‘मिडिल क्लास की संपत्ति नीलाम, कॉरपोरेट लोन माफ’: बैंक की नीलामी विज्ञापन पर ‘द हिंदू’ की डिप्टी एडिटर ने किया गुमराह, जानिए सच

चित्र साभार: (Image: Hindu Business Line/Vijaita's LinkedIn/The Indian Express)

अंग्रेजी समाचार द हिन्दू की डिप्टी एडिटर विजेता सिंह लोन ‘वेव ऑफ’ करने और ‘राइट ऑफ’ करने को लेकर भ्रमित हो गईं। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में विजेता सिंह ने बैंकों को निशाना बनाया। निशाना बनाने का कारण यह था कि बैंक उन संपत्तियों की नीलामी कर रहे थे जिनके कर्ज नहीं भरे गए थे। विजेता सिंह ने ऐतराज जताया कि कॉर्पोरेट के कर्जे ‘राइट ऑफ’ कर दिए जाते हैं जबकि बाकी लोगों की संपत्तियों की नीलामी की जा रही है।

विजेता सिंह ने लिखा, “कॉर्पोरेट लोन राइट ऑफ कर दिए जाते हैं, जबकि मध्यम वर्ग के लोगों के घर और जमीन, जिनका कर्जा नहीं भरा जाता है, बैकों द्वारा जब्त करके नीलाम कर दिए जाते हैं। यह बिहार में केनरा बैंक द्वारा नीलाम की जाने वाली संपत्तियों की सूची है।”

विजेता सिंह ने 28 अप्रैल, 2024 को इंडियन एक्सप्रेस में जारी की गई इस नीलामी विज्ञप्ति का फोटो भी डाला। इस फोटो में दिखता है कि जिन लोगों के घर-मकान नीलाम हो रहे हैं, उनके ₹4 लाख से लेकर ₹1 करोड़ तक के कर्ज नहीं जमा किए गए। हालाँकि, यह कोई पहली बार नहीं है कि विजेता सिंह इस मामले में भ्रमित हुई हों। 2016 में नोटबंदी के बाद भी उन्होंने एक ऐसा ही पोस्ट किया था। इसमें उन्होंने लिखा था कि जहाँ सामान्य लोग लाइनों में लग रहे हैं तो वहीं SBI ने विजय माल्या का ₹1201 करोड़ का ‘राइट ऑफ’ कर दिया।

हालाँकि, उनकी टाइमलाइन देखने पर पता चलता है कि उन्हें यह अंतर खूब अच्छे से पता है। उन्होंने दिसम्बर 2019 में एक ट्वीट में लिखा था, “किसानों के कर्ज माफ़ी पर ₹19,000 करोड़ से अधिक खर्च करने के बावजूद, 2015 से 2018 के बीच महाराष्ट्र में कुल 12,021 किसानों की आत्महत्या के कारण मौत हो गई, यह जानकारी महाराष्ट्र सरकार ने शुक्रवार को विधानसभा में दी।”

क्या जानबूझकर गलत शब्द लिखती हैं विजेता?

विजेता सिंह की टाइमलाइन से पता चला कि वह इन दोनों शब्दों का अंतर समझती हैं तब फिर 28 अप्रैल को ट्विटर पर उनके द्वारा की गई भ्रामक पोस्ट के पीछे आखिर क्या कारण हो सकता है? शायद बात को अधिक सनसनीखेज बनाने के लिए ऐसा किया जाता हो। वैसे पत्रकारिता की नैतिकता मीडिया रिपोर्टिंग के सनसनीखेज होने का समर्थन नहीं करती क्योंकि जनता इससे घबरा सकती है। लेकिन यहाँ ऐसा ही हुआ। मीडिया में किसी खबर को सनसनीखेज बनाया जाता है ताकि पाठकों का ध्यान खींचा जाए।

https://twitter.com/vijaita/status/1142278255350710274?ref_src=twsrc%5Etfw राइट ऑफ और वेव ऑफ में फर्क

'राइट-ऑफ' बैंकों द्वारा उनकी बैलेंस शीट की सफाई की प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य होता है कि बैंक की असल देनदारी और उसकी सम्पत्ति साफ-साफ़ दिखें। बैंक उन कर्जों को बैलेंस शीट से हटा देते हैं जिनके वापस आने की उम्मीद कम होती है। ऐसा ना करने पर बैंकों की कमाई ज्यादा दिखेगी जिससे उसकी असल तस्वीर नहीं दिखेगी। यह काम बैंकों द्वारा हर साल किया जाता है जिससे उन्हें अपने लेनदेन में आसानी रहे।

राइट ऑफ असल में पूरी तरीके से तकनीकी चीज है। जिनके लोन सामान्य तरीके से भरे नहीं जाते वह राइट ऑफ होते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इन्हें वापस वसूलने के लिए कदम नहीं उठाए जाते। बैंक इनको वापस वसूलने के लिए SARFESI एक्ट समेत तमाम प्रक्रिया अपनाती हैं ताकि उनका पैसा वापस मिले। इसके उलट वेव ऑफ माने कर्जामुक्ति होती है। उदाहरण किसानों की कर्जामफी है, इसे 'वेव ऑफ' करने की श्रेणी में रखा जाएगा।

गौरतलब है कि इस सरकार में कर्जों की वसूली भी तेज हुई है। जुलाई 2023 में वित्त मंत्रालय ने लोकसभा को बताया था कि वित्त वर्ष 2014 से 2023 के बीच देश के बैंकों ने लगभग ₹10 लाख करोड़ के एनपीए या खराब कर्जे वसूल किए हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा यह जानकारी लोकसभा में सांसद ज्ञानथिरविअम एस और सांसद विजयकुमार उर्फ ​​विजय वसंत द्वारा पूछे गए अतारांकित प्रश्न के उत्तर में दी गई थी।

Anurag: B.Sc. Multimedia, a journalist by profession.