क्या है नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहस का कारण?

मंगलवार को ‘नागरिकता संशोधन विधेयक 2016’ लोकसभा में पास हो गया है। इस बिल को लेकर असम की सड़कों से लेकर संसद तक काफी विरोध प्रदर्शन हो रहा है। भाजपा ने इस विधेयक को पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश से विस्थापन की पीड़ा झेल रहे हिन्दू, पारसी, ईसाई, बौद्ध, जैन और सिख अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए अहम फ़ैसला बताया है। बिल के पारित होने पर गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में अपने भाषण में कहा, “नागरिक संशोधन विधेयक सिर्फ असम के लिए नहीं है, बल्कि अन्य राज्यों में रह रहे प्रवासियों पर भी लागू होता है। यह कानून देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लागू होगा। असम का भार सिर्फ असम का नहीं है, पूरे देश का है।”

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नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद भाजपा प्रवक्ता मेहदी आलम बोरा पहले व्यक्ति बन गए हैं जिन्होंने अपना विरोध दर्ज़ करने के लिए पार्टी के सभी पदों से इस्तीफ़ा भी दे दिया है। उनका कहना है कि वो इस बिल का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यह असम समाज के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को प्रभावित कर समाज को नुकसान पहुँच सकता है।

विधेयक और इससे जुड़े विरोध की कुछ अहम बातें

सोमवार से ही इसके खिलाफ कुछ राजनीतिक दल और संगठन असम में जोरदार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। असम में सोमवार से ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) समेत 30 संगठनों ने बंद की घोषणा की था। मंगलवार को तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने संसद में इस विधेयक पर प्रदर्शन किया। असम के लोगों को डर है कि बांग्लादेश से आए अवैध शरणार्थी उनकी संस्कृति और भाषाई पहचान के लिए खतरा हो सकते हैं। दूसरी ओर, तृणमूल कॉन्ग्रेस ने इसे बाँटने वाली राजनीति बताया है। केन्द्रीय भाजपा मंत्री एस एस आहुलवालिया का कहना है कि यह विधेयक उन देशों के अल्पसंख्यकों के लिए लाया गया है जो बांग्लादेश, पश्चिमी पाकिस्तान से अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं। वहीं अक्सर साम्प्रदायिक और भड़काऊ बयान देने वाले एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने विधेयक को संविधान के ख़िलाफ़ बताया है। उनका कहना है कि भारत में धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए।

नागरिक संशोधन विधेयक: एक नज़र में टाइमलाइन

राजीव गांधी सरकार के दौर में असम गण परिषद से समझौता हुआ था कि 1971 के बाद असम में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले बांग्लादेशियों को निकाला जाएगा। 1985 के असम समझौते (‘आसू’ और दूसरे संगठनों के साथ भारत सरकार का समझौता) में नागरिकता प्रदान करने के लिए कटऑफ तिथि 24 मार्च 1971 थी। नागरिकता बिल में इसे बढ़ाकर 31 दिसंबर 2014 कर दिया गया है। यानी नए बिल के तहत 1971 के आधार वर्ष को बढ़ाकर 2014 कर दिया गया है। नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाई शरणार्थियों को 12 साल के बजाय छह साल भारत में गुजारने पर नागरिकता मिल जाएगी।

ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) के सलाहकार समुज्जल भट्टाचार्य के अनुसार इस विधेयक से असम के स्थानीय समुदायों के अस्तित्व पर खतरा हो गया है। वे अपनी ही ज़मीन पर अल्पसंख्यक बन गए हैं। कैबिनेट द्वारा नागरकिता संशोधन बिल को मंजूरी देने से नाराज असम गण परिषद ने राज्य की एनडीए सरकार से अलग होने का ऐलान किया है।

यह संशोधन विधेयक 2016 में पहली बार लोकसभा में पेश किया गया था। विधेयक के खिलाफ धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों का कहना है कि ये विधेयक 1985 के असम समझौते को अमान्य करेगा। इसके तहत 1971 के बाद राज्य में प्रवेश करने वाले किसी भी विदेशी नागरिक को निर्वासित करने की बात कही गई थी, भले ही उसका धर्म कोई हो।

नया विधेयक नागरिकता कानून 1955 में संशोधन के लिए लाया गया है। भाजपा ने 2014 के चुनावों में इसका वादा किया था। कॉन्ग्रेस, तृणमूल कॉन्ग्रेस, सीपीएम समेत कुछ अन्य पार्टियां लगातार इस विधेयक का विरोध कर रही हैं। उनका दावा है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती है, क्योंकि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है। भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना और जेडीयू ने भी ऐलान किया था कि वह संसद में विधेयक का विरोध करेंगे। बिल का विरोध कर रहे बहुत से लोगों का कहना है कि यह धार्मिक स्तर पर लोगों को नागरिकता देगा। तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी के अनुसार केंद्र के इस फैसले से करीब 30 लाख लोग प्रभावित होंगे। विरोध कर रही पार्टियों का कहना है कि नागरिकता संशोधन के लिए धार्मिक पहचान को आधार बनाना संविधान के आर्टिकल 14 की मूल भावनाओं के खिलाफ है।

नागरिकता बिल पर भाजपा का विज़न क्या हो सकता है?

राजनितिक क़यास कहीं न कहीं ये मान कर लगाए जा रहे हैं कि भाजपा द्वारा असम में नागरिकता बिल पारित करने के पीछे यहाँ पर अल्पसंख्यक समुदाय की बड़ी तादाद के साथ हिन्दू धर्म के नागरिकों को भी संरक्षण देने की मंशा है। हो सकता है कि ऐसे प्रस्ताव से असम को मुस्लिमों के एकाधिकार में आने से रोका जा सकेगा। कुछ लोगों का मानना है कि असम राज्य में मुस्लिम बड़ी राजनीतिक ताकत न बन सकें यह सुनिश्चित करने के लिए असम को अतिरिक्त हिन्दू आबादी की ज़रूरत है। असम में मुस्लिम आबादी 34% से ज्यादा है। इनमें से 85% मुस्लिम ऐसे हैं जो बाहर से आकर बसे हैं।  ऐसे लोग ज्यादातर बांग्लादेशी हैं। पूर्वोत्तर में असम सरकार में मंत्री हेमंत बिस्व शर्मा उन्हें ‘जिन्ना’ कह कर बुलाते हैं।

रिपोर्ट्स के अनुसार, 1951 से असम की जनगणना के आंकड़ों बताते हैं कि यहाँ पर 1951-61 के दौरान हिंदू 33.71% और मुस्लिम 38.35% बढ़े। जबकि 1961 से 71 के बीच हिंदू 37.17% और मुस्लिम 30.99% बढ़े। 1971 से 1991 के बीच असम की जनसँख्या में हिंदू 41.89% और मुस्लिम 77.41% बढ़े (1981 में असम में जनगणना नहीं हुई थी)। 1991 से 2001 के दौरान हिन्दुओं की जनसंख्या में असम में वृद्धि नहीं हुई, जबकि मुस्लिम 29.30% बढ़े।  इसके अलावा 2001 से 2011 के दौरान हिंदू 10.9% और मुस्लिम आबादी 29.59 बढ़ी। नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) के अंतिम ड्राफ्ट में असम में रह रहे 40 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए। ड्राफ्ट में 2.89 करोड़ नाम हैं, जबकि आवेदन मात्र 3.29 करोड़ लोगों ने किया था।फिलहाल असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करने की प्रक्रिया जारी है।

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