इस देश की प्रधानमंत्री गईं हड़ताल पर, कामकाज किया बंद: लैंगिक समानता की माँग और घरेलू हिंसा के विरोध में आईं महिलाएँ

आइसलैंड की काटरिन याकब्सडॉटिर हड़ताल पर जाने वाली दुनिया की पहली पीएम (फोटो साभार: news.sky.com/)

उत्तर-पश्चिम यूरोप का एक छोटा-सा देश है आइसलैंड। इस देश की जनसंख्या महज 3.80 लाख है। मंगलवार (24 अक्टूबर 2023) को इस देश में कामकाज ठप हो गया। दरअसल, हजारों औरतों के साथ देश की प्रधानमंत्री कैतरीना कोस्तोत्रई (Katrín Jakobsdóttir) भी हड़ताल पर चली गईं।

इस मुल्क की नारी शक्ति का ये विरोध यहाँ मर्दों और औरतों के वेतन में असमानता और लैंगिक हिंसा को लेकर था। कोस्तोत्रई दुनिया में हड़ताल पर जाने वाली किसी देश की पहली प्रधानमंत्री कही जा सकती हैं।

पीएम कोस्तोत्रई ने पहले ही आइसलैंड की मीडिया को बताया था कि उन्होंने ‘क्या आप इसे समानता कहते हैं?’ स्लोगन वाली हड़ताल के तहत काम पर नहीं जाने का प्लान बनाया था। इसके साथ ही मंगलवार को ‘वीमेन्स डे ऑफ’ के दिन देश की हजारों महिलाओं के साथ पीएम भी इस हड़ताल में शामिल हो गईं।

इसे लेकर पीएम कोस्तोत्रई ने कहा, “मैं इस दिन काम नहीं करूँगी और मुझे उम्मीद है कि सभी महिलाएँ (कैबिनेट में) भी ऐसा ही करेंगी। मैंने कल कैबिनेट की बैठक नहीं करने का फैसला किया है। आइसलैंड की संसद में केवल पुरुष मंत्री सवालों का जवाब देंगे। हम इस तरह से एकजुटता दिखाते हैं।”

हड़ताल के आयोजकों ने अभियान की आधिकारिक वेबसाइट पर कहा है, “24 अक्टूबर को आइसलैंड में आप्रवासी सहित सभी महिलाओं को भुगतान और अवैतनिक (घरेलू कामों सहित) दोनों तरह के काम बंद करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। पूरे दिन महिलाएँ समाज में अपने योगदान के अहमियत को दिखाने के लिए हड़ताल करेंगी।”

दरअसल, इस देश में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को वेतन में असमानता को लेकर रोष है। इस वजह से महिलाओं ने ‘वीमेन्स डे ऑफ’ के दिन केवल बाहर का ही नहीं, बल्कि घर का काम भी नहीं किया। स्टाफ की कमी के कारण आइसलैंड के स्कूल-अस्पताल, ट्रांसपोर्ट आदि बुरी तरह प्रभावित रहे।

ये तब है, जब यह देश लैंगिक समानता के मामले में बीते 14 सालों से टॉप पर है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक, वेतन सहित अन्य कारकों में आइसलैंड के मुकाबले अन्य किसी भी देश ने समानता हासिल नहीं की है। फोरम ने इस देश को 91.2 फीसदी का स्कोर दिया है। इस देश को ‘फैमिनिस्ट हेवन’ के नाम से भी जाना जाता है।

पीएम कोस्तोत्रई ने 19 अक्टूबर 2023 के एक ट्वीट में कहा था, “हमें लैंगिक वेतन के अंतर को कम करने और लैंगिक समानता तक पहुँचने के लिए महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की जरूरत है। हमें ऐसी परिस्थितियों वाले समाज की जरूरत है, जहाँ बेहतरीन खुशहाली, माता-पिता की छुट्टी, डे-केयर और एक संस्कृति में बदलाव संभव हो।”

गौरतलब है कि इस देश में ये पहली बार नहीं है, जब ‘वीमेन्स डे ऑफ’ मनाया गया। यहाँ ये दिन लगभग 50 साल पहले यानी 1975 में हुई पहली बार हड़ताल के बाद आया है। तब आइसलैंड की 90 फीसदी महिलाओं ने केवेनफ्री यानी वीमेन्स डे ऑफ के हिस्से के तौर पर काम करने से इनकार कर दिया था। इस हड़ताल के कारण आइसलैंड में अहम बदलाव हुए।

आइसलैंड में जो प्रमुख बदलाव हुए, उनमें दुनिया के किसी देश की पहली महिला राष्ट्रपति का चुनाव भी शामिल है। साल 1975 के बाद इस हड़ताल को 1985, 2005, 2010, 2016 और 2018 में दोहराया गया है। 1975 की हड़ताल में भाग लेने वालों में से कुछ ने इस हड़ताल को आयोजित करने में मदद की। उनका मानना है कि मकसद पूरा नहीं हुआ है।

इसे लेकर आइसलैंडिक फेडरेशन फॉर पब्लिक वर्कर्स के हड़ताल आयोजक फ़्रीजा ने कहा, “हम इस बात की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि हमें समानता का स्वर्ग कहा जाता है, लेकिन अभी भी लैंगिक असमानताएँ हैं। कार्रवाई की तत्काल जरूरत है। स्वास्थ्य सेवाओं और बच्चों की देखभाल जैसी महिलाओँ के नेतृत्व वाले काम को अभी भी कम अहमियत दी जाती है और बहुत कम भुगतान किया जाता है।”

आइसलैंड के सांख्यिकी विभाग ने कहा है कि वहाँ कुछ नौकरियों में औरतें अभी भी अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले कम-से-कम 20 फीसदी कम कमाती हैं। वहीं आइसलैंड विश्वविद्यालय की एक स्टडी में खुलासा हुआ है कि यहाँ की 40 फीसदी औरतों को अपने जीवनकाल में लिंग-आधारित और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया