जानिए कैसे ‘निकाला’ जाता है एग्जिट पोल, और क्यों होते हैं ये अक्सर गलत

एग्जिट पोल का गणित भारत जैसी चुनाव-व्यवस्था में सटिक नहीं

प्राचीन काल की बात है। 40-50 साल पहले शताब्दी ही दूसरी थी तो प्राचीन काल ही कहेंगे ना! खैर तो हुआ यूँ कि उस समय ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी का एक छात्र यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में चुनाव नतीजों से सम्बंधित दस्तावेजों के पन्ने पलट रहा था। वो खोजने की कोशिश कर रहा था कि सांख्यिकी के आधार पर चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी हो सकती है या नहीं। उससे पहले भी कई गणितज्ञ सूरमा ऐसा करने के प्रयासों में असफल हो चुके थे इसलिए उसे कामयाबी ना मिलना कोई अनूठी बात नहीं होती।

इस छात्र का नाम था- डेविड बटलर। उन्हें अचानक से कठिन गणित समीकरणों के बीच एक आसान सा फार्मूला दिखा। उसने पाया कि दो पार्टियों के मत प्रतिशत में अगर A:B का सम्बन्ध हो तो “टू द पॉवर थ्री” पर उनकी सीटों की गिनती निकल रही है! यानी (A x A x A) : (B x B x B) पर सीटों की भविष्यवाणी की जा सकती है! जब उसने ब्रिटिश चुनाव नतीजों पर इस फॉर्मूले को बिठाकर देखा तो नतीजे बिलकुल सटीक निकल आए। फिर क्या था! थोड़े ही समय में इस छात्र की ख्याति चारों ओर फैल गई। जब चर्चिल ने डेविड बटलर को खाने पर आमंत्रित किया था, तो वो उस समय छात्र ही थे।

डेविड बटलर के इस नियम को “क्यूब लॉ” कहते हैं। इससे दो दलों वाले लोकतांत्रिक चुनावों में बिलकुल सटीक व्याख्या की जा सकती है। ये तीन पार्टियों तक भी चल जाता है मगर जहाँ भारत की तरह कई राजनैतिक दल (और निर्दलीय भी) चुनाव मैदान में हों वहाँ ये फार्मूला पूरी तरह बेकार है। ऐसे नियमों के बारे में खुद बटलर कहते हैं कि किसी एक देश में बना ऐसा कोई नियम 10 साल टिक सकता है लेकिन हर देश में यही नियम लगाना, या कई दलों वाले चुनाव में इसे इस्तेमाल करना वैज्ञानिक तरीका नहीं होगा।

अगर इसी फॉर्मूले को दिल्ली चुनावों पर इस्तेमाल करके देखें तो पिछले चुनावों में AAP के करीब 54%, कॉन्ग्रेस के करीब 9% और भाजपा के 34% के लगभग वोट थे। 70 सीट में इनका बँटवारा किया जाए तो भाजपा को 14-15 आती हैं, AAP को 55-56 मिलेंगी और आखरी बचे कॉन्ग्रेसी, तो उन्हें 0-1 सीट पर संतोष करना पड़ेगा। अधिकांश चैनल पर आए पूर्वानुमानों में आपको करीब यही आँकड़े दिखेंगे। समस्या वही है जो बटलर ने पहले ही बता दी है। ये तीन पार्टियों का चुनाव नहीं था, इसमें और भी दावेदार शामिल हुए थे। इसलिए ये पूर्वानुमान गलत साबित होने वाला है।

चूँकि ये फॉर्मूले धंधे के अन्दर की बात है। इसलिए इनके बारे में पेड मीडिया पर बात नहीं होती। जिन्हें ये फॉर्मूले पता है, वो लोग इनका इस्तेमाल नेताओं से “नजदीकी सम्बन्ध” गाँठने में करेंगे। आपको ये सिखाकर भला क्या फायदा? इसलिए प्रणय रॉय और अशोक लाहिरी के आमंत्रण पर डेविड बटलर भारत आए तो थे लेकिन उनका नाम भी अधिकतर लोगों ने नहीं सुना है। अधिकांश भारतीय लोगों ने चुनाव विश्लेषण बस टीवी पर ही देखा होता है। इन विषयों पर काम करने वाले डॉ एन भास्कर राव भी लगभग अज्ञात जीव हैं।

वो क्या है न कि जानकारी न हो तो ठगने में आसानी रहती है। ये गणित तीन पार्टी वाले चुनाव तक चलता है, मगर कई पार्टियों के बीच होने वाले चुनावों में नहीं, ऐसा बताए बिना अगर विश्लेषण सुनाए जाएँ तभी तो लोग देखेंगे-सुनेंगे! अगर पता हो कि इसके नाकाम होने की ही संभावना ज्यादा है तो भला न्यूज़ बेचने वाले पर भरोसा कौन करेगा? इसके नाकाम होने पर आगे चलकर राग EVM के जरिए समाचार बेचने वाले एवं हारे हुए नेतागण और कुछ दिन मनोरंजन कर पाएँगे। एक मामूली से क्यूब और रेश्यो के फॉर्मूले से 15 दिन का धंधा डूबता है।

बाकी भारत देश में चुनाव करीब-करीब हर समय चलते ही रहते हैं और पोस्टर छापने, चुनाव प्रचार के लिए टेंट-लाउडस्पीकर, कुर्सियाँ किराए पर देने से लेकर, कई छुपे हुए उपहारों की खरीद बिक्री के लिहाज से चुनाव फायदे का धंधा है। कुछ चुनावी चकल्लस चले और चंचला लक्ष्मी उनके घर से निकलकर हमारे घर भी आए तो अच्छा लगता है! चुनाव होते रहने चाहिए मित्रों!

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