पिया वही जो दुल्हन मन भाए

महागठबंधन के महामंच से प्यारे नेताजी

एक ऐसी बारात की कल्पना कीजिए जिसमें दूल्हा ना हो, दूल्हे के स्थान पर एक आश्वासन हो कि आप बस हाँ कीजिए, हम बढ़िया वाला ला कर देंगे। क्या दूल्हा पढ़ा लिखा, ईमानदार, नौकरीपेशा, पाँच अंकों में, सुंदर, सुशील, कॉन्वेंट एजुकेटेड और गृह कार्य में दक्ष है? उत्तर यह प्राप्त होता कि आप ब्याह तो कराएँ, दूल्हे के विषय में पता चलते ही सूचित किया जाएगा।

बिहार में नब्बे के दशक में पकड़ौआ विवाह की चर्चा हुई थी, आज हम बुझौआ विवाह की बात कर रहे हैं, जिसमें सुगढ़ वधू की भाँति मँडप में स्वप्न लिए बैठी कन्या को तो हम जानते हैं किंतु वर “बूझो तो जानें” “फास्टेस्ट एंड वाइलडेस्ट फ़िंगर फर्स्ट” तथा “बिग बॉस” विधि के द्वारा तय किया जाएगा। मुद्दा सिर्फ़ यह है कि सर्वप्रथम विजातीय विधर्मी प्रेम में पड़ी कन्या को प्रेमपाश से मुक्त किया जाए, फिर किसी के भी गले में डाल दिया जाए।

अब इस पारिवारिक सी भान होने वाली समस्या को राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर प्रक्षेपित करें और कल बंगाल में हुए विपक्षी सम्मेलन के परिपेक्ष्य में देखें। इस महासम्मेलन का मूलभाव संदेश जनता को यह था कि गोलमाल के भवानीशंकर के शब्दों में कहें तो- तुम्हारा विवाह उससे नहीं होगा जिससे तुम प्रेम करती हो, तुम्हारा विवाह उससे होगा जिससे मैं, यानी विपक्ष, प्रेम करता है। और ये भवानीशंकर से भी अधिक चंठ है कि जहाँ भवानीशंकर रामप्रसाद की ओर इंगित करते थे, यह रामसे के चलचित्र की भाँति दर्शक को सोच में छोड़ देते हैं कि क्या दस जनपथ की पुरानी हवेली का बूढ़ा चौकीदार ही प्रेत है जिससे कालांतर में अबोध कन्या के विवाह की प्रस्ताव है?

23 दलों के श्राद्धभोजन समान दिखने वाली सभा के सस्पेंस के मूल में निर्दोष दिशाहीनता नहीं है, बल्कि एक कुटिल गणित है। इसके मूल में संविधान-संगत सर्वोच्च प्रधानमंत्री पद के प्रति और मतदाता के विवेक के प्रति ठेठ निरादर का भाव है। इनका ध्येय वही सोनिया गाँधी और एनजीओ मंडल (यही वह अंडा था जिससे चुनाव दर चुनाव अंडे देने वाली मुर्गी का जन्म हुआ था) वाला मॉडल है, जिसमें प्रधानमंत्री का महत्व फ़ाइलों पर पार्टी अध्यक्ष द्वारा क्लीयर की गई फ़ाइलों पर तितली बिठाने से अधिक नहीं है। इस मॉडल में प्रधानमंत्री की जवाबदेही जनता के प्रति नहीं पार्टी अध्यक्ष के प्रति होती है, क्योंकि वह निर्वाचित ना होकर चयनित प्रधानमंत्री होता है।

मज़े की बात यह है कि जो लोग संविधान को लेकर सबसे अधिक चिंतित होते है, उन्हें इस पर चिंता नहीं होती है कि संविधान में क्या परिभाषित है, पर वह इस पर त्योहार मना रहे हैं कि विपक्ष उस के आधार पर राजनीति बना रहा है जो परिभाषित नही है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी भाषा में कहे तो लोअर डिविज़न क्लर्क बिठाने के बाद विपक्ष अब केंद्र में प्रधानमंत्री के रूप में अपर डिविज़न क्लर्क नियुक्त करना चाहता है। इसका कारण सिर्फ़ यह नहीं है कि विपक्ष अपने इतिहास और वर्तमान के प्रकाश में नरेंद्र मोदी के समक्ष खड़ा करने के लिए समकक्ष नेता नही ढूँढ पा रहा है जो कि सर्वमान्य हो क्योंकि यह संगठन महात्वकांक्षा प्रचुर है। इसका कारण यह है कि यह ऐसे दलो का गठबंधन है जो राष्ट्रीय आकांक्षाओं से इतर छोटे समूहों के छोटे स्वार्थों के ऊपर खड़ा है।

इस स्वार्थ पर आधारित समूह के अपने सिद्धांत एक दूसरे को काटते हैं। जैसे तृणमूल कॉन्ग्रेस का बंगालीवाद राष्ट्रीय भाव के विरूद्ध है मानो सारा भारत (जिसमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक भी है) उसे लीलने आ रहा है; वहीं तमिलनाडु का डीएमके शेष भारत को शत्रु बता कर स्वार्थ सिद्ध करता है।

मायावती अपने उस वोट बैंक पर निर्भर है जो तिलक तराजू और तलवार को जूते चार मारने की इच्छा रखती है विकास और शिक्षा की नहीं, तेजस्वी यादव का दल भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ़ करना चाहता है। इनके छोटे-छोटे गिरोहों का स्वार्थ दूसरे गिरोहों के विनाश पर अधिक और अपने विकास पर कम आधारित होता है। सो इनके लिए अपने सीमित वोटबैंक के पास जा कर गठबंधन के लिए मत माँगना कठिन है क्योंकि जहाँ उसमें भारत विरोधी नेशनल कॉन्फ्रेंस है, यादव विरोधी मायावती हैं, मायावती विरोधी अखिलेश हैं, उत्तर विरोधी दक्षिण में सीमित डीएमके है, उत्तर भारत तक सीमित दल राजद- बसपा -सपा हैं, आरक्षण विरोधी हार्दिक है, आरक्षण समर्थक जिग्नेश मेवानी हैं, कॉन्ग्रेस विरोधी केजरीवाल है, और स्वयं कॉन्ग्रेस है। कुल मिला कर यह गठबंधन ऐसे विरोधाभासों से भरा है कि इसे चुनाव पूर्व स्थापित कर के वोट बैंक के पास जाने से स्वार्थ-सम्मत वोट बैंक छितर जाने का भय इन घाघ राजनेताओं को भी है।

अत: नेतृत्वविहीन और नीतिविहीन हो कर मतदाता के पास जाना इनकी अपरिहार्य नियति है। एक भ्रामक संरचना और संवाद इस गठबंधन की सोची-समझी साज़िश है कि कोई कल को चेन्नई में स्तालिन से ना पूछे कि क्या हिंदीभाषी अखिलेश हमें निगल जाएगा, कोलकाता के हिंदू ममता से यह ना पूछें कि क्या फ़ारूख अब्दुल्ला कश्मीरी पंडित मॉडल बंगाल में लागू कर के आज़ादी दिलाएँगे, दिल्ली में केजरीवाल से यह प्रश्न ना पूछा जाए कि कॉन्ग्रेसियों के भ्रष्टाचार की बहुप्रचारित 370 पन्ने की किताब में क्या अगला नाम स्वयं उनके हैं। यह कुटिल राजनीति है। प्रत्येक दल की अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षा अलग समस्या है।

कुल मिला कर यह गठबंधन मतदाताओं को मोदी के विरोध में मत डालने को कहता है किंतु यह नहीं बताता कि मत किसके पक्ष में डालना है। यह वो बारात है जिसका हर बाराती स्वयं को दूल्हा मान कर आया है ताकि वधू प्रेमी को प्रेमपाश से मुक्त किया जा सके और वधू दूल्हों की भीड़ में जयमाल थामें किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी है।

Saket Suryesh: A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.