आज भी कबीलों के दखल से चलती है खाड़ी मुल्कों की सरकारें, शासक देते हैं सब्सिडी: अरब में लोकतंत्र कभी नहीं रहा समाज का हिस्सा, लोगों को अधिकारों में कटौती मंजूर

लोकतांत्रिक मूल्य या लोकतांत्रिक सरकार यहाँ की राजनीतिक संस्कृति का कभी हिस्सा ही नहीं रही (प्रतीकात्मक चित्र साभार: Getty Images)

बहुत सारे विद्वानों की माने तो अरबी प्रायद्वीप का समाज प्राथमिक रूप से ‘क़बीला’ से बना हुआ समाज है। आज भी खाड़ी देशों में ये कबीले राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हम देखेंगे कि कैसे इन खाड़ी देशों में राजनीतिक जीवन अविकसित रही है और इसमें कबीलों की क्या भूमिका रही है। राज्य-निर्माण और राष्ट्रीय पहचान विकसित करने में इन कबीलों की पहचान और क़बीलावाद की भूमिका अद्वितीय और महत्वपूर्ण रही है।

इराक़, लीबिया, और यमन जैसे देशों में, आधुनिक राज्य गृहयुद्ध और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेपों से असफल रहें हैं। वहाँ इस राजनीतिक शून्य को इन कबीलों ने बहुत तेज़ी से कब्जाया है। राज्य के पतन के समय क़बीलों का फिर से उभरना खाड़ी देशों में इनके महत्व को बखूबी दर्शाता है। चौदहवीं शताब्दी के अरब मुस्लिम इतिहासकार, इब्न खलदुन को कबीलों और राज्य के बीच संबंधों के पहले विस्तृत विवरण के लिए जाना जाता है।

वो लिखते है कि ‘असबिय्या’ माने एक तरह का ‘समूह एकजुटता’ जो केवल साझा पारिवारिक पृष्ठभूमि और रक्त के महत्व को ही प्रदर्शित नहीं करता, बल्कि आपसी समाजीकरण का भी महत्व रखता है। वो आगे कहते है कि सामान्य वंश के आधार पर ‘असबिय्या’ एक स्थिर और सुरक्षित शासन को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्होंने अरबी क्षेत्रों में मजहब और सगोत्रता (Kinship) से मिश्रित सरकार सबसे ज़्यादा मजबूत सरकार मानी है।

इसलिए, लोकतांत्रिक मूल्य या लोकतांत्रिक सरकार यहाँ की राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) का कभी हिस्सा ही नहीं रही। ऐसे में इन देशों में लोकतंत्र का आना बहुत कठिन हो जाता है। एक तरीक़े से देखें तो क़बीला और राज्य वैचारिक तौर पर एक दूसरे से विपरीत हैं। पहचान, राजनीतिक निष्ठा और व्यवहार के आधार के रूप में, क़बीला सगोत्रता (Kinship) और पितृवंशीय वंश के संबंधों को प्रमुखता देती है, जबकि राज्य सभी व्यक्तियों की एक केंद्रीय सत्ता के प्रति वफादारी पर जोर देता है, चाहे उनका एक-दूसरे से कोई संबंध क्यों न हो।

क़बीला व्यक्तिगत, नैतिक और अनुवांशिक कारकों पर जोर देती है, वहीं राज्य अवैयक्तिक है, और उपलब्धि को मान्यता देता है। क़बीला सामाजिक रूप से सजातीय, समतावादी और खंडीय है, वहीं राज्य विजातीय और श्रेणीबद्ध है। जनजाति व्यक्ति के भीतर की भावना है; राज्य बाहरी है। ऐसे में अरबी समाज की राजनीति समझना थोड़ा कठिन हो जाता है क्योंकि यहाँ क़बीला और राज्य एक दूसरे पर आश्रित है। भले ही इन क़बीलों की वास्तविक संरचना पहले जैसी नहीं हो, लेकिन वो अभी भी अपने सामाजिक और राजनीतिक भूमिका को बना कर रखते हैं।

क़बीलों का प्रभाव इन देशों के राजनीतिक तंत्र (Political System) में साफ़ देखने को मिलता है। ऐसे में अरबी समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों का आना कठिन हो जाता है। अरबी क्षेत्र में तेल मिलने के बाद से बड़ा बदलाव आया है। तेल से आने वाले राजस्व (Revenues) सरकार को पर्याप्त धन प्रदान करती है। अरब प्रायद्वीप के शासक परिवार अपने प्रति वफादारी बनाए रखने के लिए शक्तिशाली क़बीलों को लंबे समय से सब्सिडी देते रहे हैं।

खाड़ी मुल्क अपनी जनता को बहुत सारी सामाजिक कल्याणकारी नीतियों द्वारा सहायता करते हैं। इनमें विधवा, गरीब, अनाथ और दिव्यंगों के लिए पेंशन और आर्थिक सहायता भी शामिल है। ऐसे में सरकार सामाजिक समूहों के गठन जो राजनीतिक अधिकारों की माँग करने की कोशिश करती है, उन्हें दबा देती है। आर्थिक अधिकारों का पूरा होना और क़बीले या ‘सामूहिक भावना’ के कारण अपने राजनीतिक अधिकारों में कमी बर्दाश्त कर लेना, लोकतांत्रिक मूल्यों को इन देशों में आने से रोक देता है।

इन देशों के जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा प्रवासी लोगों का है। वो वहाँ अच्छी नौकरी के अवसर में जाते हैं। उनमें कुछ वही बस जाते हैं और कुछ काम कर के अपने देश लौट जाते हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर इन देशों में निचले स्तर के काम जैसे, ड्राइवरी, घरेलू कामकाज, पेट्रोल पम्प पर तेल बेचना, साफ़-सफ़ाई इत्यादि करते है। इसके कारण इन देशों में स्थानीय लोग लोअर क्लास में नहीं आते और ये प्रवसी मज़दूर इनका जगह ले लेते है।

ऐसे में यहाँ की स्थानीय जनता सुखी और संपन्न रूप से अपना जीवन यापन करती है। बुनियादी ज़रूरत और आर्थिक स्वतंत्रता पूरा होने के कारण यहाँ के लोग अपने राजनीतिक अधिकारों में कटौती स्वीकार कर लेते है।