उस रात लुटियन मीडिया होती तो हत्या खबर न होती, सरदार की गालियों पर प्राइम टाइम होता

दिल्ली को देश और देश को दिल्ली मान चुकी है मीडिया!

वाजपेयी की सत्ता से विदाई को दो साल से ज्यादा हो गए थे। केंद्र में कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार ​थी। उस राज्य की सत्ता पर भी पिछले दरवाजे से कॉन्ग्रेस आ गई थी। मुख्यमंत्री एक निर्दलीय हुआ करता था। उस शहर से तीन बड़े हिंदी अखबारों के संस्करण निकलते थे। शहर से बाहर निकलते ही रेड कॉरिडोर शुरू हो जाता था। उन दिनों करीब-करीब पूरा राज्य ही रेड कॉरिडोर था।

रात के करीब 9 बज रहे थे। वह रिपोर्टर अपनी खबरें फाइल कर निकलने की तैयारी में था। संपादक ने इशारों से केबिन में बुलाया। एक गाँव का नाम बताया। कहा सूचना मिली है कि नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में एक ग्रामीण का गला रेत लाश टाँग दिया है। रात हो गई है इसलिए पुलिस सुबह जाएगी। यह खबर किसी के पास नहीं है (छोटे शहरों में जब जोखिम वाले मोर्चे पर रिपोर्टरों को लगाया जाता है तो कान में संपादक यही मंत्र फूँकता है। चंद हजार रुपए पाने वाला रिपोर्टर यह सुनते ही बड़ा पत्रकार बनने के सपने देखने लगता है)। तुरंत निकलिए। 2 बजे तक लौट आइएगा। सिटी एडिशन का लीड यही है। फिर फोटोग्राफर बुलाया जाता है। उसे निकलने का हुक्म मिलता है। संपादक जी अपनी एंबेसडर कार और ड्राइवर के साथ दोनों को भेजते हैं।

करीब डेढ़ किमी एंबेसडर चलती है तो हाइवे आ जाता। कार उस मशहूर ढाबे के पास रुकती है। अंदर घुसते ही रिपोर्टर की नजर एक टेबल पर बैठे प्रतिद्वंद्वी अखबार के रिपोर्टर पर पड़ती है। रिपोर्टर और फोटोग्राफर उनसे नजरें बचाकर टेबल खोजते हैं। जल्दी-जल्दी खाना निपटाकर बाहर निकलते हैं। पान की दुकान पर पहुँचते हैं। वहाँ पहले से ही वे मौजूद होते हैं जिनसे रिपोर्टर होटल में छिप रहा था। अब कहाँ भागे? इतनी देर में तीसरे अखबार के रिपोर्टर और फोटोग्राफर भी न जाने कहाँ से वहीं धमक पड़ते हैं।

5-10 मिनट के टालमटोल के बाद तीनों रिपोर्टर फूट पड़ते हैं। पता चलता है सब एक ही मोर्चे पर ​जा रहे हैं। संपादक ने फिर से ले ली है। बड़े पत्रकार बनने का सपना टूट जाता है। अब चर्चा इस बात पर होती है कि हम कहाँ जा रहे हैं। कितने जोखिम में जा रहे हैं। फिर तीनों अखबार की गाडियाँ साथ चलती हैं। हाइवे पर कुछ किमी चल गाड़ियाँ नीचे उतरती हैं। घुप्प अंधेरा। सर्द रात। तीन गाड़ियाँ। 9 सवार। कहीं कोई आहट नहीं।

रास्ते में अर्धसैनिक बल का एक कैंप होता है। उन्हें दूर से ही शायद दिख गया था कि तीन गाड़ियाँ एक साथ आ रही है। वे पहले से तैयार थे। गाड़ियॉं करीब आते ही तेज रोशनी के बीच चारों तरफ से संगीनों से घेर लेते हैं। गाड़ी से ही फोटोग्राफर कैमरा बाहर निकालकर हिलाता है। जवान जब हर तरीके से संतुष्ट हो जाते हैं तो सबको बाहर निकलने को कहा जाता है। उनका एक अधिकारी सामने आता है। वे थे सरदार जी। उन्होंने न कुछ पूछा, न कुछ जाना। नॉन स्टॉप गालियों की बौछार। माँ-बहन की। ठेठ पंजाबी में। फिर इतनी रात आने का कारण जाना। एक राउंड और गालियों की बौछार चली। फिर इस धमकी के साथ आगे बढ़ने को कहा- सालों खुद तो मरने आते ही हो किसी दिन हम सबको भी लेकर मरना। लौटते वक्त इस रास्ते से न आना। अगली बार पूछूँगा नहीं, सीधे ठोकूँगा।

गाड़ियॉं आगे बढ़ती हैं। गॉंव में पहुँचती हैं। एक पेड़ के पास पेट्रोमेक्स जलाकर कुछ लोग बैठे हैं। लाश टँगी है। वहाँ बैठे लोग सुबह का इंतजार कर रहे हैं। पुलिस आएगी तो लाश उतरेगी। पहले उतार लिया तो कल पुलिस अलग से पेलेगी। रिपोर्टर गाड़ी से उतरते हैं। वहाँ बैठे लोगों से मरने वाले का नाम वगैरह पूछते हैं। मोटी-मोटी जानकारी लेते हैं। फोटोग्राफर तेजी से तस्वीरें लेने लगते हैं। सब जल्दी में। फटाफट निपटे काम और भागे यहाँ से। जल्दबाजी में गाड़ी बैक करते समय एंबेसडर का फ्यूल टैंक वहाँ रखे किसी पत्थर से रगड़ खाता है। फ्यूल रिसने लगता है। ड्राइवर को पता भी नहीं चलता। उसे इसकी भनक रास्ते में लगती है। तय किया गया कि गाड़ी लेकर ड्राइवर अर्धसैनिक बल के कैंप के पास रुक जाएगा। रिपोर्टर और फोटोग्राफर दूसरे अखबार की गाड़ी से निकल लेंगे। ड्राइवर सुबह गाड़ी ठीक करवाएगा और लौटेगा।

लेकिन, कैंप के पास जैसे ही गाड़ियॉं पहुँचती हैं फिर तेज रोशनी और संगीनों से ही स्वागत होता है। इस बार, सरदार जी फट पड़ते हैं। एक फोटोग्राफर को (उसे होशियारी का सबसे ज्यादा भ्रम था) दो-चार जड़ देते हैं। एंबेसडर पार्क नहीं करने देते। बोलते हैं इसके साथ ही तुम लोगों को भी फूँक दूँगा। गालियों का ऐसा राउंड जो लिख नहीं सकता। पिट-पिटाकर कर तीनों गाड़ियाँ आगे बढ़ती हैं। पर कुछेक सौ मीटर के बाद एंबेसडर आगे बढ़ने से इनकार कर देती है। एंबेसडर में सवार तीनों फटाक से बाहर निकलते हैं और दूसरी गाड़ी में सवार हो जाते हैं। कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता है। खौफ की जवानों ने रुका देखा तो अब गोली ही मारेंगे।

अगली सुबह तीनों अखबार के सिटी एडिशन की लीड होती है यह खबर। किसी को पता भी नहीं चलता कि खबर किसकी है। असल में रिपोर्टरों के लौट आने के बाद संपादकों को पता चल गया होता है कि दूसरे के आदमी भी वहॉं थे। अब संपादक जी बाइलाइन देने से तो रहे। उन्हें अब यह पता करना है कि उनकी एक्सक्लूसिव सूचना रिपोर्टर और फोटोग्राफर में से किसने लीक की।

जेएनयू में उपद्रव के बाद से ही कुछ साथियों को लगातार सोशल मीडिया में लिखते देख रहा हूँ कि मुझे देशद्रोही कहा। मेरा मोबाइल छीन लिया। फोटो डिलीट करवा दी। पुलिस देखती रही। पुलिस ने कुछ नहीं किया। एक तरह से खुद को विक्टिम दिखाना। पुलिस-प्रशासन को विलेन बताना। असल में हालात कुछ ऐसे होते हैं कि कभी-कभी प्रशासन भी मजबूर हो जाता है। उन सरदार जी की बौखलाहट समझी जा सकती है। ऐसी ही गाड़ियों में नक्सली भी आते होंगे। घात लगाकर जवानों को मार जाते होंगे।

ये घटना केवल इसलिए बताई कि आप जान सकें कि महानगरों के बड़े पत्रकार जिन चीजों पर इतना शोर मचा लेते हैं, वे छोटे शहरों के पत्रकारों की आपबीती के सामने कुछ भी नहीं होते। लेकिन, वहाँ इन घटनाओं को लेकर इतना विलाप नहीं होता। कभी-कभी सोचने लगता हूँ कि उस रात ये सब होते थे तो उस ग्रामीण की लाश टँगी तस्वीर न छपी होती। छपती उस सरदार और उसके जवानों की फोटू! नक्सलियों द्वारा ग्रामीण का गला रेतना अखबार के किसी भीतरी पन्ने पर दबा होता है। लीड होती वे गालियाँ और उन रिपोर्टरों की चाशनी में लिपटा प्रोपेगेंडा।

पर क्या तब भी मनमोहन-सोनिया को उतनी ही गाली पड़ रही होती, जिस तरह आज मोदी-शाह की जोड़ी को गिरोह ने निशाने पर ले रखा है! शायद नहीं। क्योंकि छोटे शहरों के उन खबरनवीसों को खुद को खबर बनाकर बेचने की कला नहीं आती थी। ये खबरनवीस उन्हीं अखबारों में काम करते हैं, खबर निकालते हैं, जिन्हें पढ़ने के लिए आपको रवीश कुमार रोकते हैं।

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