हिंसा की गर्मी में चुप्पी की चादर ही पत्रकारों के लिए है एयर कूलर

यह इशारा किसकी ओर है? (फाइल फोटो)

ममता बनर्जी ने पत्रकारों को कोविड वॉरियर घोषित कर दिया। आदर्श विश्व में पत्रकार योद्धा ही होता है पर वह आदर्श विश्व की बात है और यहाँ पश्चिम बंगाल की बात हो रही है। मिलने वाली सुविधाओं से अलग रख कर देखा जाए तो पत्रकार को कोविड वॉरियर घोषित करना सिम्बोलिजम से अधिक कुछ नहीं था पर लगा जैसे पत्रकारों ने इसे गिफ्ट के तौर पर रिसीव किया और प्रदेश में हो रही हिंसा पर चुप्पी साधकर रिटर्न गिफ्ट भी दे दिया।

जगह-जगह विचारधारा और आइडिया ऑफ इंडिया की रक्षा में तत्पर पत्रकारों ने साबित कर दिया कि वे कोरोना काल में दीदी की वजह से योद्धा तो बने ही थे, चुप्पी साध कर साधक भी हो लिए और बिलकुल पिन ड्रॉप साइलेंस में बैठे मौनी बाबा माफिक।

इसी चुप्पी के बीच एक पत्रकार मित्र से मैंने कहा; चुप क्यों हो? कुछ बोलो।

मेरे कहने का असर हुआ और वो बोला। कहने लगा; हमें डिस्टर्ब न करो। अभी हम हिंसा का लेवल नाप रहे हैं।

मैंने आश्चर्य से कहा; हिंसा का लेवल नाप रहे हो! वो कैसे और किसलिए?

वो बोला; कर दी न आम पीड़ितों वाली बात? ये भी नहीं पता कि हिंसा दो तरह की होती है। एक वह जो न हो तब भी उसके खिलाफ तुरंत आवाज उठाई जाए और दूसरी वो जिस पर कुछ बोलने से पहले उसे नापना होता है। जब नाप जोख से पता चलता है कि हिंसा खतरे के निशान से ऊपर पहुँच गई है तब उस पर भर्त्सना का विचार किया जाता है।

मैंने पूछा; हिंसा नापने का भी इंच टेप होता है?

वो बोला; बिलकुल होता है और हमारे पास तो जो है वह अल्टीमेट है।

मैंने पूछा; अल्टीमेट कैसे है? क्या खासियत है उसकी?

मेरी बात सुनकर धीरे से बोला; अरे वह इंचटेप मुझे रवीश कुमार ने गिफ्ट किया था।

उसकी बात सुनकर लगा कि क्या समय है; पत्रकार खतरे को नहीं बल्कि खतरे का निशान देख रहा है।

अजीब-अजीब हेडलाइन गढ़ने के लिए विश्व कप जीत चुके अखबारों के हेडलाइन एडिटर के लैपटॉप का ‘जी-पैड’ जाम है। वे हो रही हिंसा पर एक हेडलाइन तक नहीं लिख पा रहे। उनसे इस विषय पर पूछना भी रिस्की है। ये लोग ऐसे लेवल पर हैं जहाँ यह बोलने में भी नहीं हिचकेंगे कि; हाम तो हेडलाइन गोढ़ने का ख़ातिर बैठा था लेकिन इये भाजोपा का कार्जोकोरता लोग आफ़ीस में आकर हमारा ‘जी-पैड’ जाम कर दिया। सुनने वाले के पास चुप रहने के अलावा और कोई चारा न होगा। वह मन ही मन यह सोच कर चुप रह लेगा कि; ये आदमी हेडलाइन गढ़कर विश्व कप तो जीत ही चुका था, इसकी निगाह अब शायद विश्व बांग्ला कप पर है।

वह जमाना गया जब लगभग हर मीडिया हाउस के पास एक साइलेंस जस्टिफिकेशन डिपार्टमेंट होता था जो ऐसे मौकों पर चुप्पी को जस्टिफाई करने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाने का महत्वपूर्ण काम किया करता था। आज बहाने बनाने की जरूरत नहीं पड़ती। आज हर चुप्पी के पीछे के कारणों की समझ सबको है।

इस चुप्पी काल में पत्रकार अपनी-अपनी पोजीशन के अनुसार आचरण कर रहे हैं। महान कहलाए जाने वाले पत्रकार चुप हैं। जिनमें महानता के लक्षण थोड़े कम हैं, वे हो रही हिंसा को न्याय संगत बता रहे हैं। उनसे नीचे की पायदान पर बसने वाले लोग हिंसा कर रहे लोगों की सराहना कर डाल रहे हैं। पश्चिम बंगाल में फिर से मजबूत हुआ लोकतंत्र इस समय हिंसा, बेबसी और चुप्पी का ऐसा संगम है जिसमें सोशल मीडिया का आउटरेज बूड़ उतरा रहा है।

ऐसे काल में आम आदमी मजबूरी वाली अपनी चुप्पी को व्यावहारिक कारण दे सकता है; जैसे चुप न रहे तो कुटाई हो जाएगी पर ऐसे काल में पत्रकार अपनी चुप्पी के लिए ऐसे दर्शन गढ़ लेने की औकात रखता है जिसे देख बड़े-बड़े दार्शनिक दाँतों तले अंगुली दबा लें। ऐसे मौकों पर पत्रकार का दर्शन “पश्चिम बंगाल के लिए राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है” से लेकर “हिंसा की ऐसी घटनाएँ कम्युनल नहीं हैं क्योंकि ये एक वर्ग को आत्मविश्वास देती हैं” तक कहीं भी जा सकता है।

ऐसी चुप्पी के परिणाम स्वरूप आइडिया ऑफ इंडिया की रक्षा तय है। यह इकोसिस्टम कल्याण की भी बात है। पर चुप्पी के एवज में किसी कमिटी या फिर डेलिगेशन में घुस विदेश यात्रा का योग बनवा लेना निजी कल्याण की बात है। ऐसे में इन चुप्पी साधकों के लिए तय करना कठिन नहीं कि हिंसा की गर्मी में चुप्पी की चादर ही असली एयर कूलर है।