मठाधीश पत्रकारों को औकात दिखाती सोशल मीडिया

भारत में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिकता के 'युग-पुरुष'

याद कीजिए सोशल मीडिया से पहले का वह दौर जब हम टीवी पर बोलने वालों, अखबारों में लिखने वालों और सिनेमा में दिखने वालों की शख़्सियत पर अतिशय मोहित रहते थे, उनके फैन होते थे, उनको खत लिखते थे, उनसे मिलना चाहते थे, उनके ऑटोग्राफ और फोटोग्राफ के लिए लालायित रहते थे।

वे जो कहते, करते और बोलते थे हम उसे सत्य का दस्तावेज मान कर सहेज के रख लेते थे। उस वक्त किसी में इतना दुस्साहस नहीं होता था कि इन हस्तियों के कंटेंट में लेफ्ट, राइट, कम्युनलिज्म, सेकुलरिज्म, नेशनलिज्म और एंटी-नेशनलिज्म खोजे और अगर कोई दुर्लभ ज्ञानी ऐसा करने में सक्षम होता भी तो उसे अपना पक्ष रखने के लिए कोई ठौर नहीं था। टीवी, अखबार, पत्रिकाएँ सभी सिंडिकेट के हाथ में थे।

नतीजतन दृश्य, श्रव्य और छपाई के माध्यम के चुने हुए लोग खबरों और जानकारी पर एक संगठित नियंत्रण करके रखते थे, जो वह परोसते थे उसे पहले नोटों में तौल लेते थे, और इसके एवज में जहाँ वह मोटा फायदा कमा रहे थे वहीं तमाम पुरस्कारों, पदवी, सम्मान और सुविधाओं को ताश की तरह फेंट कर आपस में बांट लेते थे।

लेकिन समय के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वह बदलता है, और यह समय भी बदला, सोशल मीडिया आया। लोगों ने कौतूहल वश लिखना शुरू किया, मन में जो दबा था उसे धीरे-धीरे बाहर लाना शुरू किया और उन्हें हैरानी तब हुई जब पता चला कि उनकी तरह तो लाखों लोग सोचते हैं, उनकी तरह तो लाखों लोगों को शिकायतें और आक्रोश हैं, जिसे न आवाज़ मिल रही थी न जगह।

और यहीं से एक सिलसिला शुरू हुआ बेबाक बोलने, लिखने का। जहाँ कोई लिहाज नहीं, कोई सेंसरशिप नहीं, किसी भाषाई अशुद्धि का कोई मलाल नहीं। हालाँकि लिबर्टी का लोगों ने अतिक्रमण भी किया, वे अभद्र हुए, अमर्यादित भी। लेकिन वो तथाकथित लेखकों, संपादकों, बुद्धिजीवियों, विचारकों, चिंतकों और कलाकारों का हुक्का भरना बन्द कर चुके थे, लोगों ने ‘महानताओं’ की पालकी को कंधे से उठाकर चौराहे पर रख दिया था।

जिसका परिणाम हुआ कि अंग्रेज़ी पत्रकारिता के कुलदीपक राजदीप सरदेसाई अमरीका में जाकर पिट गए, अपनी हथेलियाँ रगड़ कर जीरो वॉट बिजली उत्पादन करने की क्षमता रखने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के तमाम घाटों का पानी पीकर अब एक बिस्कुट मालिक के चैनल में क्रांति कर रहे हैं। रवीश कुमार का तो यह हाल है कि वे प्रनॉय रॉय के घर में तीसरी सबसे पुरानी चीज हो चुके हैं, लेकिन तब भी उनकी नौकरी छोड़ नहीं सकते क्योंकि उन्होंने इतना ‘यश’ कमाया है कि यहाँ से जाने के बाद उन्हें शायद ही कोई रोजगार दे।

और जिनका सितारा बीते पाँच बरस में 18वीं बार गर्दिश में गया है वह बरखा दत्त हैं। आज जो हुआ, उस जिक्र को क्या दोहराना, लेकिन उसके बाद जो हो रहा है वह बड़ा दिलचस्प है कि महीने भर पहले वे ट्विटर के CEO जैक डोरसी के साथ ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को पीटने’ का प्लाकार्ड लहरा रहीं थीं, उनके बगल में फोटो खिंचवाकर, ट्विटर यूजर्स को अपनी पहुँच का संदेश दे रही थीं, आज उन्हीं को अदालत में घसीटने की धमकी दे रही हैं, क्योंकि उनकी आज की ‘हरकत’ पर ट्विटर ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू नहीं किया, सपोर्ट बरखा हैश टैग ट्रेंड नहीं किया। उल्टा उन्हें हड़का दिया और बौखलाहट में वे अब ऑलमोस्ट ‘नग्न’ नृत्य करने पर उतारू हो गई हैं। यह ताकत है सोशल मीडिया की।