मगध-मित्र: महामारी के बाद नव विकास की संभावनाओं के साथ लौटेगा बिहार का उत्कर्ष

कोरोना के संक्रमण के बाद जब तक राज्य सरकारें संज्ञान ले कर प्रवास कर रहे लोगों को रोकती, कुछ लोग सड़कों पर थे, कुछ अपने घरों में बंद, बिना राशन, बिना भोजन

प्रत्येक राज्य का एक चरित्र होता है। बिहार का भी है। मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी एक लेख में लिखते हैं कि मैं यदि अकेला एक फोटो खिंचाने जाऊँ तो भी मैं उसमें अंतिम पँक्ति में खड़ा अंतिम व्यक्ति होऊँगा। यही बिहार का चरित्र है।

बिहार परछाइयों में रहा है। संभवतः शेरशाह के काल से जब संभवतः सम्राट अशोक के बाद राहुल सांस्कृत्यायन के शब्दों में दूसरी बार बिहार के शौर्य ने हुमायूं की पराजय के साथ दूसरी बार भारत के भविष्य में हस्तक्षेप किया। जहाँ दिल्ली ताल ठोक कर कहता है कि ‘जानता नहीं मेरा बाप कौन है’, बिहार ‘बाबूजी कौन हैं रे तोहार’ का प्रश्न सुनते ही ‘पणाम, चचा!’ कह कर सर झुका कर जलती हुई सिगरेट को मुट्ठी में भींच लेता है।

यह अन्तर्निहित संकोच है जो बिहार को संविधान समिति के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान निर्माता कहने से संकोचित रखता है। संभवतः 87 की क्रांति और फिर निलहों के संघर्ष के बाद की ब्रिटिश उपेक्षा ने बिहार को हाशिये पर धकेल दिया।

स्वतंत्रता के बाद जातिगत राजनीति ने कर्मशील मागधी के लिए कहीं स्थान नहीं छोड़ा और ऐसा पलायन हुआ कि बिहार के हाथ हर राज्य में जा कर राष्ट्र निर्माण में जुट गए। बिहार तो स्तरों पर राष्ट्रीय विकास की धुरी बना – एक, प्रशासनिक व्यवस्था की इस्पाती धुरी जो योजना बनाती थी, दूसरी योजना के ज़मीनी कार्यान्वयन की स्वेद-सरिता के रूप में।

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नैसर्गिक संकोच से भरा बिहार प्रत्येक राज्य में सड़क, मेट्रो, पुल सर नीचे किए बनाता रहा, कई बार अपमान और विरोध भी झेल कर। बहुधा ‘ऐ बिहारी’ के अपमानजनक उद्बोधन के उत्तर बिहार ने कभी क्रोध या राजनैतिक मुखरता से नहीं वरन साहस, संयम और उद्यम से दिया। बिहार ने तो उस पूर्वोत्तर भारत में भी सम्मानपूर्वक भैया बन कर कार्य किया, जिसे अन्य प्रदेशों में उसी कठिनाई का सामना करना पड़ता था।

विपत्ति का बोझ सदा मूक मनुष्यता पर सबसे अधिक पड़ता है, उस भाग पर जो वराह-अवतार के विष्णु की भाँति समाज के अस्तित्व को पीठ पर ढोता है। कोरोना महामारी के उत्तर में जब कोई औषधि या उपाय नहीं था, केंद्र ने एक लॉकडाउन की घोषणा अंतिम उपाय के रूप में की।

आशय यह था की जो जहाँ है वहीं रहे, वैयक्तिक सीमाएँ एक दुसरे को न काटे। ऐसे में जब अचानक विश्व की सबसे पहली में से एक रेल व्यवस्था सहसा रुक गई, कारखाने बंद हो गए, सड़कों पर काम ठहर गया, सबसे नीचे का वह तबका, वह अदृश्य पहिया जिस पर इस महान राष्ट्र का महान रथ चलता है, पंगु हो गया, निरुद्देश्य हो गया।

दैनिक आय पर निर्भर रहने वाले लोग सहसा एक ऐसी अन्धेरी सुरंग के सामने खड़े थे जिसके दूसरे छोर का कोई भान न होता था। कुछ महानगरों में इसके साथ पलायन प्रारम्भ हुआ, और पैदल लोगों की पंक्तियाँ सहसा सड़कों पर उतर गईं। जब तक राज्य सरकारें संज्ञान ले कर उन्हें रोकें, कुछ लोग सड़कों पर थे, कुछ अपने घरों में बंद, बिना राशन, बिना भोजन।

ऐसे समय पर जब इस वैश्विक महामारी के समर में जब चीन के बाद अमेरिका, स्पेन और इटली में मृत्यु मंडरा रही है, लाखों की संख्या में लोग मर रहे हैं, संभवतः भारत के पास अपनी जनसँख्या को देखते हुए इसके सिवा कोई और चारा भी नहीं था। राज्य सरकारों ने संज्ञान लिया और मदद की व्यवस्था की जाने लगी परन्तु प्रशासन का चक्र चलने में समय लेता है।

ऐसे समय जब प्रार्थनाएँ, चिंताएँ और हाहाकार ही सोशल मीडिया पर था, धीरे-धीरे आम नागरिक सहायता के लिए सामने आए। यहाँ एक समस्या यह रही कि अधिकाँश श्रमिक बंधुओं की पहुँच उन राजनैतिक दलों के नेतृत्व तक सीमित थी, जिन्हें वे समय-समय पर समर्थन देते रहे थे। अब सहरसा के नेताजी का सोनीपत में कोई संपर्क नहीं था, न किऊल के नेताजी का कोलकाता में!

दुःख, सहायता की माँग सब अपने आप में एक सीमा तक बंधा हुआ था। दूध के लिए कलपते बच्चों का क्रंदन, भूखे परिवारों का विलाप, एक दीवार तक पहुँच कर लौट आ रहा था। इसी कठिनाई को देख कर ‘मगध-मित्र’ का सोशल मीडिया पर जन्म हुआ। इसका उद्देश्य राजनैतिक दलों की सीमाओं से उठ कर, जिस राज्य अथवा शहर में जिस किसी वालंटियर या स्वयंसेवक समूह का कार्यक्षेत्र हो उससे वहाँ फँसे श्रमिकों तक सहायता पहुँचाना था।

भिन्न-भिन्न दलों का शीर्ष नेतृत्व जिसके पास श्रमिक पहुँच रहे थे, अब इस नेटवर्क से जुड़ कर वापस उन तक पहुँच पा रहे थे, जहाँ स्वयं उनके राजनैतिक दल की पहुँच चाहे न हो। बिहार से राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व दिल्ली में भारतीय जनता दल के नेतृत्व से मदद ले कर पहले ही कार्य कर रहा था। इसे ही विस्तार देते हुए मगध मित्र (ट्विटर हैंडल @BiharBandhu) ने इस पहुँच की समस्या का समाधान किया।

चेन्नई से मुंबई से दिल्ली से बेंगलुरु से मुंबई से कोलकाता से गुरुग्राम से सोनीपत तक मगध मित्र कार्याशील रहा। लगभग हजार से अधिक व्यक्तियों तक मदद की व्यवस्था की गई, सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यकर्ताओं को उनके शहरों में फँसे श्रमिकों से जोड़ कर। इस बीच मगध मित्र का प्रयास यह भी रहा कि शासकीय प्रयासों की सूचना भी यथोचित सब के पास पहुँचती रही।

लेखक, राजनैतिक चिंतक एवं सामाजिक कार्यकर्ता गुरुप्रकाश पटना से एक प्रकार से इसके संयोजक रहे, वहीं दिल्ली से अभिषेक रंजन इस में जुड़ कर वॉलंटियर्स और हताश नागरिकों के मध्य संपर्क की कड़ी बने रहे। अलग अलग क्षेत्र से राजनैतिक कार्यकर्ता भी जुड़ते रहे, भारतीय जनता पार्टी के रत्नेश कुशवाहा पटना से जुड़े रहे और गुरुप्रकाश के साथ सारे भारत में श्रमिक परिवारों को वहाँ के स्थानीय कार्यकर्ताओं तथा समाजसेवी संस्थाओं से जोड़ कर मदद सुनिश्चित करते रहे।

कहते हैं ‘लोग साथ आते गए, कारवाँ बनता गया’, दिल्ली से जहाँ भाजपा के मनीष सिंह जुड़े, विद्यार्थी परिषद् की वैशाली पोद्दार से ले कर उत्तराखंड से भाजपा की नेहा जोशी की मदद मिली, वहीं सर्वोच्च न्यायलय अधिवक्ता सविता सिंह दिल्ली में मदद को जुड़ी; चेन्नई में पहुँचना कठिन था, वहाँ सुदर्शन जी ने मदद की।

इस प्रयास में अनेको नाम हैं, जिन्हें चिन्हित करना भी संभव नहीं है, जिन्हें राष्ट्रीय सरोकार के प्रति जागरूकता के लिए साधुवाद ही भेजा जा सकता है। अलग-अलग नगरों में जिन संस्थाओं ने मगध मित्र का साथ दिया, जिन नागरिकों ने इस विपदा में हाथ बढ़ाया, उन सबके समर्पण ने ही इस प्रयास की सफलता में सहायता की।

प्रत्येक आपदा में नव-विकास की संभावनाएँ छिपी होती हैं। जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर इस संकट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक नई वैश्विक शक्ति के रूप में निश्चय ही उभरेगा, आशा है कि बिहार भी एक राज्य के रूप में दलगत एवं जातिगत राजनीति से इतर एक नए रूप में उदित होगा, मगध गौरव के साथ।

ऐसे प्रयास न सिर्फ संकट काल में लोगों को जोड़ते हैं, वरन उन्हें यह भी आभास दिलाते हैं कि विभाजनकारी राजनीति, विकास-विरोधी विचारधारा की अपनी सीमाएँ होती हैं और यदि आधारभूत विकास ठहर जाता है तो ‘सब सामान्य है’ का विचार एक क्षणभंगुर आश्वासन से अधिक कुछ नहीं रह जाता। इस संकट के मध्य बने जुड़ाव से शायद एक परिपक्व सोच निकले जो बिहार को बदल दे।

जैसे प्लेग ने सूरत को, भूकंप ने सौराष्ट्र को परिवर्तित किया, प्रत्येक आपदा हमें नए सिरे से सोचने का अवसर देती है। संघर्ष अभी आगे भी है। मगध-मित्र अपने आप में संस्था नहीं है, मगध-मित्र एक प्रयास है, एक पुल है, जिसके एक ओर वो भले लोग हैं, सामाजिक संस्थाएँ हैं, जो इस संकट की घडी में अपना नागरिक कर्त्तव्य और सामाजिक दायित्व निभाने को तत्पर हैं, दूसरी ओर हताश और निराश मित्र हैं जिन्हें अपने अगले भोजन के आने का विश्वास नहीं है, वो बच्चे हैं जिन्हें दूध की अगली घूँट का भरोसा नहीं है।

इसे आने वाले समय में और विस्तार की, और विश्वास की आवश्यकता है। अधिक लाभार्थियों को संस्थाओं से और सरकार से जोड़ने की आवश्यकता है, अधिक संस्थाओं से मगध मित्र को जुड़ने की आवश्यकता है, ताकि इसकी पहुँच व्यापक हो सके।

अभी संकट टला नहीं है, हमें मिल कर ही लड़ना है, अपने लिए और अपनों के लिए, और राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में – “समर शेष है पाप के भागी नहीं केवल व्याघ्र/ जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।”

Saket Suryesh: A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.