस्फोट से बचकर बंदरगाह से भागते लोग

तीन पचास में जहाज छोड़ देने का आदेश दिया गया, इसके सोलह मिनट बाद ही पहला धमाका हुआ। इस धमाके से जहाज दो हिस्सों में टूट गया और करीब 12 किलोमीटर दूर तक की खिड़कियों के काँच टूट गए। जहाज में लदा हुआ कपास, जलता हुआ, आग की बारिश की तरह आस पास की झुग्गी झोपड़ियों पर बरसा। धमाके से दो स्क्वायर किलोमीटर का तटीय इलाका जल उठा। आस पास खड़े ग्यारह जहाजों में भी आग लग गई और वो भी डूबने लगे। दुर्घटना से बचाव के लिए लड़ते कई दस्ते खेते रहे। राहत कार्यों को दूसरा झटका 04:34 पर लगा जब दूसरा धमाका हुआ। इस धमाके की आवाज़ 50 मील (80 किलोमीटर) दूर तक सुनी गई थी। ‘पचास पचास कोस दूर, गाँव में…’ वाला जुमला कहाँ से आया होगा वो अंदाजा लगा लीजिये।


बंदरगाह से पांच किलोमीटर दूर के संत ज़ेवियर स्कूल में अगर गिरा एक प्रोपेल्लर का टुकड़ा By Nicholas (Nichalp) – Own work

विस्फोट में उड़े 31 कैरट सोने की ईटों को 2011 तक वापिस किया गया है, लगभग पूरा मिल गया। इस दुर्घटना में तेरह जहाज डूब गए थे, कई बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए, लेकिन वो युद्ध का समय था इसलिए ख़बरें बाहर नहीं आई। गुलाम भारत के ब्रिटिश अधिकारियों ने मई के दूसरे सप्ताह में अख़बारों को ये खबर छापने की इजाजत दी। एक भारतीय सुधीश घटक ने इस घटना पर एक फिल्म सी बनाई थी जिसे ब्रिटिश अधिकारीयों ने जब्त कर लिया था। जापानी नियंत्रण वाले रेडियो साइगॉन ने सबसे पहले पंद्रह अप्रैल को ये खबर प्रसारित की। टाइम मैगज़ीन ने इसे 22 मई 1944 को छापा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन विस्फोटों में 800 से 1300 के लगभग लोग मारे गए थे।

इस भयानक आग को बुझाने के लिए कई अग्निशमन दल भी जुटे थे जिन्होंने जलते जहाज पर 900 टन पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश की थी। उनमें से अधिकतर मारे गए। पहले विस्फोट के बाद जब लोग बंदरगाह से भाग रहे होंगे तो नुकसान को और बढ़ने से रोकने के लिए अग्निशमन दल के और कुछ बहादुर दो किलोमीटर में लगी आग के बीच घुस रहे होंगे। दूसरे विस्फोट पर उनमें से भी अधिकतर वीरगति को प्राप्त हुए। अग्निशमन दलों के 66 जवान इस राहत कार्य में शहीद हुए थे। हम उनमें से किसी का नाम नहीं पढ़ते, नहीं सुनते, नहीं जानते। हमारी लड़ाइयों के नायक भी खो गए हैं।

इस घटना की याद में भारत में 14 से 22 अप्रैल को अग्निशमन सप्ताह मनाया जाता है। हो सकता है किसी आग से बचाव के अभ्यास के लिए आपको भी इस गर्मी में ऑफिस के ए.सी. को छोड़कर धूप में आने का बेकार कष्ट उठाना पड़ा हो। अगर आप अपनी बड़ी ऑफिस की बिल्डिंगों में होने वाले मोक ड्रिल, बचाव अभ्यासों से परेशान हो रहे हैं तो उन सैकड़ों बहादुरों को जरूर याद कीजियेगा जो जलती आग की लपटों में जान-माल को बचाने कूदे थे। उनमें से कई बाहर नहीं आये होंगे। उन अज्ञात नामों को भी नमन, हमारी लड़ाइयों के वो नायक, जो कि खो गए हैं।

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!