‘लिव इन भारतीय संस्कृति के लिए कलंक’: छत्तीसगढ़ HC से अब्दुल को झटका, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था- मुस्लिमों को इसका अधिकार नहीं

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट (साभार: highcourt.cg.gov.in)

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि आजकल लोग विवाह के बजाय लिव-इन रिलेशनशिप को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब दोनों भागीदारों के बीच चीजें काम नहीं करती हैं तो उनके पास सुविधाजनक रूप से अलग होने का विकल्प होता है। अदालत ने इसे घृणित बताते हुए हा कि भारतीय संस्कृति लिव-इन रिलेशन को अभी भी कलंक माना जाता है।

न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी और न्यायमूर्ति संजय एस अग्रवाल की खंडपीठ ने 30 अप्रैल 2024 को सुनवाई के दौरान कहा कि विवाह नाम की संस्था किसी व्यक्ति को सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्थिरता प्रदान करती है। ये सभी चीजें लिव-इन-रिलेशनशिप कभी नहीं प्रदान करती है। इसलिए इसमें सबसे अधिक नुकसान महिलाओं का होता है।

पीठ ने कहा, “विवाह की तुलना में लिव-इन रिलेशनशिप को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि जब पार्टनर के बीच चीजें काम नहीं कर पाती हैं तो यह एक सुविधाजनक पलायन प्रदान करता है।यदि जोड़ा अलग होना चाहता है, तो वे दूसरे पक्ष की सहमति के बावजूद और अदालत में बोझिल कानूनी औपचारिकताओं से गुज़रे बिना, एकतरफा अलग होने की स्वतंत्रता का आनंद लेते हैं।”

कोर्ट ने आगे कहा, “हमारे देश में किसी रिश्ते को शादी के रूप में संपन्न न करना सामाजिक कलंक माना जाता है क्योंकि सामाजिक मूल्यों, रीति-रिवाजों, परंपराओं और यहाँ तक कि कानून ने भी शादी की स्थिरता सुनिश्चित करने का प्रयास किया है।” कोर्ट ने कहा कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विवाह टूटने पर महिलाओं को अधिक पीड़ा होती है।

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, कोर्ट ने अपने फैसले में आगे कहा, “इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विवाह में समस्याएँ होती हैं और असमान रिश्ते हो सकते हैं, जिसमें एक साथी, आमतौर पर महिलाएँ, नुकसानदेह स्थिति में होती हैं। यह भी सच है कि शादी के माध्यम से रिश्ते टूटने पर महिलाओं को कहीं अधिक नुकसान उठाना पड़ता है, विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में।”

कोर्ट ने कहा कि समाज के बारीकी से निरीक्षण से पता चलता है कि पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण विवाह जैसी संस्था अब लोगों को पहले की तरह नियंत्रित नहीं करती है। इस महत्वपूर्ण बदलाव और वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता ने संभवतः लिव-इन की अवधारणा को जन्म दिया है। लिव-इन रिलेशनशिप में महिलाओं की सुरक्षा की आवश्यकता जरूरी है।

कोर्ट ने कहा, “महिलाएँ अक्सर लिव-इन रिलेशनशिप के साथी द्वारा शिकायतकर्ता और हिंसा की शिकार होती हैं। विवाहित व्यक्ति के लिए लिव-इन रिलेशनशिप से बाहर निकलना बहुत आसान है और ऐसे मामले में अदालतें ऐसे संकटपूर्ण लिव-इन रिलेशनशिप से बचे लोगों और ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चों की कमजोर स्थिति पर अपनी आँखें बंद नहीं कर सकती हैं।”

दरअसल, अब्दुल हमीद सिद्दीकी नाम के एक व्यक्ति ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। अब्दुल कविता गुप्ता नाम की एक हिंदू महिला के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहता था। इससे 31 अगस्त 2021 को एक बच्चा पैदा हुआ। बाद में दोनों के रिश्ते में खटास आ गई और महिला ने 10 अगस्त 2023 को बच्चे सहित अब्दुल का घर छोड़ दिया।

इसके बाद अब्दुल ने बच्चे की कस्टडी की माँग करते हुए पारिवारिक अदालत के समक्ष परिवाद दायर किया था। अब्दुल ने दावा किया था कि वह अच्छा कमाता है। इसलिए वह बच्चे की देखभाल करने में अधिक सक्षम है। हालाँकि, फैमिली कोर्ट ने अब्दुल की अर्जी खारिज कर दी और बच्चे की कस्टडी देने से इनकार कर दिया। इसके बाद अब्दुल ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की।

सारे तथ्यों को देखने के बाद हाई कोर्ट ने कहा कि वह इस तथ्य से अवगत है कि भारतीय संस्कृति में लिव-इन रिलेशनशिप को अभी भी कलंक माना जाता है। भारतीय सिद्धांतों की सामान्य अपेक्षाओं के विपरीत यह एक आयातित दर्शन है। इसके बाद कोर्ट ने अब्दुल की याचिका खारिज कर दी।

कोर्ट ने कहा, “भारतीय परंपरा में प्रत्येक नागरिक के पास स्वयं की भावना होती है, जो अद्वितीय होती है और आयातित परंपराओं के साथ भ्रमित होने की संभावना नहीं होती है। समाज और परंपरा में आपस में जुड़ी संस्कृति को नष्ट करने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप को अपनाने से ज्यादा कोई घृणित उद्देश्य नहीं हो सकता है।”

इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी ऐसा ही आया मामला

ऐसे ही एक अन्य मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बुधवार (8 मई) को फैसला सुनाया कि अगर किसी मुस्लिम की बीवी या शौहर जिंदा है तो वे लिव-इन रिलेशनशिप में अधिकारों का दावा नहीं कर सकते। हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसा रिश्ता इस्लामी कानून में हराम माना गया है। इसके साथ ही कोर्ट ने महिला स्नेहा देवी को उनके माता-पिता के घर भेजने का आदेश दे दिया।

न्यायमूर्ति एआर मसूदी और न्यायमूर्ति एके श्रीवास्तव की पीठ ने स्नेहा देवी और मोहम्मद शादाब खान द्वारा लाई गई एक रिट याचिका पर सुनवाई की। इसमें महिला के माता-पिता द्वारा शादाब खान के खिलाफ अपहरण की शिकायत दर्ज कराने के बाद पुलिस कार्रवाई से सुरक्षा की माँग किया गया था। कोर्ट ने सुरक्षा में स्नेहा देवी को उसके माता-पिता के भेजने का आदेश दिया।

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि वे लिव-इन रिलेशनशिप में हैं, लेकिन महिला के माता-पिता ने शादाब पर उनकी बेटी का अपहरण करने और उसे शादी के लिए फुसलाने का आरोप लगाते हुए रिपोर्ट दर्ज कराई थी। याचिका कर्ताओं ने दावा किया कि वे वयस्क हैं और सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, वे लिव-इन रिलेशनशिप में एक साथ रहने के लिए स्वतंत्र हैं।

इस पर कोर्ट ने कहा, “इस्लामी सिद्धांत विवाह के दौरान लिव-इन संबंधों की अनुमति नहीं देते हैं। ये स्थिति अलग हो सकती है, यदि दोनों व्यक्ति अविवाहित हैं और दोनों पक्ष बालिग हैं और अपने तरीके से अपना जीवन जीना चुनते हैं।” इसके बाद हाई कोर्ट की पीठ ने जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के मुद्दे पर आदेश पारित करने से इनकार कर दिया।

पीठ ने पाया कि शादाब खान ने साल 2020 में फरीदा खातून से निकाह किया था और दोनों का एक बच्चा भी है। अदालत ने कहा कि विवाह संस्थाओं में संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता में सामंजस्य होना चाहिए, अन्यथा सामाजिक शांति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी सामाजिक सामंजस्य फीका और गायब हो जाएगा।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया