UGC NET द्वारा उमैया खान का हिजाब उतरवाना एहतियात है, भेदभाव नहीं

उमैया खान का वह पोस्ट जब कथित तौर पर UGC NET परीक्षा से उन्हें हिजाब न हटाने पर लौटा दिया गया

उमैया खान ने गुहार लगाई कि उनके मजहब के कारण, जो कि उन्हें हिजाब पहनने की आज़ादी देता है, UGC NET की परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया। अल्पसंख्यक आयोग ने इसे भेदभाव मानते हुए यूजीसी को नोटिस भेजा है। यूजीसी ने कहा कि उसे हिजाब पहनने के कारण परीक्षा से अलग नहीं किया गया, बल्कि वो हिजाब हटाने को तैयार नहीं थी जो कि नियमों के खिलाफ है। 

यहाँ पर दो बातें हैं, पहली तो यह कि इस देश में जिस समुदाय की संख्या बीस करोड़ है, वो अल्पसंख्यक तो किसी भी तरीके से नहीं है। बीस करोड़ से कम आबादी के दसियों देश हैं, और ऐसे समुदायों को अनंतकाल तक अपनी नकली व्यथा कहते हुए विक्टिम-विक्टिम खेलने की कोई ज़रूरत नहीं। दूसरी बात यह है कि जहाँ परीक्षा के लिए कोई तय नियम है, तो वो संवैधानिक रूप से हर अभ्यर्थी पर लागू होगा। 

समुदाय विशेष की लड़कियाँ हिजाब पहनती हैं, लेकिन हिजाब पहनना ही किसी को मुस्लिम नहीं बनाता, न ही किसी सही कारण से उस कपड़े को हटाकर चेहरा दिखाने, चेक करवाने से उसका इस्लाम या मज़हब ख़तरे में पड़ जाता है। ऐसा तो नहीं है कि हर मुस्लिम लड़की हिजाब पहनती है, न ही ऐसा है कि उसे सड़क पर, किसी सामाजिक आयोजन पर, किसी भीड़ में से निकाल कर यह कह दिया गया कि हिजाब उतार दो।

ऐसा नहीं हुआ। आज जब इसी चोरी और व्यवस्थित तरीके से हो रही हाईटेक चीटिंग के कारण SSC की परीक्षाएँ कैंसिल हो रही हैं, कोर्ट में हर परीक्षा पर केस हो जाता है, रिजल्ट आने में साल से दो साल तक की देरी होती, वहाँ अगर कोई संस्था अपने नियमों से चले और हर लड़की-लड़के को अच्छे से चेक करे तो उसमें गलत क्या है?

एहतियात या भेदभाव?

किसी घटना के होने के बाद एक बड़ी अव्यवस्था को रोकने के बजाय अगर एहतियात के तौर पर क़दम उठाए जाएँ तो वो भेदभाव नहीं है। कई लोगों का कपड़ा एयरपोर्ट पर उतरवाकर उन्हें बाक़ियों से ज़्यादा देर तक रोककर सुनिश्चित किया जाता है कि वो सही व्यक्ति हैं, तो इसमें उस देश की सुरक्षा एजेंसी भेदभाव नहीं कर रही, उनके पास जो आँकड़ें हैं, उनके आधार पर वो अपनी सुरक्षा को लेकर सचेत हैं। 

वैसे ही, जब हर परीक्षा में चोरी की बातें सामने आ रही हैं, तो हर परीक्षा केन्द्र को, हर कर्मचारी को ये अधिकार है कि वो बाकी के परीक्षार्थियों के साथ भेदभाव न हो, इससे बचने के लिए सारे लोगों को एक ही मानदंड पर सचेत रहकर जाँच करे। क्योंकि कल को अगर पता चले, और साबित हो जाए कि अमुक केन्द्र पर चोरी हुई तो सिर्फ हिजाब या मफ़लर वाले की परीक्षा निरस्त नहीं होगी, पूरे केन्द्र या फिर पूरी परीक्षा ही निरस्त की जा सकती है। ऐसा कई बार हुआ भी है। इसलिए ऐसे मामलों में भावुक होकर धार्मिक अल्पसंख्यक का कार्ड खेलना एक बेकार बात है। 

धर्म के आधार पर भेदभाव हिजाब देखकर किसी को रोकना नहीं है, बल्कि नाम पढ़कर कोई ऐसा नियम बता देना भेदभाव है जो बाकी के साथ नहीं होता। उसे यह कहा जाता कि तुम्हारे जूते का रंग वैसा नहीं है, जैसा परीक्षार्थी को पहनना चाहिए। भेदभाव उसे कहते हैं, न कि जिस हिजाब के अंदर कोई उसका लाभ लेते हुए इयरपीस लगा रखा हो, और नियमों की अनदेखी करते हुए आने पर जाँच करने को।

किसी लड़के ने मफ़लर या टोपी पहन रखी हो, तो क्या उसे ऐसे ही बैठने दिया जाए? क्या जिस बात पर अल्पसंख्यक आयोग नोटिस भेज रही है, वो ये जानती है कि वहाँ बैठे बच्चों के मफ़लर, टोपी, स्कार्फ़ कभी नहीं उतरवाए गए होंगे? मैंने भी यही परीक्षा दी है और मुझसे भी हर लूज़ कपड़ा (गमछी, टोपी, मफ़लर आदि) उतरवा कर रखवा दिया गया था। तो क्या मैं यह कहने लगूँ कि ये मेरे कपड़े पहनने की स्वतंत्रता का हनन है?

वैयक्तिक अधिकार बनाम संस्थागत नियम

धार्मिक स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन सरकारी संस्थाओं के अपने नियम भी उनकी स्वायत्तता के अनुसार संवैधानिक हैं। वो एक तार्किक दायरे में रहकर हर कैंडिडेट को एक ही तरीके से परखने के मानक रखते हैं। बाद में आरक्षण के आधार पर कम नंबर वाले पास होते हैं, वो बात अलग है। लेकिन परीक्षा से पहले किसी को दूसरे परीक्षार्थी से ज़्यादा छूट देना बाक़ियों के साथ भेदभाव जैसा है। 

हो सकता है कि उमैया के कानों में कोई इयरफोन नहीं रहा हो, लेकिन ये कौन तय करेगा कि बिना देखे ही उसे सत्य मान लिया जाए? फिर अगले पेपर में दस लोग हिजाब और बुर्क़े में आ जाएँ, दस लोग बंदर-टोपी पहनकर आ जाएँ और कहें कि ‘उसे तो नहीं रोका, हमें क्यों रोक रहे’, तो यूजीसी क्या कहकर अपना पक्ष रखेगी? और आप इस बात पर संविधान का नाम लेकर, ‘शॉविनिस्टिक गवर्मेंट सरवेंट’ की हद तक चली जाती हैं मानो उसका काम आपके धर्म के वैकल्पिक बातों को तरजीह देना हो, न कि इस बात की कि कोई चोरी न करें, हिजाब पहनकर!

अल्पसंख्यकों के पास अधिकार हैं, ज़रूर हैं, संवैधानिक हैं। लेकिन, यही संविधान तमाम संस्थाओं को सही तरीके से परीक्षा कराने का भी आदेश देती है। कई संस्थाएँ बेल्ट उतरवा लेती हैं, हाफ शर्ट पहनकर आने कहती हैं, खाली पैर में परीक्षाएँ लेती हैं, फ़िज़िकल एक्जाम अंडरवेयर में लेती हैं, तो क्या वहाँ अभ्यर्थी अपने अधिकारों को लेकर अड़ जाए? 

जब आपकी परीक्षा हॉल की टिकट पर लिखा रहता है कि आपको किस रंग की क़लम और पेंसिल लेकर आना है, तो क्या हम कहते हैं कि हम भगवा रंग की क़लम से सर्कल को रंगेंगे? परीक्षा के तय नियम हैं, जो सबके लिए समान नहीं होंगे तो निश्चित ही आप किसी को जानबूझकर फ़ेवर कर रहे हैं। अगर किसी मुस्लिम को उसके धार्मिक वेशभूषा के आधार परीक्षा में बैठने दिया जाए, तो यह सुनिश्चित कैसे होगा कि वो इसका ग़लत लाभ नहीं ले रही?

हमारे स्कूलों की अवधारणा में ‘यूनिफ़ॉर्म’ की बात होती है। सारे विद्यार्थी एक तरह के कपड़े पहनते हैं ताकि ‘समानता’ हर स्तर पर दिखे। बच्चों के दिमाग से जाति, धर्म, स्टेटस या किसी भी और तरह की बात को वहीं से हटाने की ये एक कोशिश शुरु होती है कि आप सब समान हैं। आपको वही शिक्षक/शिक्षिका पढ़ाते हैं, आप एक ही प्रार्थना करते हैं, एक ही संविधान की प्रस्तावना को ज़ोर से दोहराते हैं। 

तब क्या एक मुस्लिम, ईसाई या हिन्दू विद्यार्थी यह कहकर इनकार कर दे कि उसके धर्म में ऐसा करना वर्जित है? अगर वर्जित हैं तो आप उस स्कूल में मत जाइए क्योंकि कि एक धर्मनिरपेक्ष समाज में जहाँ आप इस तरह की लाइन पकड़ते हैं तो आप बेवजह विक्टिम बनने की कोशिश करते हैं। आपको ऐसे सिस्टम से समस्या है तो आपके पास यह आज़ादी है कि आप उस सिस्टम का हिस्सा न बनें। आपको अपने जीवन के कई पड़ावों पर यह चुनना पड़ेगा कि आप के लिए धार्मिक मान्यताएँ ज़्यादा ज़रूरी हैं या कुछ और। 

मैं यह नहीं कह रहा कि हिजाब वालों को यूजीसी की परीक्षा नहीं देनी चाहिए। मैं बस यह कह रहा हूँ कि हर साल दो बार, दसियों मुस्लिम लड़कियाँ इस परीक्षा में बिना हिजाब और बुर्क़ा के उत्तीर्ण होती हैं। उन्होंने अपने धर्म की कुछ बातों को, जो कि वैकल्पिक हैं, उसे छः घंटे के लिए परीक्षा भवन के बाहर छोड़कर, एक सामान्य अभ्यर्थी की तरह परीक्षा दी और पास हुए। 

क्या यूजीसी ने नाम देखकर उसकी छँटनी कर दी? या यह कह दिया कि तुम हिजाब पहनकर आई हो, अब तो बेठने ही नहीं देंगे? यूजीसी ने कहा कि इसे आप हटाकर, हमें दिखा दीजिए कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जो कई चोर लगाकर आ जाते हैं। इसमें भेदभाव तब होता जब वो हिजाब पहनकर बैठती और वहीं कोई मुस्लिम परीक्षार्थी यह सोचती कि उसने तो अपने धर्म को कमरे के बाहर त्याग दिया था, जबकि वो उसे टेबल तक ला सकती थी। उसे इस बात की ग्लानि ही होने लगेगी कि वो कम मुस्लिम है! 

शिक्षा व्यवस्था का मूल कार्य देश को एक बेहतर नागरिक देना है, जो कि हर तरह के भेदभाव से ऊपर उठा हो। जहाँ समुदाय विशेष के बच्चे बहुसंख्यक हैं, वहाँ वो धार्मिक ‘विकल्पों’ को अतिमहत्वपूर्ण ‘ज़रूरत’ मानकर शिक्षा पाते हैं। वैसे ही गुरुकुलों में बच्चों का अलग ड्रेस कोड है, वहाँ उन्हें सर मुड़ाकर बैठना होता है, एक धोती पहननी होती है। अगर संस्थान की प्रकृति धार्मिक है तो वहाँ बेशक धार्मिक मानक अपनाएँ जाएँ, लेकिन जहाँ संवैधानिक बात होगी, वहाँ तो हमें हर नागरिक को समान मानकों पर आँकना होगा। 

जबरदस्ती के मतलब निकालने की अस्वस्थ परम्परा

कुल मिलाकर, आजकल यह एक फ़ैशन हो गया है कि बीस करोड़ की आबादी वाले समुदाय के अति-सुरक्षित दायरों में रहनेवाले लोग अपने बच्चों की ज़िंदगी के लिए डरने लगे हैं। अब एक सामान्यीकृत लेकिन ग़लत विचार पनपने लगा है कि फ़लाँ सरकार हमारे मतलब की नहीं है तो उसे हर उस बात पर खींच लिया जाए, जिससे के पीछे सिवाय कुतर्क के कुछ नहीं। 

यही कारण है कि असंवैधानिक और ग़ैरक़ानूनी तरीके से गाय काटकर दंगे को हवा देने वाली साज़िशों पर जब योगी आदित्यनाथ यह कहते हैं कि हम गाय काटनेवालों को सजा दिलवाएँगे तो कुछ गिरोह के लोग स्वयं ही ये हल्ला करने लगते हैं कि उसके लिए आदमी की जान गाय से कमतर है। जबकि दूसरी पंक्ति में वही आदित्यनाथ यह भी कहते सुनाई देते हैं कि दो व्यक्तियों की मौतें एक दुर्घटना थी और पुलिस उसकी भी जाँच कर रही है। 

लेकिन चुनावों के दौर में, नैरेटिव पर शिकंजा कसनेवाले गिरोह के लोगों की बिलबिलाहट ही है जो इस तरह की फ़र्ज़ी और बेकार बातों को हवा देते हैं कि किसी लड़की का हिजाब यूजीसी जैसी संस्था के तय नियमों से ऊपर की चीज है। लड़की जब फ़ॉर्म भर रही होती है तो वो किसी इस्लामी मदरसे का फ़ॉर्म नहीं होता, वो भारत की संवैधानिक संस्था का फ़ॉर्म होता है जहाँ हिजाब उतनी ही ग़ैरज़रूरी वस्तु है जितनी मंकीकैप। 

जो लोग परीक्षा भवन में हिजाब के होने को इस्लाम का अभिन्न अंग मानते हैं, उन्हें न तो इस्लाम की समझ है, न ही इसकी कि परीक्षा भवन में परीक्षार्थी बेठते हैं, हिन्दू और मुस्लिम नहीं। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में जाकर भी अगर आप इतनी सी बात नहीं समझ पा रहे कि छः घंटे के लिए हिजाब उतार लेने से आपके साथ भेदभाव नहीं हो रहा, बल्कि आपको बाक़ी परीक्षार्थियों के समान देखा जा रहा है, तो आपने जो भी पढ़ाई की है, उसमें आग लगाकर हाथ सेंक लीजिए।

हर जगह अल्पसंख्यक होने का रोना रोना वही कुतर्क है जैसे कि किसी महिला का पुरुष ट्वॉयलेट में नारीवाद के नाम घुसने की बात। अल्पसंख्यक हैं तो उसको अपनी कमज़ोरी मत बनाइए, उसका गलत फायदा मत उठाइए क्योंकि जिस बुनियादी अधिकार के कारण आपको ये लगता है कि आप हर संस्था में अपने अधिकार का झंडा लेकर घूम सकती हैं, वही संविधान और कोर्ट यूजीसी जैसी संस्थाओं को भी अपने हर परीक्षा में तमाम एहतियात बरतने की आज़ादी देता है। 

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अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी