जब तुर्की में कमाल पाशा ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाने के लिए अपनाया था नायाब तरीका

प्रतीकात्मक चित्र

हाल ही में जिस वायनाड का नाम खूब चर्चा में रहा वो मोपला नरसंहार का भी क्षेत्र था। दुनिया से आखरी इस्लामिक खलीफा (ऑट्टोमन सल्तनत) के ख़त्म होने के दौर में हुए इन नरसंहारों में काफिरों और धिम्मियों पर अनगिनत पैशाचिक ज़ुल्म ढाए गए थे। जेहादियों को बूटों तले कुचलने के बाद जब फिरंगी हुक्मरानों ने मुक़दमे चलाए, तो अमानवीय अत्याचारों की कई कहानियाँ बाहर आईं। ये नरसंहार अरब के ऑट्टोमन खलीफाओं की हुकूमत फिर से लागू करने के लिए वहाँ से मीलों दूर, भारत के सुदूर दक्षिण में क्यों हुआ? किसी अरबी मुल्क की सल्तनत से भारत के दक्षिण के इस इलाके को क्या फायदा होता या फर्क पड़ता? ये सभी वो अजीब सवाल हैं, जिनके पूछे जाने पर ‘शेखुलर’ जज़्बात आपा के आहत हो जाने का खतरा रहता है।

ऑट्टोमन सल्तनत आखिरी इस्लामिक खलीफा की सल्तनत थी जो पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की ओर से लड़कर हारी थी। हो सकता है आपने कभी ‘तीन मूर्ती’ भवन का नाम सुना हो। इस मकान में कभी जवाहरलाल नेहरु का आवास भी रहा था। इसके ठीक सामने जो तीन मूर्तियाँ बनी हैं, उन्हीं के नाम पर इस भवन का नाम पड़ा है। हीरो ऑफ़ हाइफा कहलाने वाले मेजर दलपत सिंह शेखावत हाइफा के मोर्चे पर थे। उनकी कमान में जोधपुर स्टेट की टुकड़ी थी और उनका साथ देने के लिए वहां हैदराबाद स्टेट और मैसूर स्टेट के सिपाही भी थे। जोधपुर, हैदराबाद और मैसूर स्टेट को दर्शाने के लिए ही हाइफा के विजेताओं की ये तीन मूर्तियाँ इस भवन के सामने हैं। हाइफा क्या है, या कहाँ है, जैसा कुछ सूझ रहा हो तो बता दें कि ये इजराइल के सबसे बड़े शहरों में से एक है। इसकी आजादी में भारतीय सैनिकों के योगदान की वजह से ही इजरायल के प्रधानमंत्री भारत आने पर तीन मूर्ती देखने जाते हैं।

अब वापस ऑट्टोमन सल्तनत पर चलें तो ये बूढ़े बीमार हुक्मरान अपनी सल्तनत बचाने की कोशिशों में जुटे थे। इनके पास आर्थिक स्रोत ख़त्म हो चले थे और छोटे मोटे कबीले यहाँ विद्रोह करना शुरू कर चुके थे। जब भारत में इनके समर्थन में खून-खराबा करने की तैयारी हो रही थी तब ये लोग जर्मनी से जा मिले। इनके दो जहाज जो जर्मन नियंत्रण में थे, जिन्होंने रूस के एक बंदरगाह पर हमला कर दिया और भारी तबाही मचाई। अगस्त 1921 में जब भारत के जेहादी, अरब के खलीफा के समर्थन में कत्लेआम कर रहे थे, तभी कमाल पाशा ‘गाज़ी’ की उपाधि के साथ, ऑट्टोमन की सत्ता के खिलाफ लड़ रहे थे। सं 1922 के नवम्बर से लेकर 1923 की जुलाई तक चली वार्ताओं में तुर्की एक अलग देश बन गया। तभी से 29 अक्टूबर को तुर्की का गणतंत्र दिवस मनाया जाता है।

खलीफा के खिलाफ लड़ने की वजह से 1924 में ही कमाल पाशा को शेख सईद का जिहाद झेलना पड़ा था। सन 1926 आते आते कमाल पाशा ने तुर्की से इस्लामिक शरियत को हटाकर कानून का शासन लागू कर दिया था। ऐसे कानूनों की वजह से उत्तराधिकार और तलाक जैसे मामलों में औरतों को भी मर्दों के बराबर अधिकार मिल गए। मूर्तियों पर पाबन्दी वाले इस इलाके में 1927 में उन्होंने ‘म्यूजियम ऑफ़ स्कल्पचर’ बनवा दिया। अरबी अक्षर इस्तेमाल करने के बदले 1 नवम्बर 1928 को उन्होंने तुर्की वर्णमाला भी लागू कर दी और इसके साथ ही तुर्की ज़ुबान को अरबी में लिखना बंद करवा दिया। सन 1935 के चुनावों में तुर्की की संसद में 18 महिलाएँ चुनकर आईं। उस दौर में ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स में 9 और यूएस हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में 6 महिलाऐं थीं।

उनका बुर्के पर प्रतिबन्ध का तरीका बड़ा रोचक था। जब कबीलाई मानसिकता के लोग बुर्के को छोड़ने को तैयार नहीं हो रहे थे तो उन्होंने वेश्याओं के लिए बुर्का अनिवार्य कर दिया। एक नियम से महिलाओं का बुर्का पहनना अपने आप बंद हो गया! बाकी बुर्के से याद आया कि पड़ोसी देश श्रीलंका ने भी बुर्के को प्रतिबंधित किया है। हमें उम्मीद है कमाल पाशा जैसा कोई कमाल का तरीका तो इस्तेमाल नहीं ही किया होगा?

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!