राष्ट्रवादी से लेकर पेरियारवादी तक हैं नर्तकी नटराज की कला के प्रेरणा स्रोत: वो ‘इंसान’ जिसने इतिहास रचा

नर्तकी नटराज राष्ट्रपति कोविंद द्वारा पद्मश्री से सम्मानित

“मेरा मानना है कि नृत्य हमारे शरीरों ही नहीं, आत्माओं तक को जोड़ देने के सबसे अद्भुत मार्गों में से एक है।” यह शब्द हैं पद्मश्री से विभूषित होने वाली प्रथम किन्नर (ट्रांसजेंडर) नर्तकी नटराज के।

1989 में खोला अपना पहला नृत्य विद्यालय

1964 में मदुरै में जन्मीं नर्तकी नटराज ने अपना प्रथम नर्तकी नृत्य कलायालय मदुरै में प्रारंभ किया और तमिलनाडु की राजधानी चेन्नै में 2001-02 में दूसरा कलायालय खोला।

बचपन में उन्हें नृत्य की ओर प्रथम आकर्षण पद्मिनी और वैजयंतीमाला जैसी अभिनेत्रियों की फिल्मों के नृत्य को देखकर हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने आसपास के स्थानीय नृत्य-नाटक समूहों को भी देखना शुरू कर दिया।

सामाजिक प्रताड़ना का होना पड़ा शिकार

जिस भारत में किन्नर एक समय देवताओं की एक जाति थी और जो अपने महानतम देवताओं शिव और कृष्ण के ‘अर्धनारीश्वर’ और ‘मोहिनी’ रूप के गुण गाता हो, उसके लिए यह ग्लानि का विषय है कि वह अबोध बच्चों को उनकी किन्नर के रूप में लैंगिक पहचान के कारण प्रताड़ित करे।

नर्तकी बतातीं हैं कि एक बच्चे के रूप में वह अपनी लैंगिक पहचान को लेकर समझ नहीं पातीं थीं कि वे औरों से अलग कैसे हैं। पर नृत्य को लेकर उनके मन में कोई दुविधा नहीं थी- उन्हें पता था कि शरीर से वे चाहे जो हों, उनकी आत्मा एक नृत्य-साधक है। उन्होंने नृत्य का दामन पकड़ लिया और “एकै साधै सब सधै…” की तर्ज पर उनके नृत्य ने उन्हें अपनी लैंगिक पहचान पाने और गढ़ने में भी सहायता की।

नृत्य के प्रति उनके मादक अनुराग की उनके पुरुष शरीर में नारी के तौर पर पहचान को ढूँढ़ने में और अभिव्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। नर्तकी नटराज यह भी मानतीं हैं कि उन्होंने नृत्य का नहीं, नृत्य ने उनका चयन किया है।

“नृत्य ने मेरा चयन किया और मेरे अव्यक्त नारीत्व को अभिव्यक्ति दी। नृत्य ने उसे वास्तविकता के धरातल पर उतारा और उसकी सूक्ष्मताओं का बयान किया।”

“हमने (नर्तकी और उनकी मित्र व नृत्य में साझीदार शक्ति भास्कर) भय भी झेला है, शर्म भी, प्रतिबन्ध भी। लोग हमें वेश्यावृत्ति में धकेलना चाहते थे, पर हमने कला को चुना; शर्म और नकारे जाने को अपनी आत्मा को नहीं तोड़ने दिया।” नर्तकी कहतीं हैं, “सम्मानित कलाकार के नाम पर नाम कमाने का जूनून हमें यहाँ तक ले आया है।”

परंपरा की हैं मुरीद

नर्तकी नटराज की विशेषज्ञता तन्जवुर (तंजौर) नायकी भाव परंपरा  में है। उनके अनुसार यह पारंपरिक तन्जवुर शैली है, जो 20वीं सदी में कलाक्षेत्र की नर्तकी रुक्मिणी देवी द्वारा भरतनाट्यम के पुनर्निमाण से पहले की है। इस शैली में ऐतिहासिक विरासत को शुद्धतम रूप में प्रस्तुत करने पर खासा जोर दिया जाता है।

नर्तकी नटराज अपने गुरू, विख्यात डॉ. केपी किट्टप्पा पिल्लई, द्वारा निर्देशित नृत्यों को हूबहू मन्च पर उकेरतीं हैं, और अपने नृत्य को “मधुर भक्ति” कहतीं हैं, जिसमें भावनाओं की कोमलता और आवेश दोनों का सुन्दर समागम होता है।

गुरू और मित्र शक्ति, की जीवन में है महत्वपूर्ण भूमिका

2011 का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से प्राप्त कर चुकीं नर्तकी के जीवन में उनके गुरू किट्टप्पा पिल्लई और मित्र शक्ति भास्कर ने बड़ी भूमिकाएँ निभाईं हैं।

मित्र शक्ति, जो उन्हीं की तरह किन्नर हैं, ने अपने परिवार के टेक्सटाइल के धंधे में काम कर के नर्तकी की नृत्य की फ़ीस का बंदोबस्त किया। पहले नृत्य गुरू जयरमन (वह भी जाने-माने नृत्य-शिक्षक थे) से चोरी-छिपे नृत्य सीखने नर्तकी घर से 90 मिनट पैदल चल कर मदुरै की एक ‘चाल’ में जातीं थीं, जो किसी जानने वाले ने दया कर उन्हें अभ्यास के लिए दे दी थी। 1982 में ₹80 जयरमन की फीस थी और ₹20 उस ‘चाल’ तक रोज़ आने-जाने का उन्हें लगाना पड़ता था। (वह कुछ समय पहले ही लम्बी बीमारी से उबरे थे)

नर्तकी का बहाना शक्ति के साथ मंदिर जाने का होता था, इसलिए पूरे दिन काम करने के बाद शक्ति को भी उनके साथ वहाँ तक जाना पड़ता था।

1983 में एक साल की कठोर साधना के पश्चात् जब नर्तकी के अरंगेत्रम (पदार्पण) का मौका आया तो नर्तकी ने खुद जा कर मदुरै के तत्कालीन मेयर को आमंत्रित किया- और वह आए भी। नर्तकी के खुद के परिवार को इस पर विश्वास नहीं हुआ कि मेयर उनकी ‘बेटी’ के आमंत्रण पर उसका नृत्य देखने आए हैं। झमाझम बारिश को ईश्वर का आशीर्वाद मानते हुए नर्तकी ने उस दिन वह नृत्य किया कि वे एक शाम में पूरे मदुरै में जाने जानीं लगीं।

गुरू किट्टप्पा की व्यस्तता के चलते नर्तकी को उनसे शिष्यत्व पाने के लिए लगभग एक साल तक उनकी मनुहार करनी पड़ी। पर जब किट्टप्पा ने उन्हें पकड़ा तो महान नर्तकी बना कर ही छोड़ा। उन्हें उनका नाम ‘नर्तकी नटराज’ भी गुरू किट्टप्पा ने ही दिया। वह नर्तकी को नृत्य के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते और कठिन-से-कठिन नृत्य सिखाते गए। इसके अलावा नर्तकी की लैंगिक पहचान और समस्याओं के विषय में भी गुरू किट्टप्पा ने हमेशा उनका साथ दिया।

उन्होंने नर्तकी को नायकी भावं नृत्य पर एक शोधपत्र लिखने का भी परामर्श दिया और पूरी-पूरी सहायता भी की।

राष्ट्रवाद से पेरियारवाद तक हर जगह से लेतीं हैं प्रेरणा

श्री कृष्ण गान सभा द्वारा नृत्य चूड़ामणि सम्मान से सुशोभित (2009) व तमिलनाडु सरकार का उच्चतम सम्मान कलाईमामणि से सम्मानित नटराज राष्ट्रवादी कवी सुब्रमण्य भारती से लेकर पेरियार से प्रभावित कवि भारतीडासन तक तमिल साहित्य की कई विभूतियों के कार्यों को अपनी प्रेरणा बना नृत्य निर्देशित करतीं हैं। पर शैली विशुद्ध भारतीय पारंपरिक ही रखतीं हैं।

अपने शिष्यों को भी वे उच्च कोटि के गुप्त नृत्य रूप इसी शर्त पर सिखातीं हैं कि वे न खुद उनसे छेड़-छाड़ करेंगे, न ही ऐसे किसी शिष्य को आगे सिखाएँगे जो यह प्रण न ले।

तमिलनाडु की 11वीं की तमिल किताबों में नर्तकी नटराज का जीवन चरित्र अंकित है (पूरे भारत में भी होना चाहिए और 7वीं-8वीं तक आ जाना चाहिए, ताकि उनकी तरह लैंगिक पहचान से जूझ रहे बच्चे उनसे प्रेरणा ले सकें)। उन्होंने शक्ति भास्कर के साथ मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में 16 जनवरी 2002 को प्रस्तुति दी थी, जो प्राचीन भारत के इस कला केंद्र में 20 वर्ष के अंतराल पर पहली थी।

कड़वाहट नहीं, स्वाभिमान है दिल में

इतने कठिन दिन देखने और निरपराध होकर भी अपमान सहने के बावजूद नर्तकी कभी ‘विक्टिम-कार्ड’ खेल कर सहानुभूति नहीं बटोरना चाहतीं। वह नहीं चाहतीं कि उनके किन्नर होने के कारण उन्हें कोई विशेष सुविधा दी जाए, या उनकी कला को सहानुभूति के आधार पर सराहा जाए।

“मैं आभारी हूँ कि मेरे गुण उन बाकी सभी चीज़ों के मुकाबले उभर कर निकल पाए, जिन्हें लोग गुणों के स्थान पर तलाश रहे थे।”

परमहंस योगानंद का निम्नलिखित कथन उनकी वेबसाइट के मुख्य पेज पर साभार है:

“अटलता निर्णयों की निश्चितता को आश्वासित करती है।”

(“Persistence guarantees that results are inevitable.”)