दहेज़ के बारे में सोचा है? एक तो इसमें ‘ज’ के नीचे जो बिंदी होती है, वो देवनागरी लिपी में होती ही नहीं। यानि ये देशज नहीं, विदेशज शब्द है। दहेज़ जैसा कोई सिद्धांत भारत में नहीं होता था, इसलिए संस्कृत-शुद्ध हिंदी आदि में इसका कोई पर्यायवाची ढूँढना भी वैसा ही होगा जैसे कुर्सी-टेबल, या फिर रेल जैसी चीज़ों का हिंदी पर्यायवाची नहीं मिलता। भाषा चूँकि लोक से वैयाकरणों की ओर बहने वाली नदी है, इसलिए अगर किन्हीं वैयाकरणों ने इसके लिए शब्द गढ़े भी तो उन्हें लोक ने कभी स्वीकार नहीं किया।
इस शब्द के बारे में फ़िलहाल इसलिए सोचना है क्योंकि भारत के लिए ये एक बहुत बड़ी समस्या है। कितनी बड़ी? इतनी बड़ी है कि एक तरफ जहाँ इसे रोकने के लिए भारत में 1961 से कानून हैं, वहीं, दूसरी तरफ दहेज़ का रिवाज़ रोकने के लिए बनाए कानूनों का दुरूपयोग रोकने की बात सर्वोच्च न्यायलय भी कर चुका है। जो पुरुषों और महिलाओं, दोनों के लिए समस्या हो, उसके बारे में सामान्य जन में चर्चा ना हो ऐसा कैसे हो सकता है? फ़िलहाल स्थिति ये है कि इसके विरुद्ध बिहार के राजनेता तो बात करते सुनाई देते हैं, मगर जनता की इसपर चर्चा करने में कोई रूचि नजर नहीं आती।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने दहेज़ के विरोध में पिछले वर्षों में चर्चा की है। बिहार से दहेज़ का रिवाज मिटाने की राजनैतिक कोशिशें कितना रंग लाईं, ये कहना मुश्किल है। कुछेक लोगों ने मुख्यमंत्री के इस पहल पर कदम भी उठाए। मुख्यमंत्री नीतीश ने भी कहा कि मुझे विवाह में आमंत्रित करना हो तो बताएँ कि इस विवाह में दहेज़ नहीं लिया गया। इस कदम के बाद कई लोगों ने दहेज़ ना लेकर शादियाँ की और नीतीश कुमार को आमंत्रित भी किया। मगर इतनी देर तक दहेज़ की बात करने के पीछे हमारा मकसद इस एक सामाजिक बुराई को देखना ही नहीं था, बल्कि कुछ और भी था।
अब जब दहेज़ का आमतौर पर देखा जाने वाला पक्ष हम देख चुके तो आइये सोचते हैं कि ये मिलता किसे है? कोई बेरोजगार हो, कम सुन्दर हो, दिव्यांग हो, तो उसे अधिक दहेज़ मिलेगा या कोई आईएएस हो, डॉक्टर हो, किसी नामी-गिरामी खानदान से हो, तब उसे अधिक दहेज़ मिलेगा? जवाब आपको पता है। कोई बेरोजगार अपना कोई व्यवसाय शुरू कर सके इसके लिए उसे लाखों करोड़ों का दहेज़ नहीं मिलने वाला, लेकिन डॉक्टर को अपना नर्सिंग होम शुरू करने के लिए मिल जाएगा। आपकी जरूरत कितनी बड़ी है, इसके आधार पर दहेज़ नहीं मिलता, आपकी क्षमता कितनी है, दहेज़ इस आधार पर मिलता है।
किसी भी व्यापारिक कर्ज, आर्थिक सहयोग जैसे मामलों में हमेशा यही होता है। ये मुद्रा आपको आपकी क्षमता के आधार पर मिलती है। जरूरत देखकर भीख मिलती है जिससे जैसे-तैसे गुजारा हो सकता है, आगे कोई उन्नति हो, इसकी संभावना भीख से नहीं बनती। जब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग जैसी चीज़ें देखें, तो भी ऐसा ही नजर आएगा। विशेष राज्य का दर्जा या स्पेशल पैकेज की माँग, भीख माँगने जैसा ही है। ये अधिकार की तरह हक़ से नहीं माँगा जाता। इसकी तुलना में अगर गुजरात या महाराष्ट्र जैसे राज्य माँगें, उत्तराखंड माँगे, तो धन सहज ही उपलब्ध हो जाता है।
https://twitter.com/byadavbjp/status/1317694789278576640?ref_src=twsrc%5Etfwबिहार को भी अगर आर्थिक सहयोग, निवेश या उद्योगों की स्थापना चाहिए तो उसे बताना होगा कि उसके पास इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है। सड़कें हैं, सुरक्षा व्यवस्था है, कुशल श्रमिक उपलब्ध हैं, व्यापार के लिए सरकारी मदद का माहौल है, तब तो कोई आकर निवेश करना चाहेगा। जब तक ऐसा निवेश नहीं आएगा ‘विकास’ नहीं होगा। इसकी तुलना में तथाकथित प्रगतिशील पक्षकार जो चंदे-मदद के नाम पर अपने एनजीओ के लिए कुछ फंड माँगना कहते हैं, वो क्या करते हैं? वो कहेंगे गरीबी है, बाढ़ है, बीमारी है, आओ हमें भीख दे दो! ऐसे में जब कोई लड़की कह देगी कि ये अच्छी चीज़ें भी हैं हमारे पास तब क्या होगा?
मैथिली ठाकुर का ‘बिहार में ई बा’ गा देना तो सीधे सीधे उनके धंधे पर ही चोट है! पेट पर कोई लात मार दे और वो बिलबिलाएँ भी नहीं, ऐसा कैसे हो सकता था? मैथिली का गाना उनके ‘विकास’ की राह में रोड़ा है। उन्हें राज्य के विकास से कोई लेना देना नहीं, उनके निजी स्वार्थों से इस गीत के बोल टकराते हैं। ये विवाद गीत पर नहीं हो रहा, ये निजी स्वार्थ के सामाजिक हितों से टकराव का शोर है।