‘मैथिल बातों के वीर हैं, जमीनी स्तर पर काम करना उन्हें पहाड़ तोड़ने जैसा लगता है’

मैथिली और मिथिला: निज भाषा को समर्पित साहित्यकार हरिश्चंद्र हरित

2001 की जनगणना के अनुसार मैथिली बोलने वालों की संख्या करीब 1.21 करोड़ है, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि नेपाल के अलावा बिह‌ार के 38 जिलों में से आधी की भाषा मैथिली है। झारखंड के भी करीब आधा दर्जन जिलों की यह प्रमुख भाषा है। 22 सांसद और बिहार विधानसभा के 126 सदस्य उन इलाकों से आते हैं जहां की भाषा मैथिली है। इन इलाकों की आबादी पांच करोड़ से ज्यादा है। यहां तक ‌कि देश की राजधानी दिल्ली में भी रहने वाले करीब 30 लाख लोगों की भाषा मैथिली है।

लेकिन, अपनी लिपि और संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल होने के बावजूद मैथिली आज भी अपना हक पाने को जूझ रही है। इसकी वजहों की पड़ताल के लिए रचना कुमारी ने मैथिली साहित्यकार हरिश्चंद्र हरित से बातचीत की। हरिश्चंद्र हरित की छुच्छे अकटा (गीत संग्रह), नै लिखू इतिहास (कविता संग्रह), मैथिली गीता (संस्कृत से मैथिली रुपांतरण) और कालिन्दी चरण पाणिग्रही (अंग्रेजी से मैथिली भावानुवाद) नामक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। नागार्जुन के प्रिय रहे हरित से बातचीत के महत्वपूर्ण अंश;

मैथिली को 2003 में अष्टम अनुसूची में जगह मिल गई। बावजूद इसके उसे वह सम्मान नहीं मिली जिसकी वह हकदार है?

इसके पीछे और कुछ नहीं, हमारी अपनी अकर्मण्यता है। आज भी हम मैथिली को हिंदी या अंग्रेजी की तुलना में कमतर मानते हैं। घर से निकलते ही हम मैथिली से हिंदी या अंग्रेजी में स्विच करने में देर नहीं लगाते। बंगालियों या तमिल लोगों की तरह हम अपनी भाषा से प्रेम नहीं करते। हमें महानगरों में, मॉल्स में, कॉरपोरेट दफ्तरों में, मैथिली बोलने में शर्म आती है। यह हीन भावना हम मैथिली बोलने वालों ने खुद ही विकसित की है।

अष्टम अनुसूची में स्थान मिलने, अच्छा साहित्य लिखे जाने, अच्छी फिल्म बनने और गीत लिखे जाने के बावजूद हमने कभी मैथिली का सेहरा उस गर्व से नहीं पहना, जैसे भोजपुरी वालों ने पहना है। यही वजह है कि आधिकारिक मान्यता के बाद भी लोगों में इस बात को लेकर जागरूकता नहीं है। जरूरत है हम सभी पूर्वाग्रह से बाहर निकलकर बिना किसी झिझक के मैथिली बोलें। लोगों को अपनी भाषा के समृद्ध साहित्य और इतिहास से परिचित कराएँ।

मैथिली को अष्टम अनुसूची में जगह मिले तकरीबन 16 साल हो गए। इस सफर को आप किस तरह देखते हैं?

मुझे याद है कि इस संबंध में 2003 में दरभंगा से आकर एक प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से मुलाकात की थी। इस दौरान उन्हें 5 किताबें भेंट की गई थी। इनमें दो शब्दकोश थे- एक मैथिली में अनुवादित रामायण, एक महाभारत और एक मेरे द्वारा संस्कृत से मैथिली में रूपांतरित मैथिली गीता। कुछ दिनों बाद, जब मैथिली को भाषा का दर्जा देने का विधेयक संसद से पास हुआ, तो हम लोगों को लगा जैसे हमने एक बहुत बड़ी लड़ाई जीत ली।

एक तरफ जहाँ हमें इस बात की खुशी थी कि हमारी दशकों की मेहनत रंग लाई, वहीं दूसरी तरफ हमारे ज़ेहन में एक सवाल भी था कि अब आगे क्या? उसके बाद से हमारा अगला लक्ष्य था मैथिली को प्राथमिक शिक्षा में शामिल कराना। हमारा ध्येय था कि मैथिली स्कूलों में भाषा के तौर पर पढ़ाई जाए और बच्चे बड़े होकर अपनी भाषा में रोजगार की संभावनाएँ तलाश सकें। हमने सोचा था कि मैथिली भाषा बहुत बड़े स्तर पर विस्तृत हो जाएगी। लेकिन हकीकत यह है कि 16 साल बाद भी हम कुछ खास हासिल नहीं कर पाएँ हैं।

प्राथमिक स्तर की शिक्षा में मैथिली को शामिल करने में किन वजहों से देरी हो रही है?

इसके पीछे एक ही वजह है। वह है मैथिली के प्रति अभिभावकों की उपेक्षा का भाव। हम घर में तो मैथिली बोलते हैं, मगर स्कूलों में मैथिली में पढ़ाई हो इसके लिए आवाज नहीं उठाते। आज लगभग हर राज्य में क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई होती है। पश्चिम बंगाल में बांग्ला, तमिलनाडु में तमिल, कर्नाटक में कन्नड़ भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। यदि वहाँ की सरकारें सिलेबस से क्षेत्रीय भाषा को अलग करने के बारे में सोचेगी भी तो लोग सड़क पर उतर जाएँगे। आंदोलन करेंगे। वो आवाज उठाएँगे, क्योंकि यह उनके लिए अस्मिता, पहचान का सवाल है। लेकिन, मैथिली बोलने वाले लोगों के साथ ऐसा नहीं है। मैथिल बातों के वीर हैं, जमीनी स्तर पर काम करना उन्हें पहाड़ तोड़ने जैसा लगता है।

भाषा को अष्टम अनुसूची मे जगह दिलाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। क्या आपको लगता है कि जिन उद्देश्यों के लिए ये सब किया गया वो पूरा हो पाया है?

साहित्य अकादमी द्वारा मैथिली को भाषा की सूची में शामिल करने के बाद भी अष्टम अनुसूची में स्थान मिलने में काफी वक्त लग गया। इसके लिए काफी आंदोलन करना पड़ा। 2003 में मैथिली को अष्टम अनुसूची में जगह मिली। हम कह सकते हैं कि जो लक्ष्य था वह पूरा हुआ। लेकिन, इसका उद्देश्य था मैथिली भाषा के प्रति सरकार और लोगों को जागरूक करना। स्कूली शिक्षा में मैथिली को शामिल करवाना। अपनी भाषा में रोजगार के अवसर पैदा करना। इनमें हम पीछे रह गए। अब तक कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया है।

अपनी लि​पि फिर भी उपेक्षा का भाव

अमूमन यह भी दिखता है कि सार्वजनिक मंचों पर मैथिली को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले अपने परिवार और बच्चों के साथ हिंदी या अंग्रेजी में बात करते हैं। इसका क्या कारण है?

मिथिलावासियों ने खुद से एक धारणा बना ली है कि वो दूसरों से कम हैं। खुद को कमतर मानने की इसी पूर्वधारणा की वजह से वो मंचों पर पर तो मैथिली प्रेमी होने का ढोल पीट लेते हैं, लेकिन अपने घर में मैथिली नहीं बोलते।

हर भाषा अपने आप में खूबसूरत और समृद्ध होती है। उसका अपना हुस्न होता है, अपनी विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए जरूरत है कि हम इस बात को समझे कि जिस तरह मैथिली भाषा संस्कृत, हिंदी, इंग्लिश या किसी अन्य भाषा का विकल्प नहीं है, ठीक उसी तरह कोई भी अन्य भाषा मैथिली का विकल्प नहीं हो सकती। हमें यह जानने और स्वीकार करने की जरूरत है कि मैथिली भाषा अपने आप में समृद्ध और विशेष है। जरूरत है तो बस इसे प्यार करने की। इसे अपनाने की और अपने प्रतिदिन के व्यवहार में लाने की।

मैथिली भाषा से शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों के लिए रोजगार की कितनी संभावनाएँ हैं?

मैथिली की फिलहाल स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। लेकिन कॉलेज में आप मैथिली को एक विषय के तौर पर चुन सकते हैं। रिसर्च कर सकते हैं, नेट का एग्जाम निकालकर प्रोफेसर बन सकते हैं। हर साल सैकड़ो लोग मैथिली भाषा से केंद्रीय लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर शासनिक सेवा का हिस्सा बनते हैं। कई सारे रिसर्च ऑर्गेनाइजेशंस हैं, जो अलग-अलग भाषाओं पर शोध करते हैं। यहॉं भी संभावनाएँ हैं। लेकिन सारे अवसर सरकारी क्षेत्र में ही उपलब्ध हैं। प्राइवेट सेक्टर में मैथिली को लेकर मौके नहीं हैं। इसलिए मुझे लगता है कि स्कूलों में पहली कक्षा से ही मैथिली भाषा पढ़ाने की जरूरत है।

आज से 10 साल बाद आप मैथिली को कहाँ देखते हैं?

जैसा कि हम देख रहे हैं कि अष्टम अनुसूची में शामिल होने के 16 साल बाद भी मैथिली भाषा कोई खास तरक्की नहीं कर पाई है। ऐसे में मुझे नहीं लगता कि 10 साल कोई बड़ी अवधि होगी मैथिलों के मन में अपनी भाषा के प्रति प्रेम जगाने का। हो सकता है कि 10 साल बाद भी कमोबेश यही स्थिति रहे। फिर भी इस पर फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। यह पूर्णतया इस बात पर निर्भर करती है कि मैथिली बोलने वाले लोग सिर्फ संगठन बनाकर राजनीति करने के बजाए मातृभाषा को अपनाने और उसका प्रचार-प्रसार करने को कितनी प्राथमिकता देते हैं।