90 के हिन्दू नरसंहार से एयर स्ट्राइक, प्रेम, कौम और राजनीति तक, ‘बाला सेक्टर’ में सब दर्ज हैं

बाला सेक्टर, आशीष त्रिपाठी का दूसरा उपन्यास है

भारत का उत्तरी क्षेत्र, जहाँ कभी कश्यप ऋषि के नाम पर बसा था, जो खुद सूर्य के बेटे की राजधानी बना। कश्मीर, जहाँ कभी शैव पंथ ने जन्म लिया था। ये वही कश्मीर है जहाँ कि धरती पर दुर्वाशा ऋषि के शिष्यों ने शिव के कण कण को पूजा था। ये वही धरती है जहाँ शिव ने अमरनाथ की गुफा में पार्वती जी को अमरकथा सुनाई। ये वही धरती है जहाँ आचार्य अभिनव गुप्त ने आदि गुरु से शास्त्रार्थ किया।

इस धरती पर धीरे-धीरे विदेशी आक्रांताओं की नजर पड़ी और रक्त से इसका अभिषेक होने लगा। 1947 में जब देश के दो टुकड़े धर्म के आधार पर कर दिए गए, तो भारत का ये मुकुट त्रिशंकु रह गया। राजा हरिसिंह न इधर के थे, न उधर के औऱ वही हुआ जिसका डर था, इस कश्मीर की धरती ने भयंकर रक्तपात का दौर देखा।

जब भारत का अभिन्न अंग टूट कर पाकिस्तान के कब्जे में चला गया तो उसे पाक ऑक्यूपाइड कश्मीर कहा जाने लगा। फिर भी वहाँ के जेहादियों औऱ कठपुतली सरकार, जो सेना के अधीन रही है, को बर्दाश्त न हुआ औऱ लगातार घाटी में रक्तपात करवाया जाने लगा। साल दर साल फौज औऱ आतंकियों ने कश्मीर को स्वर्ग से नरक बना डाला और फिर आई वो 1990 की भयंकर रात जब पहली बार कश्मीर से वहाँ के हिन्दुओ को धर्म के आधार पर मार कर, इज्जत लूट कर भगाया गया।

‘बाला सेक्टर’ (Bala Sector) उसी 1990 के भयानक रक्तपात से शुरू होती है। जेहादियों के दल ने अपने ही रक्षक को कैसे मौत के घाट उतारा, कैसे एक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए धर्म बदलना पड़ा क्योंकि उसके दोस्त की बेटी को उसे बचाना था। ये सब आपको पहले ही खण्ड में मिल जाएगा। उस भयंकर त्रासदी को लिखते समय आशीष त्रिपाठी जी के भी हाथ अवश्य काँपे होंगे, क्योंकि पढ़ते समय दिल बैठा जा रहा था।

कहानी हमें कश्मीर से बाहर भारत के उन क्षेत्रों में भी ले जाती है, जहाँ आज भी लोग पोलियो की दवा अपने बच्चों को इसलिए नहीं पिलाते कि कहीं वो नामर्द न बनजाए। एक कौम को जबरदस्ती कुछ मतान्ध लोगों ने कठपुतली बना कर उनके हर बौद्धिक विकास को रोक दिया है। नौलखिया के चरित्र के रूप में आपको एक ऐसा व्यक्ति दिखेगा जिसके लिए आप एक बार नही बार बार रोएँगे।

आशीष त्रिपाठी जी की विशेषता यह है कि उनकी कहानी एकदम हवा हवाई नहीं होती, बल्कि आप उस कहानी को पढ़ते समय स्वयं इस बात की तस्दीक कर देंगे कि हाँ ये सब मैंने खुद होते देखा है।गाँव की परंपरा में आज भी किसी से झगड़े होने पर उससे इतनी दुश्मनी नहीं की जाती कि घर आने पर उसका अपमान हो, ये बात आशीष त्रिपाठी जी ने अपने पहले उपन्यास ‘पतरकी’ के समय भी साबित की थी।

किताब में ऐसे बीसों प्रसङ्ग हैं, जब आप हंस-हंस के दोहरे हो जाते हैं। एक दृश्य में जब महिपाल का भाई भूपाल अपनी प्रेमिका से चुम्बन की दरख़्वास्त करके पेड़ पर उल्टा लटक जाता है और कहता है कि ये स्पाइडर मैन का स्टाइल है, तो आप एकदम खिलखिला कर हँसते हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के प्रधानमंत्री सरफराज आपको एक बार भी बिना हँसाए आगे नही बढ़ने देंगे।

जब बालाकोट में भारतीय वायुसेना बम गिराती है तो उसके बाद सरफराज खुद को आलू की बोरियों के पीछे छुपा लेते हैं। यहाँ तो पक्का आपके मुँह से खाया-पीया निकल जाता है। भारत मे पल रहे वामपंथी शिक्षाविदों पर भी आशीष त्रिपाठी जी की कलम बेबाकी से चली है और उस पर सबसे बड़ी बात कि कहीं से भी नसीर का चरित्र बनावटी नहीं लगता बल्कि हमारे देश के ऐसे अनगिनत प्रोफेसर हम लोगों ने देखे हैं जो बच्चों में जहर घोलकर उन्हें देश के खिलाफ खड़े करते हैं।

टीवी पत्रकार के रूप में विशाखा औऱ राकेश कुमार आपको उन न्यूज चैनलों के चरित्रों को याद दिलवा देंगे, जिन्होंने एयर स्ट्राइक के बाद भारत की सेना से सबूत माँग लिए थे। महिपाल, आकाश और रविभूषण कौल का चरित्र गढ़ते समय शायद लेखक के दिमाग में मनोज वाजपेयी औऱ आशुतोष राणा रहे होंगे, क्योंकि मुझे तो हर दृश्य में वही दिख रहे थे।

बचपन के संस्कार कैसे हमे राष्ट्रवादी बनाने में सहायक होते हैं, ये बाबा बालकनाथ की महिपाल के गुरु के रूप में तैनाती करके लेखक ने बढ़िया से समझा दिया है। प्रेम के नाम पर हो रहे षड्यंत्र से आज कौन वाकिफ नहीं, फिर भी लोग न चाहते हुए भी इस झूठे दलदल में फंस जाते हैं, जिसे आशीष त्रिपाठी जी ने इतना शानदार रचा है कि कहानी की तीन महिला पात्रों को सिवाय छल के कुछ नहीं मिलता।

प्रेम के नाम पर सच मे षड्यंत्र ज्यादा होते हैं, यह समझने के लिए आपको सिर्फ कहानी पढ़नी है। उपन्यास की मुख्य महिला पात्रों में से एक परवीन के रूप में आपको आपके उपन्यास की नायिका मिलती है, जबकि रेहाना के रूप में आपको ऐसी महिला मिलती है जो पड़ोसी मुल्क की महिलाओ के प्रति गंदगी की पीड़ा झेल रही है। सलमा का चरित्र पढ़ कर कभी हम उस पर गुस्सा करते हैं तो कभी उस पर दया आती है। पड़ोसी मुल्क की फ़ौज की नशे औऱ भ्रष्टाचार में लिप्त व्यवस्था पर बेहतरीन कटाक्ष किए गए हैं।

खुद की तरक्की के लिए बेगुनाहों का कत्ल करने वाली पाकिस्तान की फ़ौज की डर की दास्तान भी हमें ‘बाला सेक्टर’ में बखूबी देखने को मिलती है। मुझे कुछ दृश्य बेहद शानदार लगे जिनमें से एक था हरियाणा पुलिस के इंस्पेक्टर लोकेश और उसके सिपाही पंकज का ‘रॉ’ की टीम को रोक कर उनका चालान करना। इस दृश्य में ठेठ पूर्वांचल के गाँव के रहने वाले आशीष त्रिपाठी जी ने हरियाणवी का बेहतरीन इस्तेमाल किया है।

वैसे मैं कहूँगा की लेखक ने न केवल हरियाणवी, बल्कि उर्दू, भोजपुरी, हिन्दी व अंग्रेजी का भी बेहतरीन इस्तेमाल किया है। दूसरा दृश्य था, जब नसीर साहब भारत को बदनाम करने के इरादे से पाकिस्तान जाते हैं और पीओके के प्रधानमंत्री उन्हें रिसीव करने आते है। उस समय वे नसीर से कहते हैं कि आपको असली बमबारी वाली जगह देखनी है या वो देखनी है जो न्यूज चैनलों ने दिखाई?सही मायने में लेखक ने बाला कोट एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाने वालों के मुँह पर करारा तमाचा मारा है।

तीसरा दृश्य है, जब महिपाल अपनी पत्नी से मिल रहा होता है पीओके निकलने से पहले। उस समय उसकी पत्नी सुनीता पूछती है,”फिर कब आएँगे?” इस समय महिपाल के होंठ खुल नही पाते, भारतीय फौज का ये सबसे माहिर जासूस अपनी पत्नी के सामने आखिर टूट जाता है। उस दृश्य में दोनों के गले लगकर रोने पर आपके चेहरे पर अश्रुपूरित मुस्कान तैर जाती है। सबसे अधिक घृणा का पात्र बनता है तैमूर, जो अपनी बहन की इज्जत लुटने के बाद भी अपनी जान बचाने के लिए बलात्कारी के साथ हो लेता है।

असल मे जेहादियों के साथ आतंकी बनने के बाद उनके परिवार पर होने वाले अत्याचारों को इससे बेहतर शायद कभी किसी ने नही लिखा था। आशीष त्रिपाठी जी किसी मत सम्प्रदाय या देश के प्रति एकतरफा राय नहीं बनाते, बल्कि आप लोग पढ़ते हुए साफ महसूस करेंगे कि हूबहू ये चीज होती आई है। कहानी की नायिका परवीन जब अपने भाषण में भारतीय गृह मंत्री के वो वाक्य कहती है, “जब हम कश्मीर की बात करते हैं तो उसमें पीओके और अक्साई चीन भी आता है, औऱ इसके लिए जान भी दे देंगे।” तब आपके रौंगटे देश प्रेम से खड़े हो जाते हैं।

लड़ाई वाले दृश्य में जब महिपाल एक शत्रु को चाकुओं से गोदता है तो आपको लगता है आप फ़िल्म देख रहे हैं। कुल मिलाकर आपको कहानी पढ़नी नहीं है, आपको सिर्फ ये फ़िल्म की तरह देखनी है क्योंकि मुझे तो बिल्कुल हर दृश्य सजीव लग रहा था।

जाते जाते एक मजेदार बात, पाकिस्तान की बेबसी के हालात का एक मज़ेदार किस्सा है, जहाँ पीओके के पीएम कहते हैं अपने ड्राइवर से, “लाले दी जान गाड़ी बाला सेक्टर की तरफ बढ़ा दे”, मगर ड्राइवर ये कहकर मना करता है कि, ‘इन्हें बारह बजे तक पीएम हाउस होना चाहिए।’ पीएम कहता है, “मगर अभी तो दस बजे हैं”, तो ड्राइवर कहता है, “सर डाँट पड़ेगी।” पीएम कहता है, “और अगर मैं तुझे अपने किचन से पूरे पाव किलो टमाटर दूँ तो?” ड्राइवर चौंक कर कहता है, “आपके पास टमाटर है?” “और क्या मिंया? आखिर पीएम हूँ।”

पूरे उपन्यास में हर दूसरे पेज पर आपको कोट करने लायक एक से एक वाक्य मिलेंगे, उन्हें आप खुद ही पढ़कर महसूस कीजिएगा। अंत में, ‘बाला सेक्टर’ न केवल साहित्यिक बल्कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। उपन्यास में कहीं भी आपको कोई बात बोर नही करती, बल्कि 274 पेज का ये उपन्यास आप एक सिटिंग में पढ़ सकते हैं। उपन्यास के बदलते प्रसङ्ग आपको जोड़े रखते हैं।

भारतीय सेना, उनके जासूसों की शौर्य की कहानी के अतिरिक्त, कश्मीर के पाक अधिकृत हिस्से में हो रहे जुल्मों की बानगी भी है। प्रेम के नाम पर षड्यंत्र, प्रेम के नाम पर त्याग, प्रेम के नाम पर बेवकूफियाँ आपको कहानी से जोड़ लेती है। पेज क्वालिटी बेहद अच्छी है, उपन्यास का वजन इतना हल्का है कि आपको लगेगा नहीं कि ये 274 पेज में है।

किताब के पेजों में मार्जिन है, इसलिए आपको बिल्कुल उखाड़ कर पढ़ने की जरूरत नहीं है। आवरण पेज बिल्कुल क्लासिक है। लेखक की मंशा तभी स्पष्ट हो जाती है जब वो कहते हैं, “14 फरवरी 2019 को पुलवामा में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों के साथ साथ, ज्ञात-अज्ञात उन सभी भारतीय वीरों को समर्पित, जिनके लिए भारत की एकता व अखंडता उनके प्राणों से बढ़कर है।”

लेखक ने अपनी बात मात्र डेढ़ पृष्ठ में खत्म करके इसे कोई कमी होने पर स्वयं का दोष व कोई अच्छी बात होने पर पाठकों का स्नेह कहकर अपना विशाल हृदय दिखाया है।

क्यों पढ़ें?

यदि आपको साहित्य से प्रेम है, यदि आपको भारत से प्रेम है, यदि आपको फौजियों की कहानियों से प्रेम है, यदि आपको गाँव से प्रेम है, यदि आप जानना चाहते हैं कि भारत का एक बौद्धिक वर्ग किस तरह भारत के खिलाफ षड्यंत्र रचता है। अंत में, उपन्यास के लेखक आशीष त्रिपाठी जी को बधाई देते हुए उन्हें नमन करता हूँ कि उन्होंने ऐसा शानदार उपन्यास रचा। पाठकों के लिए केवल इतना कहूँगा कि चूकने की आवश्यकता नहीं है, यह बेहतरीन उपन्यास है।

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यह पुस्तक समीक्षा लोकेश कौशिक द्वारा लिखी गई है, जो कि वर्तमान में चंडीगढ़ पुलिस में कार्यरत हैं